इस बार मैं अभी गुजरे कवि वीरेन डंगवाल की स्मृति में एक कविता कहना चाहता हूं.
हफ्ता न मिलने से सांड़-सा बौराया लखनऊ का पुलिसवाला है जो बूट की ठोकरों से राजभवन को जाती सदर सड़क के फुटपाथ पर एक टाइपराइटर तोड़ रहा है, वहीं तमाशा देखने वालों से घिरा, विलाप करता बूढ़ा टाइपिस्ट कृष्ण कुमार तब से बैठा है जब एक अर्जी टाइप करने की मजूरी चवन्नी हुआ करती थी, इतना वक्त बीता कि बीस रुपये हो चुकी है. पीछे परदे की तरह पेशाब की महक वाली विधानसभा से सटी बड़े डाकखाने की दीवार है, जिस पर किसी ऐसे ने जो इन दिनों हर कहीं मौजूद खुफिया कैमरों की नाकामी से नाखुश है एक चिप्पी लगा दी है, जिस पर लिखा है- सावधान आप ईश्वर की नजर में हैं.
यह फेसबुक पहुंची फोटो एक गरीब के साथ हो रही लपड़-झपड़ को वायरल कर देती है, चारों ओर थू-थू होती है, दुनिया भर से टाइपराइटर और रुपये की मदद की इच्छाएं आ रही हैं, वह फोन पर एक ही अत्याचार बताते बताते चिड़चिड़ाने लगा है, राज्य के युवा मुख्यमंत्री को शर्म आती है, वे बूढ़े टाइपिस्ट को नया टाइपराइटर, कुछ मुआवजा और सुरक्षा का हुक्म देते हैं. यूरेका!
एंड्रॉयड फोनों की स्क्रीन से दीप्त युवा चेहरों पर ‘आओ करके सीखें विज्ञान’ छपा है. जिस काम में धरना, प्रदर्शन नाकाम हो चले थे वह अब फेसबुक करने लगा है. धरना हास्यास्पद निरीहता से एक कोने में सिमटा रहता था, जिसे सरकार उपेक्षा या लाठी से निपटा देती थी. फेसबुक तक लाठी नहीं पहुंच पाती और रायता दूर तक फैलता है. जनमत बनाने में वे भी शामिल हो गए हैं, जो सड़क जाम करने वालों को गुंडे और धरना को नौटंकी कहा करते थे लेकिन उनकी दया भी भीड़ देखकर ही सक्रिय क्यों होती है? वह चुपचाप अपना काम क्यों नहीं करती?