हार से निकली जीत

जापानी फौज आईएनए की मदद से इंफाल और उसके आसपास  के क्षेत्रों पर नियंत्रण करना चाहती थी ताकि अंग्रेजों को बर्मा की तरफ बढ़ने से रोका जा सके.
जापानी फौज आईएनए की मदद से इंफाल और उसके आसपास के क्षेत्रों पर नियंत्रण करना चाहती थी ताकि अंग्रेजों को बर्मा की तरफ बढ़ने से रोका जा सके.

15 नवंबर, 1941. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पर्ल हार्बर पर जापानी हमला होने के लगभग एक महीने पहले की तारीख. इसी दिन जापानी नेतृत्व ने एक योजना को मंजूरी दी थी. इसका मकसद था अमेरिका और ब्रिटेन के साथ चल रही लड़ाई को तेजी से अपने पक्ष में एक नतीजे तक पहुंचा देना. भारत और ऑस्ट्रेलिया को अंग्रेजी राज से मुक्त करवाना और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में मदद करना भी इस रणनीति का एक अहम हिस्सा था. उस समय जापान के प्रधानमंत्री हिदेकी तोजो ने डाइट (जापान की संसद) में भाषण देते हुए कई बार भारत का जिक्र किया था. भारतीयों से उनका कहना था कि वे विश्वयुद्ध का फायदा उठाएं, ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ खड़े हो जाएं और भारतीयों के लिए एक भारत की स्थापना करें.

फरवरी, 1942 के दौरान ब्रिटेन की फौज कई मोर्चों पर जापान के सामने पस्त हो चुकी थी. इसके बाद तोजो का कहना था, ‘भारत की स्वतंत्रता के बिना वृहत्तर पूर्वी एशिया में वास्तविक पारस्परिक समृद्धि नहीं आ सकती.’ फिर चार अप्रैल को उन्होंने कहा, ‘ब्रितानी हुकूमत और भारत में सैन्य प्रतिष्ठान पर निर्णायक वार करने का फैसला हो चुका है.’

लेकिन जापान के सामने एक समस्या थी. कांग्रेस और मोहनदास गांधी इसके समर्थन में नहीं थे. उन्हें आशंका थी कि इसके बाद टोक्यो भारत को अपना अधीनस्थ देश बनाने की कोशिश करेगा. हालांकि यह निराधार थी. भारत और जापान पर लिखने वालीं अमेरिकी इतिहास लेखक जॉयसी सी लेब्रा अपनी किताब द इंडियन नेशनल आर्मी एंड जापान में लिखती हैं, ‘ भारत में घुसपैठ और उसे वृहत्तर पूर्वी एशियाई देशों के किसी संगठन में लाने की जापान की कोई योजना नहीं थी जैसा कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाले ज्यादातर नेता सोच रहे थे.’ कांग्रेस के नेता इस बारे में अपनी राय बना चुके थे. इसलिए तोजो की घोषणा के बाद भी टोक्यो ने भारत में घुसने की अपनी योजना टाल दी. यदि 30 करोड़ से ज्यादा भारतीय कांग्रेस के अनुगामी हों ऐसे में जापान का जबर्दस्ती भारत में प्रवेश अपने लिए एक और मुसीबत खड़ी करने जैसा था.

नेताजी का जादू कुछ ऐसा था कि जापानी भी उनके मुरीद बन गए. जापानी फौज के प्रमुख सुगीयामा की सहानुभूति उनके साथ हो गई

अब जापानियों ने एक अलग युक्ति सोची. उन्होंने उपमहाद्वीप में प्रवेश के लिए इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) या आजाद हिंद फौज को अपनी रणनीति में अहम भूमिका दे दी. जापान ने फरवरी, 1942 में सिंगापुर में ब्रिटेन की फौज को हराया था और आईएनए में ब्रिटेन की तरफ से लड़ने वाले तकरीबन 50 हजार युद्धबंदी शामिल थे. जापान शुरुआत में चाहता था कि आईएनए को वह ब्रिटेन के खिलाफ दुष्प्रचार के लिए इस्तेमाल करे. जापानी सेना के टोक्यो स्थित मुख्यालय में इस बात को लेकर काफी चर्चा हुई थी कि उसे भारत की स्वतंत्रता को समर्थन देने के लिए किस हद तक जाना चाहिए. आखिरकार जापानी सेना के अधिकारियों को आईएनए के प्रशिक्षण और उसे हथियारों से लैस करने की जिम्मेदारी दे दी गई. इनमें मेजर इवाइची फुजीवारा जैसे सैन्य अधिकारी भी थे. इनका मानना था कि ब्रितानी भारत पर हमले के लिए जापान आईएनए को पूरी मदद दे. हालांकि इसपर टोक्यो की अपनी कुछ चिंताएं थीं. जापानियों के लिए भारत पहली प्राथमिकता नहीं था क्योंकि रूस और अमेरिका उसके लिए बड़ा सिरदर्द थे. जापान के लिए ब्रितानी राज के अधीन भारत पर हमले का सर्वश्रेष्ठ समय वह था जब वह एशिया में कुछ जगह शुरुआती जीत हासिल कर ले. ‘ऐसे कई मौके आए जब यदि जापान ने योजना बनाई होती तो वह भारत में प्रवेश कर सकता था ‘ लेब्रा लिखती हैं, ‘ जैसे इसका सबसे अच्छा समय 1942 का वसंत और उसके बाद गर्मी का मौसम था क्योंकि इसके पहले जापानी फौजें मलाया (मलेशिया का एक हिस्सा) और बर्मा के संघर्ष में अपनी क्षमता साबित कर चुकी थीं. हवाई, समुद्री और जमीनी ताकत में ब्रिटेन जापान के आगे कहीं ठहर नहीं पाया था, लेकिन उसने भारत में घुसने के मौके छोड़ दिए.’

नेताजी सुभाषचंद्र बोस का पदार्पण
जापान की फौज जब यूरोपीय ताकतों को एशिया में नेस्तोनाबूत करने में लगी थीं तब तक सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस छोड़ चुके थे और बर्लिन में रह रहे थे. उन्होंने जर्मनी में रह रहे भारतीय युद्धबंदियों को साथ लेकर एक सैन्य टुकड़ी बनाई थी. वे कोशिश कर रहे थे कि जर्मन फौज उन्हें एरविन रोमेल (हिटलर के सबसे काबिल सैन्य अधिकारियों में शुमार) के साथ अंग्रेजों का मुकाबला करने की अनुमति दे. नेताजी की योजना बेहतरीन थी : जब ब्रिटिश-भारतीय सेना के जवान अपने सामने जर्मनी की फौज के साथ अपने ही भाई बंधुओं को देखते तो उनके लिए लड़ाई आसान नहीं रहती. हो सकता है वे बड़े पैमाने पर व्रिदोह कर देते. ‘दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त’ वाली जिस नीति पर नेताजी आगे बढ़ना चाहते थे उसे रोमेल और हिटलर नहीं मानते थे. भारतीय टुकड़ी को नाजियों से वैसा समर्थन नहीं मिला जैसी उसे जरूरत थी. ‘सार्वजनिक रूप से नस्लवाद का समर्थन और यूरोप केंद्रित नीतियां हिटलर की सोच का हिस्सा थीं. इसके अलावा धुरी शक्तियों का भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के पक्ष में न होना भी इसकी बड़ी वजह थी’ राजनीति शास्त्री और लेखक एंटन पेलिंका ने अपनी किताब डेमोक्रेसी इंडियन स्टाइल : सुभाष चंद्र बोस एंड द क्रिएशन ऑफ इंडियाज पॉलिटिकल कल्चर (2003) में लिखा है, ‘हिटलर श्वेत नस्ल की श्रेष्ठता की धारणा का प्रबल पक्षधर था और वह अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में खुद को अश्वेत लोगों के साथ खड़ा नहीं देखना चाहता था.’ वहीं जर्मनी का विदेश मंत्रालय भारतीय मूल के युद्धबंदियों को छोड़ना नहीं चाहता था क्योंकि वे ब्रिटेन के साथ युद्ध के दौरान मोलभाव का सबसे बड़ा जरिया थे.

नेताजी मई,1943 में टोक्यो पहुंचे. इस एशियाई देश में उनकी उपस्थिति ने चमत्कारिक असर पैदा किया. वहां भारतीय मूल के तकरीबन 50 हजार युद्ध बंदी थे. शुरुआत में इनमें से लगभग आधे ही आईएनए में शामिल होने के लिए तैयार हुए, लेकिन नेताजी के समर्पण को देखकर जल्दी ही तकरीबन सभी आईएनए में शामिल हो गए. नेताजी का जादू कुछ ऐसा था कि जापानी भी उनके प्रभाव से अछूते नहीं रह सके. जापानी फौज के प्रमुख सुगीयामा और तोजो की सहानुभूति उनके साथ हो गई.

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