शिक्षा सुधार पर तकरार

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दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) के अरविंद केजरीवाल ने जब दोबारा सरकार बनाई तो उनके सामने प्रदेश के सरकारी स्कूलों में शिक्षा के स्तर को सुधारने के साथ-साथ यहां के प्राइवेट स्कूलों की मनमानियों पर नकेल कसना भी एक चुनौती थी. इन्हीं चुनौतियों से पार पाने के प्रयास में दिल्ली विधानसभा के शीतकालीन सत्र के दूसरे दिन उपमुख्यमंत्री और शिक्षामंत्री मनीष सिसोदिया ने शिक्षा सुधार से संबंधित तीन विधेयक सदन में पेश किए, दिल्ली विद्यालय (लेखों की जांच और अधिक फीस की वापसी) विधेयक, 2015, दिल्ली विद्यालय शिक्षा (संशोधन) विधेयक, 2015 व नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार (दिल्ली संशोधन) विधेयक, 2015. लेकिन इन तीनों ही विधेयकों पर बवाल खड़ा हो गया है.

शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाले कार्यकर्ता व गैर सरकारी संगठन इन विधेयकों में किए गए प्रावधानों को शिक्षा विरोधी और प्राइवेट स्कूलों की मनमानियों को बढ़ावा देने वाला करार दे रहे हैं. उनका मानना है कि राज्य सरकार ‘दिल्ली विद्यालय विधेयक’ और ‘दिल्ली विद्यालय शिक्षा (संशोधन) विधेयक’ की आड़ में दिल्लीवासियों के साथ साजिश कर रही है. आम जनता को प्राइवेट स्कूलों पर लगाम कसने का सब्जबाग दिखा कर वह इन दोनों विधेयकों के माध्यम से प्राइवेट स्कूलों को यह कानूनी अधिकार देने जा रही है कि वह शिक्षा को व्यवसाय बनाकर जो अब तक करते आए थे, उसे जारी रख सकते हैं. साथ ही 2009 में पारित शिक्षा के अधिकार कानून में अनावश्यक हस्तक्षेप कर उसमें से धारा 8 व 16 को संशोधित कर आठवीं कक्षा तक बच्चों को फेल न करने वाली नो डिटेंशन पाॅलिसी को हटाए जाने को भी शिक्षा विरोधी करार दिया जा रहा है.

अखिल भारतीय अभिभावक संघ (एआईपीए) के राष्ट्रीय अध्यक्ष एडवोकेट अशोक अग्रवाल कहते हैं, ‘सरकार का उद्देश्य केवल प्राइवेट स्कूलों को खुली छूट देना है. दिल्ली विद्यालय विधेयक के प्रभाव में आने के बाद सभी प्राइवेट स्कूलों को यह अधिकार मिल जाएगा कि वह जब चाहंे, जितनी चाहें फीस बढ़ा सकते हैं. वहीं दिल्ली विद्यालय शिक्षा विधेयक, 1973 में संशोधन कर धारा 10(1) को हटाया जा रहा है जिसे 42 साल पहले काफी संघर्ष के बाद इस कानून में जोड़ा गया था. इस धारा में प्रावधान था कि प्राइवेट स्कूल के कर्मचारियों को सरकारी स्कूल के कर्मचारियों के समान ही वेतनमान दिया जाएगा और सभी वेतन आयोग इन पर भी लागू होंगे. लेकिन अब इन्हें घरेलू नौकर बनाने की तैयारी है, जिन पर कोई कानून लागू नहीं होता. अब प्राइवेट स्कूल चाहें तो इन्हें कितना भी वेतन दें. दो से तीन हजार रुपये प्रतिमाह भी.’

‘आठवीं तक फेल न करने की नीति ‘एजुकेशन फॉर ऑल’ के तहत लाई गई थी, ताकि गरीबों के बच्चे भी हर परिस्थिति में शिक्षा से जुड़े रहें’

प्राइवेट स्कूलों द्वारा बढ़ाई जाने वाली मनमानी फीस पर लगाम कसने के उद्देश्य से राज्य सरकार द्वारा लाए गए दिल्ली विद्यालय विधेयक, 2015 में प्रावधान है कि कोई भी प्राइवेट स्कूल अभिभावकों से जितनी चाहे उतनी फीस वसूल सकता है बशर्ते वह इस फीस का उपयोग उसी विद्यालय के अंदर विद्यालयीन जरूरतों की पूर्ति और सुविधाओं पर ही करे, विद्यालय के बाहर किसी और मद में नहीं. इसकी जांच के लिए सरकार एक समिति का गठन करेगी. हर स्कूल सरकार को अपने सालभर के लेखापरीक्षित खाते (ऑडिटेड अकाउंट) सौंपेगा और यह समिति उन खातों की जांच समिति में ही शामिल लेखा परीक्षक (चार्टर्ड अकाउंटेंट) की सहायता से करेगी. अगर यह समिति पाती है कि स्कूल के द्वारा वसूली गई फीस स्कूल के अलावा कहीं और खर्च की गई है तो उसे अतिरिक्त फीस लेना करार दिया जाएगा और ऐसी फीस को समिति या तो अभिभावकों को वापस करने का आदेश दे सकती है अथवा उसे निर्धारित मदों में उपयोग किए जाने का हुक्म सुना सकती है. इसके अतिरिक्त समिति को विद्यालय प्रबंधन को दंडित करने का भी अधिकार होगा. दंडस्वरूप वह पचास हजार से अधिकतम पांच लाख रुपये तक का अर्थदंड या तीन साल के कारावास की सजा अथवा दोनों ही सुना सकती है.

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लेकिन इस विधेयक में सरकार ने कई ऐसे पेंच फंसा दिए हैं जो प्राइवेट स्कूलों के पक्ष में जाते हैं. जिनके बारे में चर्चा करते हुए अशोक अग्रवाल कहते हैं, ‘नए विधेयक में अभिभावकों से फीस वृद्धि के खिलाफ न्यायालय में जाने का अधिकार छीना गया है. सारे अधिकार समिति को दे दिए गए हैं. अब अगर फीस वृद्धि के खिलाफ कोई न्यायालय जाना भी चाहे तो नहीं जा सकता, उसे इसी समिति के समक्ष अपनी शिकायत दर्ज करानी होगी. लेकिन सरकार ने इसमें भी एक पेंच फंसा दिया है. शिकायत दर्ज कराने के लिए कम से कम बीस या संबंधित विद्यालय के कुल पांच फीसदी छात्रों के अभिभावकों की जरूरत होगी. वहीं शिकायत दर्ज कराने के लिए अभिभावकों को सत्र शुरू होने के बाद कम से कम 18 महीनों तक इंतजार करना होगा. क्योंकि बिल में ऐसा ही प्रावधान है कि एक स्कूल अभिभावकों से मनचाही फीस ले सकता है और सालभर उस फीस का उपयोग कर सकता है. सालभर बाद उसे इस फीस से संबंधित सभी खाते सरकार को सौंपने होंगे और सरकार उन खातों की जांच गठित समिति से कराएगी. जांच में तकरीबन छह माह का समय लगेगा. इस प्रकार देखा जाए तो उस स्कूल द्वारा बढ़ाई गई फीस के खिलाफ इस अवधि में कानूनन रूप से कोई भी शिकायत वैध नहीं होगी.’

‘शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार नहीं आया तो सरकार धारा 17 के तहत बच्चों को काॅरपोरल पनिशमेंट (शारीरिक दंड) देने की भी वकालत करने लगेगी’

इसके अतिरिक्त विवाद इस समिति के अध्यक्ष को लेकर भी है. सरकारी विधेयक के अनुसार इस समिति का अध्यक्ष उच्च न्यायालय अथवा जिला न्यायालय का कोई सेवानिवृत्त न्यायाधीश या फिर प्रमुख सचिव स्तर का कोई सेवानिवृत्त नौकरशाह हो सकता है. इसके विरोध में तर्क यह है कि जब किसी नौकरशाह को अध्यक्ष बनाने का विकल्प मौजूद है ही तो फिर क्यों किसी न्यायाधीश को इस समिति की बागडौर सौंपी जाएगी? एआईपीए का कहना है, ‘केजरीवाल जो अपने उदय से ही नौकरशाही पर बेईमान होने का आरोप लगाते आए, आज वो उसी बेईमान नौकरशाही पर इतना भरोसा जता रहे हैं. यहां उनकी कथनी और करनी में ही अंतर नहीं बल्कि उनकी नीयत में भी खोट नजर आता है.’ अशोक अग्रवाल बताते हैं, ‘समिति चार्टर्ड अकाउंटेंट द्वारा जिस भी स्कूल के खातों की जांच कराएगी, चार्टर्ड अकाउंटेंट की फीस भी वही स्कूल देगा. इससे केजरीवाल सरकार ने स्कूलों को फीस बढ़ाने का एक नया कारण और उपलब्ध करा दिया है.’

प्राइवेट स्कूलों द्वारा वसूली जाने वाली मनमानी फीस के संबंध में अगर तमिलनाडु, महाराष्ट्र और राजस्थान सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों पर नजर दौड़ाई जाए तो वहां सरकार अपने अधीन एक समिति का गठन करती है  और समिति इन स्कूलों की फीस तय करती है कि हमारे राज्य में कौन सा स्कूल कितनी फीस लेगा. अगर कोई  स्कूल अपनी फीस बढ़ाना चाहता है तो वो इस समिति को प्रस्ताव देता है और वो समिति तय करती है कि फीस वृद्धि आर्थिक लाभ के उद्देश्य से तो नहीं की गई. इस कानून के पक्ष में सभी की सहमति है. लेकिन मनीष सिसोदिया कहते हैं, ‘अगर सरकार प्राइवेट स्कूलों की फीस तय करने की जिम्मेदारी ले लेगी तो ये तानाशाही होगी. इससे प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होगी और सुविधाओं पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा. कैसे हम सबको एक लाठी से हांक सकते हैं?’

वहीं दिल्ली विद्यालय शिक्षा विधेयक, 1973 की धारा 10(1) के संशोधन पर मचे बवाल के बीच अपने बचाव में सरकार का कहना है कि यह प्रावधान प्राइवेट स्कूलों के लिए यह अनिवार्य करता है कि वह अपने कर्मचारियों को सरकारी स्कूल कर्मियों के समान वेतन दें लेकिन यह गैर व्यवहारिक है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कहते हैं, ‘एक सरकारी स्कूल में शिक्षक की तनख्वाह औसतन चालीस हजार होती है. अगर बात करें प्राइवेट स्कूल की तो दिल्ली के 1800 प्राइवेट स्कूलों में से लगभग एक हजार स्कूल ऐसे हैं जिनकी फीस हजार रुपये प्रतिमाह से अधिक नहीं है. कई स्कूल तो ऐसे हैं जो दो सौ रुपये की मामूली मासिक फीस पर भी बच्चों को पढ़ा रहे हैं. किसी स्कूल में तीन सौ तो किसी में चार सौ बच्चे हैं . इस लिहाज से देखें तो बीस छात्रों की एक कक्षा में एक शिक्षक के अनुपात से प्रबंधन को स्कूल में 15-20 शिक्षकों की जरूरत होती है. अब अगर इन शिक्षकों को सरकारी स्कूलों के शिक्षकों के समान वेतन दिया जाए तो छह लाख से आठ लाख रुपये का खर्चा आएगा लेकिन इतना तो इनके पास फीस कलेक्शन भी नहीं होता. इसका नतीजा ये होता है कि ये स्कूल फर्जी खातों का सहारा लेते हैं या फिर शिक्षक को सरकारी स्कूल के समान वेतन का चेक थमाते समय उससे  एक ब्लैंक चेक पर हस्ताक्षर करा लेते हैं और बाद में इस चेक के माध्यम से उस शिक्षक के खाते से दी हुई फीस को वापस अपने खाते में ट्रांसफर कर लेते हैं. इस प्रकार एक शिक्षक को न्यूनतम वेतन से भी कम में अपना गुजारा करना होता है. हमारा प्रयास है कि इस फर्जीवाड़े को रोका जाए. इसलिए हम दिल्ली विद्यालय शिक्षा कानून (डीएसई एक्ट),1973 में शामिल गैर व्यवहारिक धारा 10 (1) को हटाने के लिए यह संशोधन विधेयक लाए हैं.’ लेकिन जब कानून में समान वेतन के सिद्धांत वाली यह धारा नहीं रहेगी तो फिर वेतन निर्धारित करने के क्या मापदंड होंगे? यह अभी निर्धारित नहीं हुआ है. इसके लिए सरकार एक समिति के गठन पर विचार कर रही है जो दिल्लीवासियों के बीच जाकर उनसे रायशुमारी कर कोई ऐसा तरीका ईजाद करेगी जो प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों के साथ वेतन के मामले में हो रहे शोषण पर लगाम लगा सके और उन्हें एक सम्मानजनक वेतन दिला सके.