एक भव्य इमारत के सामने फैली हरी घासवाले मैदान में गुलाबी और नीले रंग की स्कूली ड्रेस पहने कुछ बच्चे खेल रहे हैं. इमारत पर लिखा है ‘शासकीय प्राथमिक व माध्यमिक आश्रमशाला’. यह चित्र महाराष्ट्र के आदिवासी विकास विभाग की सूचना पुस्तिका का मुखपृष्ठ है. इस पुस्तिका के माध्यम से हमें एक आदर्श आश्रमशाला का परिचय मिलता है. लेकिन महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में चल रही इन आश्रमशालाओं की जमीनी हकीकत सूचना पुस्तिका के मुख्यपृष्ठ से एकदम परे है. साल 2001 से 2013 के दौरान इन आश्रमशालाओं में 793 बच्चों की जान जा चुकी है, कुछ की मामूली तबीयत ख़राब होने से और कुछ की सांप-बिच्छू के काटने से. हर बार इन आदिवासी बच्चों की मृत्यु का मुख्य कारण आश्रमशालाओं में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी को बताया जाता है. आदिवासियों के हित की लड़ाई लड़ने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि सालाना 300 करोड़ रुपये का बजट होने के बावजूद भी आदिवासी बच्चों के लिए बनी इन आवासीय आश्रमशालाओं की हालत जर्जर है. स्कूल इमारतों की खस्ता हालत, घटिया स्तर का भोजन और यौन शोषण की घटनाएं यहां रोजमर्रा का किस्सा बन चुकी हैं.
जुलाई 2012 में गोंदिया जिले के मक्कड़घोड़ा क्षेत्र की एक आश्रमशाला में जमीन पर सो रहे छह बच्चों को सांप ने काट लिया. इनमें से दो बच्चों की मौत हो गई. शाला में पलंगों की कमी के चलते ये बच्चे जमीन पर सोने को मजबूर थे. इस आश्रमशाला की कुल क्षमता 384 है, इनमें से 150 बच्चे पलंगों के आभाव में जमीन पर सोते हैं.
दिसंबर 2012 में नासिक जिले की एक आश्रमशाला के प्रांगण में एक 18 वर्षीय आदिवासी बालिका के सामूहिक बलात्कार का मामला सामने आया था, जिसके बाद शाला में कार्यरत अधीक्षक समेत 15 लोगों को निलंबित कर दिया गया था. ये सभी 15 आरोपित कर्मचारी ड्यूटी के वक्त आश्रमशाला से नदारद थे, जबकि नियमों के अनुसार बच्चों की सुरक्षा के लिहाज से अधीक्षक को स्थायी रूप से आश्रमशाला में रहना चाहिए.
जनवरी 2009 में पालघर जिले के गोवडे नामक गांव की एक आश्रमशाला में 15 वर्षीय बालिका के गर्भवती होने का मामला उजागर हुआ था. बाद में पता चला कि शाला अधीक्षक ने आदिवासी छात्रा की पारिवारिक समस्याओं को सुलझाने का लालच देकर उसका यौन शोषण किया था.
इन आश्रमशालाओं की वास्तविकता से रूबरू होने के लिए तहलका ने महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल नंदुरबार जिले का दौरा किया. आदिवासी जनसंख्या के हिसाब से नंदुरबार महाराष्ट्र का सबसे बड़ा जिला है, यहां की 70 फीसदी आबादी आदिवासी है, इस जिले में भील, तडवी और पावरा समुदाय के आदिवासियों की बहुलता है.
सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला के बीच स्थित अक्कलकुवा तहसील के दहेल गांव की एक आश्रमशाला का नजारा विचित्र था. 14 नवंबर की सुबह करीब साढ़े दस बजे 12 साल की दो लड़कियां उस झोपड़ीनुमा इमारत के एक कमरे के फर्श पर झाड़ू लगा रही थीं. लगभग 350 वर्ग फीट के कमरे के कोनों में लोहे के छोटे बक्से पड़े हुए थे, दीवारों पर दो ब्लैकबोर्ड लगे हुए थे. कमरे की बाहरी दीवार पर प्रदेश और जिले के नक्शे के साथ साथ हिन्दू देवी सरस्वती का धूमिल सा चित्र टंगा हुआ था, और कमरे के दरवाजे के ठीक ऊपर आदिवासी विकास विभाग का लोगों देखा जा सकता था. ठीक सामने की झोपड़ी के बाहर छोटी उम्र के कुछ लड़के फटे, मैले ,बदरंग कपड़ो में, जो कि स्कूल का यूनिफार्म था, बैठे हुए दिखते है. वे आपस में कुछ बातचीत कर रहे थे. पास ही की झोपड़ी में 5-6 नौजवान एक चारपायी पर बैठे हुए थे. निरक्षरता के मामले में पूरे महाराष्ट्र में अक्कलकुवा पहले स्थान पर है. चारपायी पर बैठे नौजवानों में से एक ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘मेरा नाम राम्या वसावे है. मैं यहां पर अस्थायी शिक्षक की हैसियत से काम करता हूं.’ वे आगे बताते हैं,’हम लोग प्रधानाध्यापक का इंतजार कर रहे हैं, उनके आने के बाद हम बाल दिवस मनायेंगे.’
फोटोः प्रतीक गोयल
वसावे बताते हैं कि दहेल आश्रमशाला में 340 आदिवासी छात्र रहते और पढ़ते हैं.यहां पहली से सातवीं तक की कक्षाएं लगती हैं. 340 विद्यार्थियों में से 280 विद्यार्थी यहीं रहते हैं और बाकी गांव में रहते हैं. उन्होंने बताया, ‘लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग रहने की व्यवस्था है, बच्चों के रहने के लिए यहां तीन भवन हैं. इनमें से 190 लड़कियां हैं जो दो भवनों में रहती हैं, बाकी बचे हुए एक भवन में 90 लड़के रहते हैं.’
साल 2001 से 2013 के दौरान इन आश्रमशालाओं में 793 बच्चों की जान जा चुकी है, कुछ की मामूली तबीयत खराब होने से और कइयों की सांप-बिच्छू के काटने से
दहेल की इस आश्रमशाला के भूगोल को समझा जाए तो कुल चार झोपड़ियां नजर आती हैं. इनमें से तीन को स्कूल और बोर्डिंग दोनों के लिए इस्तेमाल किया जाता है और बची हुई एक झोपड़ी में विद्यार्थियों के लिए भोजन बनाया जाता है. सबसे बड़ी झोपड़ी में तीन कमरे हैं, इनमें से एक कमरे में कक्षाएं भी लगती है और विद्यार्थी भी रहते हैं और बाकी दो कमरों का उपयोग दफ्तर और भंडारगृह के रूप में होता है. गौरतलब है कि 280 बच्चों के लिए आश्रमशाला में 350 वर्ग फीट के पांच कमरे हैं, जिसका मतलब छह से 14 साल के करीबन 50-60 बच्चों को 350 वर्ग फीट के एक कमरे में रखा जाता है. यह हालत सिर्फ दहेल की आश्रमशाला की ही नहीं बल्कि प्रदेश भर की ज्यादातर आश्रमशालाओं की यही दुर्दशा है.
आदिवासी विकास विभाग के नियमों के अनुसार एक आश्रमशाला में भलीभांति निर्मित एक भवन होना चाहिए जिसका विद्यालय और विद्यार्थी आवास के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके. एक कंप्यूटर सेंटर होना चाहिए, एक प्रधानाध्यापक और अधीक्षक समेत विभिन्न विषयों के लिए विशेष शिक्षक होने चाहिए. बच्चों को नियमित रूप से अंडे, दूध, फल, सब्जी, रोटी, चावल, दाल युक्त पौष्टिक आहार मिलना चाहिए. स्वास्थ्य संबंधित सेवाएं मिलनी चाहिए, हर तीन महीने में चिकित्सकीय जांच होनी चाहिए. स्कूल यूनिफॉर्म, किताबें, सोने के लिए गद्दे, चादरें, छात्र-छात्राओं के रहने के लिए अलग-अलग आवासीय परिसर होना चाहिए. अलग शौचालय इत्यादि जैसी व्यवस्थाएं होना अनिवार्य हैं.
लेकिन दहेल की आश्रमशाला में बिजली और पानी जैसी बुनियादी व्यवस्था तक नहीं है, अलग शौचालय और कंप्यूटर सेंटर तो बहुत दूर की बात है. इस आश्रमशाला में अगर कुछ है तो वह कुछ अंधियारे कमरे जहां स्टील के बक्से पड़े हैं. इनमें यहां रहने वाले आदिवासी बच्चे अपना सामान रखते हैं, कुछ ब्लैक बोर्ड्स हैं और मुश्किल से तीन-चार फीट लम्बे रेक्सिन के कवर से बने कुछ तकियेनुमा गद्दे जिनका इस्तेमाल यहां के बच्चे बिस्तर के रूप में करते हैं.
आश्रमशालाएं बिजली-पानी की बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं, अलग शौचालय और कंप्यूटर तो दूर की बात है. बच्चे सीलन भरे अंधियारे कमरों में रहने को मजबूर हैं
फोटोः प्रतीक गोयल
जब यहां पढ़ने वाले बच्चों से बात की गई तो समझ में आया की इन बच्चों के भोजन पर जो लाखों रुपये खर्च हो रहे हैं वह सिर्फ सरकारी फाइलों तक ही सीमित हैं, क्योंकि यहां रह रहे बच्चों को ढंग से तीन वक्त का खाना भी नसीब नहीं होता है. 13 साल की कपिल (बदला हुआ नाम), जो की सातवीं कक्षा में पढ़ती हैं, झिझकते हुए कहती हैं, ‘हमें सुबह सात बजे नाश्ता मिलता है, दस बजे दोपहर का खाना और शाम को छह बजे रात का खाना मिलता है, इसके बाद हमें कुछ नहीं दिया जाता, तीनों समय हमें पोहा और खिचड़ी दिया जाता है.” जब उससे पूछा गया कि क्या उन्हें यहां दूध या चाय दी जाती है तो वह सीधे न में जवाब देती है.
छठवी कक्षा में पढ़ रहीं 12 वर्षीय सुनीता (बदला हुआ नाम) कहती हैं , ‘यहां स्नानघर और शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं हैं, हम सभी को नहाने या शौच के लिए नदी पर जाना पड़ता है.’ दहेल की इस आश्रमशाला में शौचालय के नाम पर बिना छत की , ईंट की दो दीवारें खड़ी हैं.
जब दोनों छात्राओं से पूछा गया कि क्या वे बाल दिवस मनाएंगी, तो दोनों ने गर्दन हिलाते हुए न में इशारा किया.
आश्रमशालाओं का सालाना बजट 300 करोड़ का है लेकिन इस बजट का एक-तिहाई हिस्सा ही इनकी देखरेख पर खर्च होता है, बाकी नई आश्रमशालाओं के निर्माण में खर्च हो रहा है
कुछ और बच्चों से बातचीत करने पर पता चलता है कि आश्रमशाला में स्वास्थ्य सुविधा जैसी को सुविधा उपलब्ध नहीं हैं. बच्चों की नियमित तौर पर होने वाली अनिवार्य चिकत्सकीय जांच भी कभी नहीं होती है. और इन सबसे हटकर जब विद्यालय के मुख्य मकसद यानी पढ़ाई-लिखाई पर बात की गई तो एक और कड़वी हकीकत से सामना हुआ. छात्रों ने बताया कि प्रधानाध्यापक पिछले एक महीने से आश्रमशाला नहीं आये हैं और अधीक्षक सुबह आकर शाम को अपने घर लौट जाते हैं. गौरतलब है कि, नियमों के अनुसार आश्रमशालाओं में कार्यरत अधीक्षक को आश्रमशाला में प्रवास करना चाहिए. बच्चों की देखभाल और उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी अधीक्षक पर होती है.
इस बात की पुष्टि वहां मौजूद कुछ दूसरे शिक्षकों से करने की कोशिश की गई तो उन्होंने दबी जुबान में स्वीकार किया, ‘यह बात सही है कि प्रधानाध्यापक नहीं आ रहे हैं और अधीक्षक अपने घर चले जाते हैं, लेकिन हम उन्हें कुछ नहीं बोल सकते. हम तो दैनिक वेतन पर हैं 56 रुपये प्रति घंटे के हिसाब से हमें पैसे मिलते हैं. वे लोग तो स्थायी कर्मचारी हैं उनकी तनख्वाह 35,000 रुपये से ऊपर है. वे हमें कभी भी बाहर का रास्ता दिखा सकते हैं.’
जब उनसे पूछा गया कि अधीक्षक की गैर मौजूदगी में रात को बच्चों का ध्यान कौन रखता है, तब एक शिक्षक ने नाम ना बताने की शर्त पर कहा, ‘अधीक्षक ने मेहनताने पर एक चौकीदार रखा है जो रात को आश्रमशाला में रहता है.’
दहेल आश्रमशाला में बच्चों के लिए भोजन बनाने वाली आशा वलवी शिकायत करती हैं, ‘जून में हमारी नियुक्ति के बाद से ही हमें तनख्वाह नहीं मिली है, न ही हमें यह बताया गया कि कितने पैसे मिलेंगे, पता नहीं अब कब तनख्वाह मिलेगी.’
क्षेत्र की बाकी आश्रमशालाएं भी इसी तरह की दुर्दशा की शिकार हैं. सरी गांव की आश्रमशाला का जायजा लेते वक्त जब वहां के प्रधानाध्यापक केपी तड़वी से बातचीत करने की कोशिश की गई तो वे उत्तेजित होकर बोले, ‘न यहां पानी है, न बिजली है. पानी पीने के लिए भी बच्चों को एक किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. पहाड़ पर बनी सडकों की हालत भी जर्जर है. नेता भी यहां तभी आते हैं जब उन्हें आदिवासियों के वोटों की जरूरत पड़ती है. मैं खुद भी आदिवासी हूं, बचपन से यहीं हूं पर आज तक कुछ भी अच्छा नहीं हुआ ऊपर से हमारे ऊपर लांछन लगा दिया जाता है कि हम नक्सल हैं.’
सरी स्थित आश्रमशाला में 400 आदिवासी बच्चे पढ़ते हैं, यहां पहली से दसवी तक कक्षाएं लगती हैं. ये बच्चे भी बिना किसी सुविधा के इस आश्रमशाला के छोटे और गंदे कमरो में रहते हैं. सरी आश्रमशाला की अधीक्षक अनीता वसावे बताती हैं, ‘बरसात के समय यहां की स्थिति और भी खराब हो जाती है, छत से पानी टपकता रहता है, बिजली नहीं रहती. इसके चलते विद्यार्थियों और शिक्षकों को भारी मुसीबत का सामना करना पड़ता है. मानसून के बाद बिजली तो आती है लेकिन 15 दिन में एक बार.
आश्रमशालाओं में शौचालयों के अभाव के चलते जब लड़कियां नहाने के लिए नदियों पर जाती हैं तो गांव के मनचले उन्हें अक्सर परेशान करते हैं
फोटोः प्रतीक गोयल
वे कहती हैं, ‘यहां बाथरूम-टॉयलेट कुछ नहीं है. लड़की-लड़के सभी को नहाने इत्यादि के लिए नदी पर जाना पड़ता है. यह बेहद असुरक्षित तरीका है लेकिन क्या कर सकते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है.’