‘हा हा हा, हा हा हा…’ ‘नमस्कार भाई साहब!’ ‘नमस्कार!’ ‘अरे आप यहां क्या कर रहे हैं?’ ‘यहां तो मैं रोज आता हूं, मगर तुम यहां कैसे?’ ‘वो क्या है भाई साहब, उम्र अधिक हो रही है, सोचा कि जरा सेहत का ध्यान रखा जाए, सो आज सुबह-सुबह ही इस पार्क में टहलने निकल आया. मगर भाई साहब, आपने कभी बताया नहीं कि आप सुबह टहलने आते हैं.’ ‘अरे भाई, इसमे बताने वाली क्या बात है!’ ‘अच्छा भाई साहब, मुझे भी वह लतीफा सुनाइए न!’ ‘कौन सा!’ ‘अरे वही वाला, जिसे सुन कर आप और आप के बाकी साथीगण अभी हंस रहे थे.’ ‘अरे, यह तो एक प्रकार की एक्सरसाइज है.’ ‘एक्सरसाइज!’ ‘हां भई, इसमें जोर-जोर से हंसा जाता है.’ ‘हंसी न आए फिर भी.’ ‘हूं…’ ‘भला यह कैसी हंसी हुई भाई साहब?’ ‘यह एक तरह की थेरेपी है, इसे लाफ्टर थेरेपी कहते हैं. अच्छा तो मैं चलूं. ‘ठीक है भाई साहब! नमस्कार!’ ‘नमस्कार!’
भाई साहब भी अजीब हैं! जब हंसी अंदर से नहीं आती, तो बाहर से हंस कर काम चला लेते हैं. जबकि भाई साहब के घर में खड़ी वह बेजान मूर्ति भी (उसको बेजान कैसे कहा जा सकता है! क्योंकि वह मूर्ति तो हंस रही थी). बिना किसी प्रतीक्षा के, बेतकल्लुफ हंस रही थी. निश्चित ही, वो इस वक्त भी हंस रही होगी. उसके सामने तो भाई साहब बेजान लगते हैं! कैसे वो इतना गंभीर काम, जिसे स्वयं ही करना श्रेयस्कर होता, किसी दूसरे को यानी मूर्ति को सौंप कर, खुद मुर्दे जैसे निश्चिंत हो गए हैं. वह हंसती हुई मूर्ति ‘गुडलक’ लेकर आएगी, क्योंकि वह हंस रही है.
फिलहाल भाई साहब रोज पार्क में ‘थेरेपी वाली हंसी’ और ‘ऑफिस वाली हंसी ‘ हंस रहे हैं. जब नहीं हंसते हैं, तो ‘चीज’ कहकर फोटो में हंस कर काम चला लेते हैं. बेचारे भाई साहब!