छत्तीसगढ़ में एक बार फिर गृह युद्ध जैसी स्थितियां बनती नजर आ रही हैं. उच्चतम न्यायालय के निर्देश के बाद बंद किया गया ‘सलवा जुडूम’ एक बार फिर एक नए नाम से शुरू करने का शंखनाद कर दिया गया है. महेंद्र कर्मा के परिवार समेत सलवा जुडूम के पुराने नेता ‘बस्तर विकास संघर्ष समिति’ के बैनर तले इकट्ठा होकर नए आंदोलन की रूपरेखा तय कर रहे हैं. समिति की अगुवाई कर्मा के दूसरे बेटे छविंद्र कर्मा कर रहे हैं. कांग्रेस ने जहां इस अभियान से दूरी बनाने का ऐलान किया है, वहीं भाजपा एक बार फिर इसका स्वागत करती नजर आ रही है. उधर इस समिति को लेकर नक्सलियों के भी कान खड़े हो गए हैं. नक्सलियों ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारीकर छविंद्र कर्मा को जान से मारने की धमकी देते हुए समिति की ओर से शुरू होनेवाले आंदोलन वापस लेने की चेतावनी दी है.
सलवा जुडूम यानी ‘शांति का कारवां’ साल 2005 में शुरू किया गया था. हैरानी की बात ये है कि शांति के इस कारवां पर अतीत में हिंसा के अनगिनत आरोप लग चुके हैं. इतने आरोप लगे कि 2011 में सलवा जुडूम का मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा और वहां इसे अवैध घोषित कर दिया गया. अब एक बार फिर बस्तर सुलगने लगा है. एक तरफ माओवादी लगातार अर्द्धसैनिक बलों के साथ ग्रामीणों की हत्या कर रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ महेंद्र कर्मा के बेटे छबिंद्र कर्मा, सलवा जुडूम से शुरुआती दौर से जुड़े रहे चैतराम अटामी और सुखदेव ताती जैसे नेताओं को ‘बस्तर विकास संघर्ष समिति’ के बैनर तले एकजुट करके फिर से आंदोलन शुरू कर रहे हैं. महेंद्र कर्मा ने जिसे कभी सलवा जुडूम का नाम दिया था, यह समिति भी बिलकुल वैसी ही है. जैसे नई बोतल में पुरानी शराब.
नए आंदोलन पर बात करने से पहले सलवा जुडूम के आगाज और अंजाम पर एक नजर दौड़ाना जरूरी है. अपने राजनीतिक कॅरियर की शुरुआत में कम्युनिस्ट नेता रहे महेंद्र कर्मा ने कांग्रेस का दामन थामने के बाद सलवा जुडूम आंदोलन की शुरुआत की. इस आंदोलन को लेकर तर्क दिया गया था कि यह बस्तर के आदिवासियों का स्वतः स्फूर्त आंदोलन है, जो नक्सलियों के खिलाफ है. इस अभियान में ग्रामीणों को माओवादियों के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार किया गया. 2005 में जब सलवा जुडूम की विधिवत शुरुआत हो रही थी, तब छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार बन चुकी थी.
रमन सिंह मुख्यमंत्री बन चुके थे. रमन सिंह को सलवा जुडूम अभियान अच्छा लगा. विरोधी पार्टी की सरकार होने के बाद भी रमन सिंह ने कांग्रेस के इस अभियान को हर मंच पर सराहा. राज्य सरकार का समर्थन मिलने से कई ग्रामीण आदिवासियों को हथियार देकर स्पेशल पुलिस ऑफिसर (एसपीओ) बनाया गया. इसके तहत उन्हें 1500 से 3000 रुपये तक भत्ता भी दिया जाता था.
सलवा जुडूम में शामिल ग्रामीणों ने नक्सलियों को गांवों में शरण और राशन देने से इंकार कर दिया. इस अभियान को सफलता भी मिली. आदिवासियों की मदद से माओवादियों की जंगलों में चल रही विरोधी गतिविधियों और ठिकानों की जानकारी सुरक्षा एजेंसियों को मिली. उसी दौरान नक्सलवाद से निपटने के लिए आतंकवाद विशेषज्ञ और पंजाब के वरिष्ठ पुलिस अफसर केपीएस गिल की भी सेवाएं ली गईं, लेकिन वांछित सफलता नहीं मिल सकी. सलवा जुडूम के चलते नक्सली और ग्रामीणों के बीच तकरार बढ़ा और 644 से अधिक गांव खाली हो गए. उस वक्त स्थिति ऐसी थी कि 23 राहत शिविरों में हजारों लोग रहते थे.
वरिष्ठ पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी अपनी एक किताब में लिखते हैं कि लोगों को ट्रकों में भरकर सलवा जुडूम कैंपों में लाकर छोड़ा जा रहा था. गांव के गांव खाली करवाए जा रहे थे. आदिवासी या तो सलवा जुडूम कैंप में आने के लिए मजबूर थे या फिर भागकर जंगल की शरण ले रहे थे. माओवादी ‘सलवा जुडूम’ से काफी नाराज थे. वे भी लगातार सलवा जुडूम कैंपों पर या जुडूम नेताओं पर हमला कर रहे थे. धीरे-धीरे सलवा जुडूम आंदोलन ने तो दम तोड़ दिया. शिविर से कुछ लोग अपने गांव लौट गए तो कुछ पड़ोसी राज्यों में पलायन कर गए. तमाम लोग अब पड़ोसी राज्यों से भी लौट रहे हैं. मानवाधिकार कार्यकताओं ने सलवा जुडूम को खूनी संघर्ष बढ़ानेवाला अभियान बताया. उन्होंने इसके औचित्य पर प्रश्नचिह्न उठाए. उनका कहना था कि मासूम गांववालों को सरकार माओवादियों और नक्सलियों के खिलाफ हथियार बनाकर लड़ रही है. 2011 में मानवाधिकार कार्यकर्ता नंदिनी सुंदर मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में पहुंचीं और उच्चतम न्यायालय ने सलवा जुडूम को अवैध घोषित किया. आरोप ये भी लगे कि सलवा जुडूम को आपसी रंजिश का बदला लेने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया. इसकी आड़ में अवैध उगाही की खबरें भी आईं. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकार को एसपीओ से हथियार वापस लेने पड़े.