न्यायपालिका में हमेशा से थोड़े से लाइसेंसशुदा ड्राइवर तबीयत के लोग होते आए हैं जिन्हें तगड़ा बोध होता है कि चालू व्यवस्था की स्टीयरिंग उनके हाथ में है. वे दो बातों का बहुत ख्याल रखते हैं. एक तो यह कि पब्लिक में न्यायपालिका का खौफ बना रहे, दूसरे कुछ चमकदार मामलों में फैसला ऐसा हो कि लोगों को अपने भीतर न्याय की आकांक्षा के जिंदा बचे रहने की न्यूनतम वजह दिखती रहे लेकिन यह संतुलन बिगड़ रहा है.
तेरह साल से चलते ठोको और भागो केस में एक्टर सलमान खान को जेल का फैसला भी ऐसा ही अपवाद है वरना भरमार तो मेरठ के हाशिमपुरा जैसे मामलों की है जिनमें चौथाई सदी तक चले मुकदमे के अंत में वही पता चलता है जो पहले दिन भी सबको पता था यानी 40 से ज्यादा मुसलमानों को मारकर हिंडन नदी में फेंक दिया गया. किसने मारा, इसकी पड़ताल का काम अगली चौथाई सदी तक आराम से चल सकता है तब तक आखिरी हत्यारा भी सजा से बचने के लिए की गई तिकड़मों की सार्थकता पर संतुष्ट होकर गाजे बाजे के साथ बैकुंठ जा चुका होगा. जब पीड़ित और अपराधी दोनों समाप्त हो चुकते हैं तब भी न्याय व्यवस्था तत्परता से किनके लिए काम करती रहती है? इस सवाल के जवाब में व्यवस्था का पिछवाड़ा दिखने लगता है जिसे ढकने के लिए मिथकों, रूपकों के काव्यात्मक दुरुपयोग की जरूरत पड़ती है.
मिसाल के लिए जयललिता उन्नीस साल तक चले आय से अधिक संपत्ति के मामले में सत्तर गवाहों के एक के बाद एक खामोश होने को अग्निपरीक्षा बता रही हैं जिससे वे खरे सोने-सी तपकर निकली हैं.