राष्ट्र निर्माता के रूप में बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर की विधिवत स्थापना का कार्य 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाने की राजपत्र में की गई घोषणा के साथ संपन्न हुआ. संविधान दिवस संबंधी भारत सरकार के गजट में सिर्फ एक ही शख्सियत का नाम है और वह नाम स्वाभाविक रूप से बाबा साहेब का है. बाबा साहेब को अपनाने की भाजपा और संघ की कोशिशों का भी यह चरम रूप है लेकिन क्या इस तरह के अगरबत्तीवाद के जरिए बाबा साहेब को कोई संगठन आत्मसात कर सकता है? मुझे संदेह है.
इस संदेह का कारण मुझे आम्बेडकरी विचारों और उनके साहित्य में नजर आता है.
इस बात की पुष्टि के लिए मैं बाबा साहेब की सिर्फ एक किताब ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ का संदर्भ ले रहा हूं. याद रहे कि यह सिर्फ एक किताब है. पूरा आम्बेडकरी साहित्य ऐसे लेखन से भरा पड़ा है, जो संघ को लगातार असहज बनाएगा. ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ पहली बार 1936 में छपी थी. दरअसल, यह एक भाषण है, जिसे बाबा साहेब ने लाहौर के जात-पात तोड़क मंडल के 1936 के सालाना अधिवेशन के लिए तैयार किया था. लेकिन इस लिखे भाषण को पढ़कर जात-पात तोड़क मंडल ने पहले तो कई आपत्तियां जताईं और फिर कार्यक्रम ही रद्द कर दिया. इस भाषण को ही बाद में ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ नाम से छापा गया.
दूसरे संस्करण की भूमिका में बाबा साहेब इस किताब का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि अगर मैं हिंदुओं को यह समझा पाया कि वे भारत के बीमार लोग हैं और उनकी बीमारी दूसरे भारतीय लोगों के स्वास्थ्य और उनकी खुशी के लिए खतरा है, तो मैं अपने काम से संतुष्ट हो पाऊंगा.
जाहिर है कि बाबा साहेब के लिए यह किताब एक डॉक्टर और मरीज यानी हिंदुओं के बीच का संवाद है. इसमें ध्यान रखने की बात है कि जो मरीज है, यानी जो भारत का हिंदू है, उसे या तो मालूम ही नहीं है कि वह बीमार है या फिर वह स्वस्थ होने का नाटक कर रहा है और किसी भी हालत में वह यह मानने को तैयार नहीं है कि वह बीमार है. बाबा साहेब की चिंता यह है कि वह बीमार आदमी दूसरे लोगों के लिए खतरा बना हुआ है. संघ उसी बीमार आदमी का प्रतिनिधि संगठन होने का दावा करता है. वैसे यह बीमार आदमी कहीं भी हो सकता है. कांग्रेस से लेकर समाजवादी और वामपंथी तक उसके कई रूप हो सकते हैं लेकिन वह जहां भी है, बीमार है और बाकियों के लिए दुख का कारण है.
बीमार न होने का बहाना करता हुआ हिंदू कहता है कि वह जात-पात नहीं मानता. लेकिन बाबा साहेब की नजर में ऐसा कहना नाकाफी है. वे इस सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश करते हैं कि भारत में कभी क्रांति क्यों नहीं हुई. वे बताते हैं कि कोई भी आदमी आर्थिक बराबरी लाने की क्रांति में तब तक शामिल नहीं होगा, जब तक उसे यकीन न हो जाए कि क्रांति के बाद उसके साथ बराबरी का व्यवहार होगा और जाति के आधार पर उसके साथ भेदभाव नहीं होगा. इस भेदभाव के रहते भारत के गरीब कभी एकजुट नहीं हो सकते.
वे कहते हैं कि आप चाहे जो भी करें, जिस भी दिशा में आगे बढ़ने की कोशिश करें, जातिवाद का दैत्य आपका रास्ता रोके खड़ा मिलेगा. इस राक्षस को मारे बिना आप राजनीतिक या आर्थिक सुधार नहीं कर सकते. डॉक्टर आम्बेडकर की यह पहली दवा है. क्या संघ इस कड़वी दवा को पीने के लिए तैयार है? जातिवाद के खात्मे की दिशा में संघ ने पहला कदम नहीं बढ़ाया है. क्या वह आगे ऐसा करेगा? मुझे संदेह है.