दरअसल अवधेश मंडल को कोसी इलाके के कुख्यात चेहरों में से एक माना जाता है. जिस मामले में अवधेश मंडल गिरफ्तार हुए, फरार हुए, फिर गिरफ्तार हुए. उस मामले को जानने से यह बात साफ होती है. अवधेश मंडल पर 46 से अधिक मामले दर्ज हैं. सब क्रिमिनल केस हैं. अवधेश मंडल फैजान गिरोह के संचालक रहे हैं. फैजान गिरोह सवर्ण दबंगों और सामंतों से लड़ने के लिए गठित हुई निजी सेना थी. सवर्णों से लड़ते-लड़ते अवधेश मंडल और फैजान गिरोह के लोग दलितों व वंचितों से ही लड़ने लगे. उनका ही हक मारने लगे. इसी क्रम में पूर्णिया के भवानीपुर में 60-70 दलित परिवारों की 110 एकड़ जमीन पर अवधेश मंडल और उनके गिरोह के लोगों ने कब्जा कर लिया. 20 सालों से यह कब्जा है. सरकार ने यह जमीन दलितों को खेती करने के लिए दी थी. दलित इसका विरोध नहीं कर सके. जिन्होंने विरोध किया, उनकी कहानी खत्म हुई. इसी क्रम में चंचल पासवान और कैलाश पासवान नामक दो भाइयों ने विरोध किया. दोनों की हत्या हो गई. इसके बाद चंचल पासवान की पत्नी पर पक्ष में गवाही देने के लिए अवधेश मंडल और उनके लोगों ने दबाव बनाना शुरू किया. इसी डर से चंचल पासवान की पत्नी और उनका पूरा परिवार इधर-उधर भटकता फिरने लगा. अवधेश मंडल उसी मामले में गिरफ्तार हुए. फिर भागे. फिर पकड़े गए. अवधेश मंडल के भाग जाने वाली घटना को सामान्य घटना भी मान लें तो भी 20 सालों से एक गांव के दलितों की जमीन पर एक विधायक पति का कब्जा होना कोई सामान्य घटना नहीं मानी जा सकती.

जदयू के प्रदेश अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद वशिष्ठ नारायण सिंह कहते हैं, ‘अपराध बढ़ा है तो सरकार कार्रवाई कर रही है लेकिन यह भी तो देखिए बिहार में अभी भी दूसरे राज्यों की तुलना में अपराध कम है. आपसी रंजिश और व्यक्तिगत कारणों से हो रही घटनाओं को भी बढ़ते अपराध की श्रेणी में शामिल कर बिहार में पेश किया जा रहा है.’ वशिष्ठ नारायण सिंह आसानी से यह बात कह देते हैं. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि नीतीश कुमार के शासनकाल की मूल पहचान गवर्नेंस को दुरुस्त रखना और कानून व्यवस्था को ठीक रखना ही माना जाता है. उनके कार्यकाल में अपराध का किसी भी रूप में बढ़ जाना या दिखने लगना सरकार की सेहत पर भले ही किसी किस्म का असर न डाले लेकिन नीतीश कुमार की जो छवि पिछले डेढ़ दशक से बिहार के अलावा पूरे देश में बनी हुई है, उसको नुकसान हो रहा है. वशिष्ठ बाबू जब ऐसा कहते हैं तो वे एक तरीके से सिर्फ सरकार का बचाव करने के मूड में होते हैं. संभव है कि ढेरों घटनाएं उस परिधि में आती हों. लेकिन क्या यह संभव है कि उनके बनाए फॉर्मूले के अनुसार सभी घटनाएं उसी फ्रेम में समा जाएं? चाहे वह 13 दिसंबर को मुजफ्फरपुर में चावल व्यवसायी की हत्या का मामला हो या 28 दिसंबर को वैशाली में रिलायंस इंजीनियर की हुई हत्या की बात हो, 16 जनवरी को पटना में दिनदहाड़े एक ज्वेलरी व्यवसायी को रंगदारी न देने पर मार देने और दो दिनों बाद ही बेटे की मौत के सदमे से पिता के गुजर जाने की भी बात को भी उसी फ्रेम में समझा जा सकता है, क्योंकि ज्वेलरी व्यवसायी की हत्या रंगदारी नहीं दिए जाने के कारण हुई. किसी का रंगदारी मांगना और रंगदारी देना भी व्यक्तिगत परिधि में आ सकता है. अगर ये घटनाएं व्यक्तिगत रंजिश की परिधि में आ जाएं तो 17 जनवरी को अररिया जिले के नरपतगंज में घटी घटना तो और आसानी से उस परिधि में आ जाएगी. 17 जनवरी को एक दबंग ने महादलितों पर तेजाब फेंककर आठ लोगों को घायल कर दिया. बताया जाता है कि नरपतगंज में आनंदी ऋषिदेव नामक एक महादलित को भूदान में वर्षों पहले जमीन मिली थी. उस पर पांच सालों से दबंग सुरेंद्र ठाकुर का कब्जा था. सुरेंद्र ठाकुर उस जमीन पर रोड बनवाना शुरू करता है. आनंदी ऋषिदेव का परिवार विरोध करने पहुंचता है. दबंग सुरेंद्र ठाकुर के लोग तेजाब फेंकते हैं आैर आठ लोग घायल हो जाते हैं. पटना में सरेआम सृष्टि जैन हत्याकांड की घटना को तो और आसानी से उस परिधि में समेटा जा सकता है, क्योंकि सृष्टि की हत्या प्रेम प्रसंग में होती है. इन सबके बाद राघोपुर इलाके में लोजपा नेता बृजनाथ सिंह की हत्या को भी इसमें शामिल किया जा सकता है. बृजनाथ सिंह की हत्या अपराधियों ने सरेआम एके 47 से 27 गोलियां बरसाकर की थी. बृजनाथ राघोपुर इलाके के नेता थे. उनकी पत्नी वीणा देवी राबड़ी देवी के खिलाफ चुनाव लड़कर उन्हें कड़ी टक्कर दे चुकी हैं. बृजनाथ के घर की एक महिला ब्लॉक भी प्रमुख हैं. राघोपुर इलाका लालू प्रसाद यादव का गढ़ माना जाता है. इस वजह से बृजनाथ की हत्या के बाद सवाल दूसरे किस्म के भी उठाए गए.
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जंगलराज बनाम मंगलराज
नीतीश कुमार जब ये कह रहे होते हैं कि आंकड़ों में अपराध कम है और वशिष्ठ बाबू जब यह कह रहे होते हैं कि व्यक्तिगत रंजिश के कारण हो रही घटनाओं को भी अपराध की श्रेणी में शामिल किया जा रहा है तो वे जानबूझकर कई बातों को दरकिनार करने की कोशिश कर रहे होते हैं. अगर वशिष्ठ बाबू के फ्रेम में जाकर बिहार में हालिया दिनों में हुई घटनाओं का पोस्टमाॅर्टम करें तो सिर्फ बैंक लूट और इंजीनियर हत्याकांड को ही लॉ एंड ऑर्डर के बिगड़ने की परिधि में रख सकते हैं. एक सच यह भी है कि जिस तरह से भाजपा के लोग इन दिनों बिहार में रोज-ब-रोज अपराध के बढ़ने, जंगलराज के वापस आने का ढोल पीट रहे हैं, वह भी एक तरीके से अपने किए को ही मिटाने का काम कर रहे हैं. वे जब किसी एक घटना को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं और बताते हैं कि ऐसा इसलिए हो रहा है कि लालू प्रसाद और नीतीश कुमार साथ आ गए हैं, तो वे भूल जाते हैं कि नीतीश कुमार के साथ सबसे लंबे समय तक वही रहे हैं और उनके समय में आंकड़ों के हिसाब से भी अपराध का ग्राफ बिहार में बढ़ा रहा. बड़ी घटनाएं भी लगातार होती रहीं. इन घटनाओं में फारबिसगंज का गोलीकांड सबसे बड़ा माना जा सकता है, जब पुलिस ने छह अल्पसंख्यकों को बूटों से रौंदकर मार डाला था. एक भाजपा नेता की फैक्ट्री के विवाद को लेकर ही पुलिस ने ऐसा किया था. भाजपा के साथ रहने के दौरान ही पूर्णिया के भाजपा विधायक राजकिशोर केशरी की हत्या हुई थी. भाजपा के साथ रहते ही ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या आरा में हुई थी और उसके बाद मुखिया की शवयात्रा के बहाने राजधानी पटना में तांडव मचा था. भाजपा और नीतीश के साथ रहते हुए घटनाओं को छोड़ दें तो जिस जीतन राम मांझी को लेकर भाजपा भावुक हुई, उनके कार्यकाल में ही दलितों पर जुल्म की कई बड़ी घटनाएं हुई. जो जीतन राम मांझी भाजपा के प्रियपात्र बने, उन्हीं के समय में ही गया के पुरा नामक गांव से दलितों को दबंगों ने निकाला. मांझी के समय में भोजपुर के एक बाजार में पांच दलित महिलाओं के साथ दबंगों ने सामूहिक बलात्कार किया. इसके अलावा रोहतास के एक गांव में एक दलित बच्चे को जिंदा जलाया गया. ऐसी ही कई और घटनाएं घटीं. इसलिए भाजपा जंगलराज-जंगलराज का जब शोर मचाती है तो जदयू-राजद-कांग्रेस के नेता, कार्यकर्ता पूछ सकते हैं कि आप साथ थे तो कौन सा मंगलराज था? लेकिन मुश्किल ये है कि जदयू के नेता और कार्यकर्ता दोराहे पर हैं. वे इसे खुलकर पूछ भी नहीं सकते, क्योंकि अपराध चाहे भाजपा के साथ रहते हुआ हो या राजद के साथ रहते बढ़ा हो, दोनों ही समय नीतीश कुमार ही मुखिया थे. यानी चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर, कटना दोनों ही हाल में खरबूजे को ही होगा. वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेश्वर वात्स्यायन कहते हैं, ‘बिहार इन दिनों जिस बदनामी का पर्याय बना हुआ है, उसके कई पहलू हैं. यह सच है कि नीतीश कुमार इस बार जब से सत्ता संभाले हैं, तब से उनका ताप और असर कम दिख रहा है. इसे जंगलराज कहना तो कतई ठीक नहीं लेकिन यह एक सवाल है कि जिस तरह से अपराधी सरेआम राजधानी पटना से लेकर दूसरी जगहों पर हत्या करने और अपराध की घटनाओं को अंजाम देने का सिलसिला शुरू किए हुए हैं, उसे नियंत्रित नहीं किया गया तो आने वाले दिनों में इसका बुरा असर देखने को मिलेगा. छोटे-छोटे अपराधी बिल से बाहर निकलेंगे और कहर बरपाएंगे.’ ज्ञानेश्वर कहते हैं, ‘अपराधी दिन में घटना कर रहे हैं, राजधानी जैसे चाक-चौबंद इलाके में सरेआम हत्या कर रहे हैं, इसका मतलब साफ है कि उनमें पुलिस का खौफ या भय कम है और यही मूल चुनौती है. रही बात भाजपा नेताओं द्वारा रोजाना आंकड़ों को पेश करने की तो वे सियासी पार्टियां हैं. उनका काम ही यही है लेकिन इसका जवाब भी दूसरी ओर से दिया जाना चाहिए.’
आंकड़े बताते हैं कि कैसे 2012-2013 में ही बिहार में सुशासन की लय लड़खड़ाने लगी थी. 2012 की तुलना में 2013 में ही महिलाओं के खिलाफ अपराध में 21% की बढ़ोतरी हुई है
ज्ञानेश्वर एक आंकड़े के जरिये इसे समझाते हुए कहते हैं, ‘पिछले दिनों सोशल मीडिया में एक बात वायरल हुई कि नीतीश कुमार ने जब से सत्ता संभाली है तब से दो माह में ही 578 हत्याएं बिहार में हो चुकी हैं. इस बात को इस तरह से ढोल पीटकर प्रचारित किया गया जैसे यह अचानक से हुई घटनाएं हों. जो भी ये सवाल उठाते हैं और इसी आधार पर ये कहते हैं कि बिहार में जंगलराज आ गया है तो उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि अगर हत्याओं के इन आंकड़ों के जरिये ही नीतीश कुमार की इस पारी को जंगलराज साबित करना है. यह बताना है कि लालू प्रसाद की पार्टी के साथ रहने से ऐसा हो रहा है तो फिर यह भी कहा जाना चाहिए कि जब नीतीश कुमार अौर लालू प्रसाद यादव की बजाय भाजपा के संग सरकार चला रहे थे, तब जंगलराज का प्रकोप ज्यादा था.’
ज्ञानेश्वर कहते हैं, ‘मेरा मकसद लालू प्रसाद की पार्टी राजद, नीतीश कुमार की पार्टी जदयू के पक्ष में कोई सफाई देना नहीं और न ही भाजपा समर्थकों की बातों को काटना है लेकिन रोज-ब-रोज आंकड़ों के जरिये बिहार को बदनाम करने के पहले कुछ और बातों पर गौर करना चाहिए.’ ज्ञानेश्वर आंकड़ों का हवाला देते हुए समझाते हैं, ‘अभी कहा जा रहा है कि दो माह में 578 हत्याएं हुईं. चलिए इसे मान भी लिया जाए. इस हिसाब से मासिक हत्या दर 264 पर पहुंच गई. 2011 में भाजपा साथ थी. उस साल बिहार में 3,198 हत्याएं हुई थी. यानी मासिक हत्या दर 266 थी. 2012 में बिहार में 3,566 हत्याएं हुई थीं. यानी उस साल मासिक हत्या दर औसतन 297 थी. कुछ लोग सिर्फ दो माह नहीं, पूरे 2015 के साल में हुई हत्याओं का आंकड़ा भी पेश कर रहे हैं कि बीते वर्ष बिहार में 2,736 हत्याएं हो गईं. यह सच भी है. उस हिसाब से भी देखें तो औसतन मासिक हत्या दर 2015 में 273 रही.’ ज्ञानेश्वर कहते हैं, ‘मेरा मकसद हत्याओं को आंकड़ों में समेटकर कोई नया तर्क पेश करना नहीं. बिहार में बढ़ रहा अपराध सभी बिहारियों के लिए चिंता की बात है लेकिन ऐसा नहीं है कि हत्या के एक-दो माह के आंकड़े को लेकर यह साबित करने लगें कि अचानक जंगलराज आ गया है और फिर बिहार की बदनामी को ग्लोरीफाई करने लगें.’ ज्ञानेश्वर सवाल उठाते हैं कि अगर आंकड़ों को ही आधार बनाकर जंगलराज साबित करना है तो फिर यह माना जाना चाहिए कि बिहार में सबसे ज्यादा जंगलराज 2012 में था. जब औसतन हर माह 297 हत्याएं हो रही थी और यह एक रिकॉर्ड की तरह है. तब नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव के साथ नहीं बल्कि भाजपा के साथ सरकार चला रहे थे.
ज्ञानेश्वर की बातों को छोड़ भी दें तो दूसरे किस्म के आंकड़े भी बताते हैं कि बिहार में अपराध का यह सिलसिला कोई एकबारगी से बढ़ा हुआ नहीं है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के ही आंकड़े बताते हैं कि कैसे 2012-2013 में ही बिहार में सुशासन की लय लड़खड़ाने लगी थी. 2012 की तुलना में 2013 में ही महिलाओं के खिलाफ अपराध, मुख्यतया बलात्कार की घटनाओं में 21 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो गई थी. 2012 में 927 रेप केस दर्ज हुए थे, जबकि 2013 में यह आंकड़ा घटने की बजाय बढ़कर 1128 पर पहुंच गया था. इसी तरह 2012 में अपहरण-फिरौती आदि की घटनाओं की संख्या 3,789 थी जो अगले साल यानी 2013 में घटने की बजाय बढ़कर 4,419 तक पहुंच गई थी. ऐसे कई आंकड़े हैं जो यह साबित करते हैं कि बिहार में अपराध की घटनाओं में पिछले कुछ सालों से लगातार बढ़ोतरी हो रही है. आंकड़ों की बात छोड़ भी दें तो कई चर्चित घटनाओं ने भी साबित किया है कि बिहार पहले से ही बेपटरी होने की राह पर चल पड़ा है. भाजपा वाले भी पुरानी बातों को छोड़ तब से आंकड़े जुटा रहे हैं, जब उनका साथ नीतीश कुमार से छूट गया और बिहार में आम लोगों के बीच भाजपा से साथ छूटने की बजाय नीतीश कुमार द्वारा नई पारी शुरू होने के बाद बढ़े अपराधों पर बात हो रही है. नीतीश कुमार के लिए परेशानी का असल सबब यही है. उन्होंने इस बार जब से मुख्यमंत्री का पद संभाला है, भंवरजाल बढ़ता ही जा रहा है. भाजपा नेता और केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह कहते हैं, ‘अपराध की घटनाओं की प्रकृति तो देखिए. गोपालगंज जैसी छोटी सी जगह में मिठाई की दुकानवालों से रंगदारी मांगी जा रही है, नहीं देने पर सरेआम मारा जा रहा है. अंचलाधिकारी जैसे अधिकारियों से रंगदारी मांगी जा रही है. अपराध की बात को दूसरी ओर रखिए. भाजपा के साथ जब नीतीश कुमार सरकार चला रहे थे तो दो साल पहले तक राज्य का विकास दर 16 प्रतिशत था जो बाद में आधे पर यानी आठ प्रतिशत पर आ गया. इसको क्या कहेंगे?’ राधामोहन सिंह ही ऐसे सवाल नहीं उठाते. भाजपा के तमाम नेता इन दिनों रोजाना आंकड़ों के जरिये सवाल उठा रहे हैं, उछाल रहे हैं और उन बातों पर बिहार में चर्चा भी हो रही है.
नीतीश कुमार भाजपा की बातों से ज्यादा परेशान भले न हों लेकिन इस पारी में उनके लिए मुश्किलें दूसरी हैं. वे इन बातों को लेकर परेशान चल रहे हैं, ये कई बार देखा जा चुका है. दरभंगा में इंजीनियरों की हत्या के बाद ही पुलिस पदाधिकारियों की मीटिंग में जिस गुस्से में नीतीश कुमार दिखे थे, उससे साफ हुआ था कि वे इन घटनाओं से घटती हुई अपनी साख और कम होते ताप को लेकर चिंतित हैं. नीतीश कुमार लगातार कोशिश में हैं. वे दिन-रात एक कर कई विकास योजनाओं को धरातल पर उतार या घोषणा कर साबित करने की कोशिश में लगे हुए हैं कि लोगों का ध्यान काम पर ज्यादा रहे लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा. नीतीश कुमार के सामने परेशानी यह है कि उन्हें इस पारी में साबित करना है कि वे भाजपा के साथ रहें या लालू प्रसाद के साथ, उनके ताप और तप से बिहार की विधि व्यवस्था सुदृढ़ रही है, सुशासन सरकार का मुख्य मसला रहा है. लालू प्रसाद के साथ रहने पर उनके लिए यह चुनौती और बड़ी है, क्योंकि एक तरीके से बिहार में इस बात को स्थापित कर दिया गया है कि लालू प्रसाद जब सत्ता में थे तो बिहार में अपहरण, फिरौती, गुंडागर्दी वगैरह एक उद्योग की तरह था और उसे ही दूर करने के नाम पर नीतीश कुमार का उभार हुआ था. नीतीश कुमार अब लालू प्रसाद के साथ ही हैं तो उससे कितना और किस स्तर पर निपट पाते हैं, यह साबित करना होगा. बेशक यह सवाल गैरवाजिब भी नहीं है. नीतीश कुमार के लिए उनकी तीसरी पारी मुश्किलों से भरी है. सरकार चलाने के स्तर पर भले ही वे 2020 तक निश्चिंतता की मुद्रा में रहें लेकिन उन्होंने खुद ही अपनी छवि का निर्माण इस तरह का किया है और सुशासन के ‘आइकॉन’ के तौर पर खुद को स्थापित किया है, उस ‘आइकॉनिज्म’ को बनाए रखने के साथ बिहार की लड़खड़ाती लय उनके लिए बड़ी चुुुनौती है.