रिचर्ड एटनबरो ‘क्राई फ्रीडम’ को अपनी सबसे बेहतर फिल्म मानते थे. ‘गांधी’ को नहीं. नस्लवाद-रंगभेद के खिलाफ श्वेत एटनबरो के आक्रोश से सनी आवाज थी यह फिल्म. अश्वेतों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले दक्षिण अफ्रीका के स्टीवन बीको का जीवन-मृत्यु कहती यह फिल्म थी भी बहुत शानदार, एक आंदोलन के साथ-साथ संपादक और एक्टिविस्ट के बीच की दोस्ती की कहानी. लेकिन बन जाने के बाद फिल्म कहां निर्देशक या अभिनेता की रहती है, कहां उसे हक होता है अपनी सबसे अच्छी और सबसे खराब फिल्म का फैसला करने का. फिल्म को तो दर्शकों का हो जाना होता है. या नहीं हो जाना होता.
‘गांधी’ इसीलिए महान फिल्म है. बनने के बाद यह एक पूरे देश की फिल्म हो गई. किताबों से निकलकर पहली बार कोई महान हिंदुस्तानी सिनेमा के परदे पर इस कदर ओजस्वी लगा. फिल्म के लिए इकट्ठा की गई लाखों लोगों की भीड़ ने हमारे दिलों में किताबों से बनी राष्ट्रपिता की छवि को वृहद आसमान दिया, गांधीजी के प्रिय भजन ‘वैष्णव जन तो’ को सुनते वक्त, कवि प्रदीप के ‘साबरमती के संत’ सुनते वक्त, गांधीजी का चेहरा दिया. बेन किंग्सले. किंग्सले कई पीढ़ियों के उन करोड़ों लोगों के लिए दशकों तक गांधीजी का चेहरा रहे जिनके लिए कृष्ण नितीश भारद्वाज थे, कर्ण पंकज धीर, राम अरूण गोविल, चंद्रप्रकाश द्विवेदी चाणक्य और जिनके लिए दिलीप ताहिल कभी जवाहरलाल नेहरू नहीं हो पाए, रोशन सेठ ही नेहरू रहे. बेन किंग्सले का गांधीजी के रूप में एक स्थायी चेहरा हो जाना इसलिए भी मुमकिन हुआ क्योंकि तब 15 अगस्त को ‘सिंघम 2’ सिनेमाघरों में आजादी मनाने नहीं आती थी, ‘गांधी’ आती थी दूरदर्शन पर. यह ‘तब’ काफी सालों को समेटे है, एक लंबा सुनहरा वक्त जिसका लौटना अब असंभव है.
रिचर्ड एटनबरो की तरह कई निर्देशकों ने सुदूर देशों में स्थापित फिल्में बनाई. हॉलीवुड तो इसके लिए खास तरह का प्रोफेशनलिज्म रखता है. और यही परेशानी की वजह है. अंजान जगहों पर वहां के नायकों के ऊपर फिल्में बनाने पश्चिम के निर्देशक जाते रहे, और उस मुल्क उसकी संस्कृति को अपने ‘आउटसाइडर व्यू’ वाले कैमरे के संकरे व्यूफाइंडर से देख उसी घमंड से फिल्म बनाते रहे जैसे कोई इनसाइडर बनाता. हिंदुस्तान की गरीबी और उस गरीबी में धाराप्रवाह अंग्रेजी ने डैनी बॉयल को ऑस्कर दिलाया, अमेरिकी निर्देशक एली रोथ ने ‘हॉस्टल’ बनाई और स्लोवाकिया दुनिया-भर में कहता फिरा कि हम ऐसे नहीं हैं महाराज. वेस एंडरसन जैसे कमाल निर्देशक ने ‘द दार्जिलिंग लिमिटिड’ में आज का भारत ऐसे दिखाया जैसे अभी भी सांपों को पूजने वाला पाषाणकालीन कोई देश हो. स्टीवन स्पीलबर्ग ने ‘इंडियाना जोंस एंड द टेंपल ऑफ डूम’ में भारत को इतना बुरा चित्रित किया कि माफी उन्हें आज भी नहीं मिल सकती, और अमरीश पुरी को ऐसा मूर्ख दिखाया, जैसे सारे उपासक हिंदुस्तानी मूर्ख ही हों. वह समझदारी जो ‘गांधी’ को उस संकरे आउटसाइडर व्यूफाइंडर से देखकर बनाई गई फिल्म होने से बचाती है, फिल्म का खानाबदोशी संस्कार है. जहां रहे जब तक रहे वहीं की रहे, विदेशी होकर देसी रहे. जैसे निर्देशक भारत आकर ऐसा टूरिस्ट हो जाए कि वह न मुंबई का धारावी देखना चाहे न साहिर लुधियानवी की नज्म जिससे कभी प्यार न कर सकी वह ताजमहल, बस पहाड़गंज में रहने को एक कमरा तलाशे और वहीं का बाशिंदा होकर कुछ वक्त गुजारे. किसी महर्षि को नहीं खोजे, इंदौर में पोहा-जलेबी खाए. और फिल्म बनाए.
एटनबरो ब्रिटेन की तरफ से युद्ध लड़ चुके थे लेकिन जब उन्होंने ‘गांधी’ बनाई तो यहां उनकी नजर भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों की रही
गांधीजी को वैसे भी गांधी बने रहने का मौका बहुत कम मिला. हमेशा ही उनके मुकाबले किसी न किसी को उतारा ही गया. सब ने अपनी पैनी-पैनी विचारधाराओं को लेकर उनके सामने कभी भगत सिंह को खड़ा कर दिया कभी भीमराव अंबेडकर को. गांधी इनमें से ज्यादातर लड़ाइयां हार ही रहे हैं. लोगों के बीच बहसों में, सोशल मीडिया के तंजों में, बच्चों के बीच. गांधी सलमान खान भी नहीं हैं. अगर होते, तो उनके पास भी सलमान खान के फैंस जैसे चाहने वाले होते, जो ट्विटर चौक पर उनका बचाव करते, उनके बारे में बात करते, उनका युद्ध खुद लड़ते. गांधी जनमानस की नजरों से ओझल हैं, फेसबुक पर सिर्फ पौने तीन लाख लाइक्स के साथ जीवित हैं, ज्यादातर की स्मृति में कहीं नहीं शेष हैं. यही है हमारे राष्ट्रपिता का आज का जीवन. जीवनी से मुक्त, चौराहों पर चुस्त, घाव युक्त. इसीलिए गांधीगिरी करती ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ एक जरूरी फिल्म है. और सिर्फ इसीलिए ‘गांधी’ सबसे ज्यादा जरूरी फिल्म है. कुछ चीजों का होना, महान इंसानों के बड़े कामों को छोटा होने से बचाने के लिए जरूरी है.