1934 में ही मेगाफोन कंपनी के मालिक जेएन घोष ने उन्हें छह ग़ज़लें रिकॉर्ड करने का प्रस्ताव दिया, जिसे अख़्तरी ने कुबूल कर लिया. रिकॉर्ड की गई उनकी पहली ग़ज़ल थी, वो असीरे दामे बला हूं. मेगाफोन द्वारा जारी किया गया ये रिकॉर्ड चल निकला और अख़्तरी ने पहली बार शोहरत का स्वाद महसूस किया. इसके बाद उनके ठुमरी, दादरा, चैती और ख़याल गायिकी के भी कई रिकॉर्ड्स निकले और कामयाब रहे. जिसके चलते 1936 में ऑल इंडिया रेडियो, कोलकाता ने भी उन्हें रिकॉर्ड किया. इस बीच वो बतौर अभिनेत्री फिल्म और थिएटर में भी काम करना शुरू कर चुकी थीं. लैला मजनूं (1934) और नई दुल्हन (1934) उनके मशहूर नाटक थे. साथ ही नल दमयंती (1933), एक दिन का बादशाह (1933), मुमताज़ बेगम (1934), अमीना (1934), रूपकुमारी (1934), जवानी का नशा (1935), नसीब का चक्कर (1936) जैसी फिल्मों में बतौर मुख्य अभिनेत्री काम करने के बाद उनकी शोहरत अप्रत्याशित रूप से बढ़ गई थी और इसका सीधा फ़ायदा उनकी व्यावसायिक गायिकी की साख को हुआ था. मेगाफोन कंपनी अब उनके रिकॉर्ड्स का बाकायदा विज्ञापन जारी करती थी, जिस पर उनका परिचय लिखा होता था- ‘अख़्तरीबाई फैज़ाबादी फिल्म स्टार’. इस दौरान एक फिल्म कंपनी बिना उनका बकाया चुकाए बंद हो गई, तो उन्होंने उस पर मुकदमा करने की भी ठान ली. इसी सिलसिले में 1937 में लखनऊ के बैरिस्टर इश्तियाक़ अहमद सिद्दीक़ी से उनकी पहली मुलाक़ात हुई थी. इतना ही नहीं अब उन्हें हिंदुस्तान के प्रमुख दरबारों से ख़ुसूसी न्यौता भी मिलने लगा था. निज़ाम हैदराबाद ने उनके लिए सौ रुपये प्रतिमाह का वज़ीफ़ा मुक़र्रर कर दिया था, तो नवाब रामपुर ने उन्हें अपने दरबार में अहम पदवी से नवाजा था. अख़्तरी अब आधा वक्त रामपुर में और आधा लखनऊ में गुज़ारने लगी थीं.
1924 में अख़्तरी कोलकाता आईं, जो उस वक्त गीत, संगीत और नाटक का गढ़ था. कोलकाता में उनकी गायिकी ने पहले-पहल धूम सिर्फ बीस साल की उम्र में मचाई
1938 में अख़्तरी ने लखनऊ में अपना ख़ुद का घर बनवाया, वो भी हज़रतगंज जैसे इलाके के पास. ये कदम उनके रुतबे का पता देता है, क्योंकि उस वक्त तक लखनऊ की ज़्यादातर गानेवालियां चौक या दूसरे इलाक़ों की गलियों में रहती आईं थी. हज़रतगंज के आसपास उनका क़याम कभी नहीं रहा था. अख़्तरी ने ये दस्तूर बदला, क्योंकि शहर के ज़्यादातर रईस हज़रतगंज के आसपास ही रहते थे. व्यावसायिक तौर पर ये जगह उनके लिए ज़्यादा मुफ़ीद थी. फिल्म अभिनेत्री होने के बावजूद उनकी ज़्यादा मज़बूत पहचान गायिका की ही थी. रामपुर दरबार से जुड़ जाने के बाद भी लखनऊ में वो महफ़िलों का हिस्सा लगातार बनी रहीं. मशहूर गायिका मालिनी अवस्थी बेगम की गायिकी के बारे में दो महत्वपूर्ण बातें कहती हैं, ‘पहली बात तो ये है कि वो जिस मिट्टी की थीं यानी लखनऊ-फैज़ाबाद उसके संगीत की तमाम विधाओं को उन्होंने इस ख़ूबी के साथ गाया कि वो सभी पूरी दुनिया में पहुंच गईं. ठुमरी, दादरा, चैती, होरी, कजरी, मर्सिया, ग़ज़ल सब कुछ. उन्होंने अपने आपको कभी किसी एक विधा (जैसे ग़ज़ल) में महदूद नहीं किया. ये काम उनके चाहनेवालों ने किया. दूसरी बात कि उन्होंने कठिन चीज़ें भी जिस सहजता से गा दी हैं, वो बताता है कि उनकी अपनी आवाज़ पर कितनी पकड़ थी, कितनी समझ थी, कितना परिचय था. ये लंबे रियाज़ के बाद आता है. इसी का नतीजा है कि बेगम जब गाती हैं, तो बेहद कठिन चीज़ को भी बेहद आसानी से निभा ले जाती हैं और साधारण से साधारण श्रोता को भी मंत्रमुग्ध कर देती हैं.’
1940 के आस पास उनका फ़िल्मों से जी उचाट होने लगा था. क्योंकि उनके उस्ताद अता मोहम्मद को उनका फिल्मों में काम करना गायिकी के साथ अन्याय लगता था. वे इसके ख़िलाफ़ थे. नवाब रामपुर भी उनके फ़िल्मों में काम करने के पक्ष में नहीं थे. इसलिए महबूब खान की फिल्म रोटी (1942) के बाद उन्होंने फिल्मों से किनारा कर लिया. अब वो पूरा ध्यान अपनी गायिकी पर देने लगीं. उम्र अब तीस के करीब पहुंच रही थी, इसलिए लड़कपन की शोख़ी भी अब संजीदगी में बदल रही थी. ज़िंदगी एक दूसरे तरह का स्थायित्व चाह रही थी. नवाब रामपुर ने उनसे शादी करने की ख्वाहिश भी जताई, लेकिन अख़्तरी ने ख़ुद को नाचीज़ कहते हुए प्रस्ताव ठुकरा दिया. उन्होंने अपने लिए लखनऊ के बैरिस्टर अब्बासी को चुना, जिनसे उनकी पुरानी आश्नाई थी. दोनों एक-दूसरे के क़ायल भी थे. मगर अख़्तरी के गाने-बजाने का पेशा अब्बासी और उनके बीच दीवार बना हुआ था. फिर एक दिन अख़्तरी ने फैसला किया कि वो गाना छोड़कर अब्बासी का हाथ थामेंगी. हुआ भी ऐसा ही. 1945 में अख़्तरी बाई फैज़ाबादी बेगम अख़्तर बन गईं और गायिकी से उनका रिश्ता टूट गया.
फिल्म अभिनेत्री होने के बावजूद अख्तरी की ज़्यादा मज़बूत पहचान गायिका की ही थी. रामपुर दरबार से जुड़ने के बाद भी लखनऊ में वो महफ़िलों का हिस्सा लगातार बनी रहीं
बेगम दुनिया में गाने के लिए ही आईं थीं. उनकी मां ने उनको ढाला भी ऐसे ही था. बेगम के हज़ारों चाहनेवालों को उनके गाना छोड़ने का रंज था. इस बात से सबसे ज़्यादा दुखी उनकी मां मुश्तरी ही थीं. उन्होंने अपना पूरा जीवन अख़्तरी के लिए वक़्फ कर दिया था. मुसीबतें उठा-उठाकर उनको तालीम दिलवाई थी. यहां तक कि अख़्तरी जब स्टार बन गईं थीं, तब भी मुश्तरी उनके एक-एक कदम का हिसाब रखतीं थीं और उनको गाहे-बगाहे सलाह भी देती रहती थीं. बेगम ने गाना छोड़ा, तो उनकी मां पूरा-पूरा दिन उनके रिकॉर्ड सुनती रहतीं और रोती रहतीं. खुद बेगम अख़्तर की हालत गाने के बिना बेहाल थी. अब वो अकेलेपन और अवसाद में घिर गईं थीं, जिसने धीरे-धीरे कई बीमारियों को दावत दे दी थी. तबीयत जब ज़्यादा ख़राब हुई, तो डाक्टरों ने उनके पति अब्बासी से कहा कि अब इन्हें गाने की इजाज़त दे दी जाए, तभी तबीयत संभल सकती है. आख़िरकार शौहर ने हारकर बेगम को वापस गाने के लिए कहा. इसके बाद बेगम ने चार साल के तवील अंतराल के बाद 1949 में ऑल इंडिया रेडियो के लिए रिकॉर्डिंग की.
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वाकई बेहद उम्दा ऐतिहासिक जानकारियों से भरपूर लेख बेग़म की कालजयी छवि को उकेरता है…ऐ मोहब्बत तेरे अन्जाम पे रोना आया,आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया…जानकारी हेतु धन्यवाद..! 🙂