राजकुमार राव: एक आम-सा बड़ा अभिनेता

rajkumarकिसी अभिनेता के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है कि उसे सिर्फ 29 साल की उम्र और चार पांच फिल्मों के बाद ही राष्ट्रीय पुरस्कार मिल जाए. ऐसे उद्योग में जहां आपको पहचान बनाने में ही दशकभर लग सकता है वहां राजकुमार राव को इतनी जल्दी अच्छी भूमिकाएं और एक मुकाम हासिल करते हुए देखना आपको हैरान कर सकता है. इसी बात का दूसरा पहलू यह भी है कि हिंदी  फिल्म इंडस्ट्री अब राजकुमार जैसी प्रतिभाओं को पहचान रही है और उन्हें बेहिचक मौके दे रही है. या कहें कि मजबूर हो रही है. राजकुमार कहते हैं, ‘ फिल्मों के लिए कास्टिंग डायरेक्टरों का महत्वपूर्ण हो जाना मेरी पीढ़ी के अभिनेताओं के लिए सबसे अच्छी बात रही है. अब अभिनेता ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जिसे वे अपना काम दिखा सकें. इन दिनों कास्टिंग डायरेक्टरों को अच्छा पैसा भी मिलता है और उन्हें गंभीरता से लिया जाता है.’

राजकुमार अभी से यह साबित कर चुके हैं कि वे बहुत अच्छे अभिनेता हैं, लेकिन अपने परिवार में वे पहले सदस्य हैं जो इस क्षेत्र में आए. इसके लिए भी वे अपनी प्रतिभा को श्रेय नहीं देते. गुड़गांव में प्रेमनगर इलाके के एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे राजकुमार मानते हैं कि उनके माता-पिता ने जिस तरह से हर काम में उनका साथ दिया उसकी वजह से वे फिल्मों में अपनी जगह बना पाए. वे कहते हैं, ‘ मेरे पिता ने राजस्व विभाग में नौकरी की है. मुझे बचपन से ही डांस, मार्शल आर्ट और एक्टिंग करना पसंद था. मेरे माता-पिता को अहसास था कि मुझे यही पसंद है. उन्होंने कभी इसके लिए मुझ से रोकटोक नहीं की.’

राजकुमार को फिल्म शाहिद में अपनी भूमिका के लिए इस बार का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया है. यह फिल्म मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील शाहिद आजमी के जीवन पर बनी है. यह भूमिका कई मायनों में चुनौतीपूर्ण थी. पहली मुश्किल तो यही थी कि आजमी अपने किरदार को कुछ भी बताने-सिखाने के लिए उपलब्ध नहीं थे. 32 साल के इस युवा वकील की 2010 में हत्या कर दी गई थी.

एक बात यह भी रही कि फिल्म बनने के पहले ही इसके प्रति पूर्वाग्रही प्रतिक्रिया देने वाले लोगों की फौज तैयार थी. दरअसल कानून की पढ़ाई करने से पहले आजमी पाकिस्तान स्थित आतंकी कैंप में ट्रेनिंग ले चुके थे. बाद में वे दिल्ली पुलिस की गिरफ्त में आए और सात साल तक तिहाड़ जेल में रहे. कैद के दौरान ही आजमी ने कानून की पढ़ाई पूरी की. यहां से निकलने के बाद उन्होंने अपनी पूरी ताकत उन मुसलमान युवकों के केस लड़ने में लगा दी जो झूठे आरोपों में जेलों में बंद थे.

‘ फिल्म करने से पहले मैं कई लोगों से मिला जो कहते थे कि वह इसका आदमी था, उसका आदमी था. लेकिन जब मैं उन परिवारों से मिला जिनकी आजमी ने मदद की थी तब मैंने उन्हें समझना शुरू किया. ‘ राजकुमार कहते हैं, ‘ मैं नहीं मानता था कि शाहिद भारत विरोधी थे. वे उन लोगों की मदद कर रहे थे जिन्हें बिना किसी अपराध के जेलों में बंद कर दिया गया था. फिर यह बात भी है कि उन्होंने जिन लोगों का केस लड़ा उनमें से कइयों को अदालत ने बरी कर दिया.’

आजमी ने अपने सात साल के करियर में 17 ऐसे निर्दोष लोगों को जेल से रिहा करवाया जिनपर आतंकवादी गतिविधियों के गंभीर आरोप थे. आजमी खुद आतंकवाद के आरोप में जेल में रह चुके थे और वहां पुलिस उत्पीड़न को भलीभांति जानते थे. उन्होंने अपने इन अनुभवों का वकालत के दौरान बखूबी इस्तेमाल किया. राजकुमार ने शाहिद फिल्म में इस पक्ष को बहुत वास्तविकता के साथ उभारा है.

हालांकि शाहिद पहली फिल्म नहीं थी जहां राजकुमार ने यथार्थवादी किरदार को परदे पर उतारा हो. 2010 में आई ‘लव, सेक्स औरा धोखा’ उनकी पहली फिल्म थी जिसमें अपने इसी तरह के अभिनय से वे समीक्षकों और फिल्मकारों की नजर में आए थे. आम दर्शकों ने भी उनमें ऐसा अभिनेता देखा जो किरदार से साथ-साथ अपने अभिनय के जरिए उनमें जिज्ञासा पैदा कर पा रहा था. उनके इस अभिनय में दिल्ली के दिनों का किया गया थियेटर और पुणे के फिल्म संस्थान से मिला प्रशिक्षण का योगदान तो था लेकिन एक बात जो उन्हें अलग करती थी वह थी उनके द्वारा किरदारों का मानवीकरण करना. नाटकीयता रहित ऐसे किरदार जिनमें दर्शक असली आदमी को देखें, पहचानें. शाहिद के निर्देशक और राजकुमार को लेकर अगली फिल्म बना रहे हंसल मेहता कहते हैं, ‘मुझे नहीं लगता है पुणे फिल्म संस्थान का राज की प्रतिभा में कोई खास योगदान है. वह बिल्कुल सहज है. कैमरे के सामने आते ही किरदार में ढल जाता है. उसके जैसा अभिनेता निर्देशकों के लिए वरदान है. उसे इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह क्लोजअप शॉट में कैसा दिखेगा. यदि वह एक लाइन में बहुत से लोगों के बीच भी खड़ा है तो अपनी भूमिका के लिए सौ फीसदी गंभीर रहेगा.’

हाल ही में आई फिल्म क्वीन में भी राजकुमार राव को काफी सराहा गया है. इसमें वे एक दिखावा पसंद पुरुषवादी लड़के के किरदार में हैं. क्वीन के निर्देशक विकास बहल कहते हैं, ‘ यदि कोई एक्टर अपनी फिल्मों को खास बनाने के लिए एक कदम आगे जाने लगता है तो वह ऐसी फिल्म बन जाती है जिसे हमेशा याद रखा जाए. राज जानता है कि कैसे स्क्रीन पर बाकी लोगों के बीच अपनी भूमिका को यादगार बनाया जाए. काई पो चे देखते हुए जब वह पांच मिनट के लिए भी सीन से अलग होता था तो मैं उसे परदे पर मिस करता था.’

राजकुमार के लिए ये बातें यूं ही नहीं कही जातीं. हर भूमिका के लिए उसकी तैयारी इस अभिनेता के लिए एक बड़ा हथियार है. शाहिद में अपनी भूमिका के लिए राजकुमार ने एक लंबा वक्त शाहिद आजमी के परिवार के साथ बिताया था. इसकी वजह से वे मुंबई के इस युवा वकील के अंदर की पीड़ा परदे पर आसानी से व्यक्त कर पाए. वे बताते हैं, ‘शाहिद की तरह मैं भी जब सुनता हूं कि कोई निर्दोष जेल के भीतर है तो मेरी बेचैनी बढ़ जाती है. शाहिद के अनुभवों ने हमारे समाज के द्वारा की जाने वाली बर्बरता का काफी करीब से मुझे एहसास करवाया.’

अपने हिसाब से चुने गए किरदार और उनके लिए की गई तैयारी ने राजकुमार को फिल्म उद्योग में अलग पहचान दिला दी है. लेकिन इन दिनों हिंदी फिल्मों की निर्माण प्रक्रिया में आ रहे पेशेवर रवैऐ का भी इसमें अहम योगदान है. राजकुमार फिल्मों में अपनी पहली महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में बताते हैं, ‘लव, सेक्स और धोखा (एलएसडी) के लिए मैं दिबाकर बनर्जी के ऑफिस में गया और वहां मेरा परिचय अतुल मोंगिया से हुआ. वे फिल्म के कास्टिंग डायरेक्टर थे. एक बार मुलाकात के बाद मैंने उन्हें फेसबुक पर भी ढूंढ़ लिया. इसके बाद उन्हें ईमेल करने लगा और फोन भी करता था. आखिर में एक दिन उन्होंने मुझे ऑडिशन के लिए बुला लिया. मैं बार-बार अतुल से मिलता था क्योंकि मुझे पता था कि एलएसडी के लिए दिबाकर को नए लोगों की तलाश है और यह मेरे लिए बहुत बड़ा मौका साबित हो सकता है.’ हिट और फ्लॉप के परे एलएसडी ऐसी फिल्म थी जिसने खास दर्शक वर्ग जिसे प्रयोगवादी सिनेमा, जिसमें मनोरंजन भी हो, बहुत आकर्षित किया. फिल्मी दुनिया के लोगों ने भी इस फिल्म को बहुत सराहा.

एलएसडी से दिल्लीछाप यह लड़का और फिल्मकारों की नजर में भी आया. एकता कपूर की फिल्म रागिनी एमएमएस में काम मिलने के पीछे एलएसडी की महत्वपूर्ण भूमिका थी. 2011 में आई इस इस हॉरर फिल्म में उनके हिस्से एक छोटी-सी भूमिका आई लेकिन यहां भी बतौर दर्शक आपके दिमाग में उनकी उपस्थिति स्थायी रूप से दर्ज होती है. अनुराग कश्यप की ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर 2’ और रीमा कागती की ‘तलाश’ उनकी अगली दो फिल्में थीं. हालांकि उन्हें असली पहचान मिली फिल्म ‘काई पो चे’ से. इस फिल्म में वैसे तो वे तीन मुख्य किरदारों में थे लेकिन उनका किरदार कुछ ऐसे गढ़ा गया था कि दो के मुकाबले वह कुछ कम महत्वपूर्ण था. फिर भी 2013 की इस हिट फिल्म से उन्हें पहली बार वह सराहना मिली जो आमतौर पर हिंदी फिल्मों के सफल कहे जाने वाले अभिनेताओं के खाते में आती है. राजकुमार मुस्कराते और थोड़ा झिझकते हुए स्वीकार करते हैं, ‘अब ठीकठाक संख्या में मेरे भी प्रशंसक हैं. इनमें महिलाओं की संख्या भी काफी है. यह सब काई पो चे के बाद हुआ.’ राजकुमार हिंदी फिल्मों के उन कुछ एक कलाकारों में से हैं जो समकालीन अभिनेताओं की खुलकर तारीफ कर सकते हैं. वे रणबीर कपूर से बहुत प्रभावित हैं. राजकुमार कहते हैं, ‘मैं सब लोगों के साथ काम करना चाहता हूं और हर तरह की फिल्में करना चाहता हूं. हां, लेकिन स्क्रिप्ट में वो बात होनी चाहिए.’

राजकुमार की अगली फिल्म सिटी ऑफ लाइट्स है और इसमें काम करने की एक बड़ी वजह है इसकी स्क्रिप्ट. इसकी कहानी ब्रिटेन के फिल्म निर्देशक सीन एलिस की चर्चित फिल्म मेट्रो मनीला (2013) से प्रेरित है. सिटी ऑफ लाइट्स में मुंबई आए एक प्रवासी मजदूर की कहानी है. वे इस भूमिका की तैयारी के बारे में बताते हैं, ‘मैं शूटिंग से लौटने के बाद भी इस किरदार को अपने दिमाग से नहीं हटाता. इस समय मैं इस किरदार को जी रहा हूं. कुछ ऐसा हो गया है कि इस फिल्म ने मुझे पूरी तरह निचोड़ लिया है. एक अभिनेता के लिए यह बहुत थकाने वाली प्रक्रिया है. मैं दीपक नाम के व्यक्ति का किरदार निभा रहा हूं जो मुंबई में रहने के लिए कई तरह की जद्दोजहद में फंसा है. पर शायद यही काम का मजा है. इसी के बाद आखिर में आपको अपने काम से संतुष्टि होती है.’

आज राजकुमार अपनी तरह से एक सेलिब्रिटी हैं. बिना राष्ट्रीय अवार्ड के भी. सार्वजनिक जगहों पर आप उनके प्रशंकों को उनके साथ फोटो खिंचवाते हुए देख सकते हैं. अब वे ऑडी कार में चलने लगे हैं. अपने लिए ऐसा अपार्टमेंट खरीदना चाहते हैं जहां से समंदर दिखता हो. उनका निजी जीवन भी लोगों की जिज्ञासा का विषय है. दूसरे अभिनेताओं की तरह उनका नाम भी अभिनेत्रियों (सिटी ऑफ लाइट्स की नायिका, चित्रलेखा) से जोड़ा जाने लगा है. लेकिन ऐसा नहीं लगता राजकुमार इन बातों से बहुत प्रभावित हों. अभी भी इस आम सेलीब्रिटी के लिए अभिनय पहले है, स्टारडम बाद में.