वर्ष 2014: साहित्यिक उपलब्धियों का इंद्रधनुष

यह सच है कि आज कविता पहचान के संकट से गुजर रही है. यह संकट इसलिए भी है कि आज लिखी जा रही बुरी कविताओं ने अच्छी कविताओं को आच्छादित कर दिया है, लेकिन इस अंधेरे में भी अच्छी कविता की चमक दूर तक फैल जाती है. ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कवि केदारनाथ सिंह का इसी वर्ष प्रकाशित संग्रह ‘सृष्टि पर पहरा’ एक विलक्षण संग्रह है. अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तीसरा सप्तक’ 1959 में संकलित कविताओं के बाद स्वतंत्र रूप से उनका संग्रह ‘अभी बिल्कुल अभी’ 1960 में प्रकाशित हुआ. मूलतः रोमानी भूमि से अपनी यात्रा आरंभ करते हुए केदारनाथ सिंह की काव्य यात्रा लोकभूमि तक पंहुच गई है. एक ओर उनकी स्थानीयता के भूगोल का विस्तार हुआ है तो दूसरी तरफ उनकी कविताओं की भाषा पारदर्शी और संवादधर्मी भी है. इस संग्रह में वैसे तो 7-8 कविताएं ऐसी हैं, जिनका उल्लेख करना जरूरी है. इस संग्रह की दूसरी कविता ‘विद्रोह’ में घर की तमाम वस्तुओं का विद्रोह अपनी जड़ों तक लौटने के लिए है. ‘ज्यां पॉल सार्त्र की कब्र पर’ शीर्षक कविता है तो छोटी, लेकिन बेहद संवेदनशील और बेधक है. इसी तरह ‘देश और घर’ इस संग्रह की एक अच्छी कविता है. ‘हिंदी मेरा देश है/भोजपुरी मेरा घर/घर से निकलता हूं/तो चला जाता हूं देश में/देश से छुट्टी मिलती है/तो लौट आता हूं घर.’ ‘निराला की आवाज’, ‘त्रिलोचन को पढ़ना’, ‘सृष्टि पर पहरा’ भी इस संग्रह की उल्लेखनीय कविताएं हैं.

हिंदी के सुपरिचित आलोचक डॉ. नंदकिशोर नवल की इस वर्ष प्रकाशित आलोचना पुस्तक ‘हिंदी कविता अभी, बिल्कुल अभी’ में नौ कवियों- विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा, श्याम कश्यप, ज्ञानेन्द्रपति, उदय प्रकाश और अरुण कमल पर लंबे आलोचनात्क लेख हैं. उन्होंने ‘आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास’ भी लिखा है. जो लोग यह समझते हैं कि प्रस्तुत पुस्तक उनके ‘इतिहास’ का परिशिष्ट है, उसके बारे में डॉ. नवल का रेने वेलेफ के साक्ष्य से कहना है, ‘चूंकि इतिहास की कसौटी पर उनकी कविता अभी नहीं चढ़ी, इसलिए मैं इस पुस्तक को ‘इतिहास’ का परिशिष्ट नहीं कह सकता.’ इस तरह यह पुस्तक आज लिखी जा रही कविता के गवाक्ष को खोलती है.

हाल के वर्षों में आत्मकथा लेखन के क्षेत्र में डॉ. तुलसीराम का नाम विशेष उल्लेखनीय है. उनकी आत्मकथा का पहला खंड ‘था ‘मुर्दहिया’ और इस वर्ष प्रकाशित इसी श्रृंखला का दूसरा खंड ‘मणिकर्णिका’ आया है. पुस्तक की भूमिका में वे लिखते हैं,  ‘मुर्दहिया में आजमगढ़ में 16-17 साल तक की अवस्था का लेखा-जोखा था. उसके आगे करीब 10 साल मैंने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) में बिताया, जिसका परिणाम ‘मणिकर्णिका’ है. उनकी आत्मकथा की एक बड़ी विशेषता यह है कि यह मात्र आत्मकथा नहीं है. यह वस्तुतः एंेथ्रोपोलोजी (मानव विज्ञान) पर किया गया काम भी है. इसलिए इसे सामाजिक इतिहास भी कहा गया है.

साहित्यिक विधाओं में सबसे नाजुक विधाएं हैं आत्मकथा, डायरी और पत्र. कवि-आलोचक डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की सद्यः प्रकाशित डायरी ‘दिन रैन’ पुस्तक फरवरी 1968 गोरखपुर से शुरू होती है और 20 जून 2013 को गोरखपुर में ही समाप्त होती है यानी 45 वर्ष के समय को समेटे हुए. इस तरह ‘दिन रैन’ मात्र डायरी ही नहीं है, बल्कि साहित्यिक और राजनीतिक उथल-पुथल की भी एक दिलचस्प कहानी है, जो लिखी तो गई है डायरी की शैली में लेकिन इसे पढ़ने से तिवारी जी का बहिरंग ही नहीं अंतरंग भी जाना जा सकता है. कोई सोच भी नहीं सकता कि अध्यक्ष बनने के बाद पहली सुबह आईआईसी के किसी कमरे के एकांत में बैठा साहित्य अकादेमी का नवनिर्वाचित अध्यक्ष सुबक-सुबक कर काफी देर तक रोता रहा अपने पूर्वजों को याद करते हुए.

वैसे तो इस वर्ष पुराने नाटककार बादल सरकार के तीन नाटकों के अतिरिक्त शंकर शेष के नाटक ‘पोस्टर’ का नया संस्करण प्रकाशित हुआ, लेकिन नाटक के क्षेत्र में इस वर्ष की एक बड़ी उपलब्धि है ‘ताजमहल का टेंडर’ से चर्चित नाटककार अजय शुक्ला का दूसरा नाटक ‘ताजमहल का उद्घाटन’. मुगलकाल की न केवल विश्वप्रसिद्ध इस कलाकृति ‘ताजमहल’ के टेंडर के बाद उसके उद्घाटन को लेकर मुगल शासकों की समस्या, दांव-पेंच, भ्रष्टाचार आदि को न केवल आधुनिक संदर्भ में रखा गया है, बल्कि  उसे आज के समय से उसे जोड़ा भी गया है. शिल्प की नवीनता और भरपूर नाटकीयता इसकी खासियत है.

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