पीके, पेरिस और पेशावर

प्रदीप कुमार
प्रदीप कुमार

यह धर्मिक असहिष्णुता के अतिवाद का दौर है. पूरी दुनिया में यह प्रवृत्ति उफान पर है. हमारे यहां फिल्म पीके को लेकर आस्था आहत है. फ्रांस की राजधानी पेरिस में शार्ली हेब्दो नामक पत्रिका के कुछ कार्टूनों पर आपत्ति के जवाब में अतिवादी इस्लामी संगठन के युवकों ने 12 लोगों की हत्या कर दी. हमारे देश में सलमान रुश्दी की किताब सैटनिक वर्सेज को लेकर काफी पहले ही इस तरह की स्थिति पैदा हो चुकी है. दुनिया भर में यह चलन बढ़ रहा है. क्षणभंगुर आस्थाएं हर पल आहत हो रही हैं. इसके चलते भारत के महानतम चित्रकारों में एक रहे एमएफ हुसैन को अंत समय में देश निकाला की स्थिति से गुजरना पड़ा. दिलचस्प यह है कि ये घटनाएं धार्मिक अतिवादियों का चेहरा और उनका पाखंड भी सामने लाती हैं. जिन लोगों ने एमएफ हुसैन की पेंटिंग प्रदर्शनियों में उत्पात मचाया, उन्हें जान से मारने की धमकियां दी वही लोग तस्लीमा नसरीन की तरफदारी में खड़े हो जाते हैं. लव जेहाद और घर वापसी का प्रहसन रचते हैं. पाखंड की यही धारा दूसरी तरफ भी बह रही है. मुस्लिम कट्टरपंथियों ने कोलकाता से लेकर हैदराबाद तक लज्जा की प्रतियां जलायी, लेकिन यही लोग पर्दाप्रथा, कानूनी मामलों में पुरुष के मुकाबले स्त्रियों की आधी हैसियत के सवाल पर कुरान की आयतों का हवाला देने लगते हैं. धर्म की आड़ में ये लोग संविधान के ऊपर पर्सनल लॉ बोर्ड के लिए किसी भी हद तक जाने के तैयार रहते हैं.

ऐसा लगता है कि धर्म की मार्गदर्शकवाली भूमिका कहीं पीछे छूट गई है. धर्म कटुता, टकराव और ओछी राजनीति का साधन बन गया है. एक अटल सत्य यह है कि जितनी गहरी जड़ें दुनिया में धर्म को माननेवालों की है, उतनी ही पुरानी और गहरी परंपरा इस पर सवाल उठानेवालों की भी रही है और भारत इससे अलग नहीं है. आज से पांच-छह सौ साल पहले कबीर ने जिस अंदाज में धर्म की लुकाठी तोड़ी थी उसकी तो आज के समय में कल्पना भी नहीं की जा सकती.

चार वेद ब्रह्मा निज ठाना मुक्ति का मर्म उनहुं नहि जाना,
हबीबी और नबी कै कामा, जितने अमल सो सबै हरामा. (कबीर बीजक)

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  1. जो धर्म किसी दूसरे धर्म को बाधा पहुंचाए वह धर्म नहीं कुधर्म है. जो धर्म अन्य धर्मों का अविरोधी है वही वास्तविक धर्म है.

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