‘डेमोक्रेसी में जनता तय करेगी विरासत, हम और आप नहीं’

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आप इतने भटकाव-बिखराव के साथ आंदोलन चलाते हैं. कभी कोई आंदोलन चलाते हैं और फिर उसे बीच में रोककर दूसरे में लग जाते हैं?

लड़ना पड़ेगा. हम तो सबसे पहले नेताओं से ही लड़ रहे हैं. हमने तय किया है कि इनसे लड़े बिना कुछ नहीं कर सकते.

राजनीतिज्ञों से या राजनीतिक प्रवृत्तियों सेे?

राजनीतिज्ञों से. सबकी प्रवृत्ति एक जैसी है. एनटी रामाराव, एमजी रामचंद्रन, नेहरू से लेकर मायावती को भी देख लिया गया. एक महीना में अरविंद केजरीवाल और नरेंद्र मोदी तक को देख लिया गया. इन दो जादूगरों को अब भी देख ही रहे हैं. सबकी प्रवृत्ति एक जैसी है.

राजनीतिज्ञों से लड़िएगा और सिस्टम यही रहेगा तो बदलाव क्या होगा?

पॉलिटिकल सिस्टम को बनाता कौन है? पॉलिटिशियन न! दलाल को पैदा कौन किया? पदाधिकारी को रावण कौन बनाया? इस सारे सिस्टम की कमान किसके हाथ में है? सब पॉलिटिशियन के हाथों में है. हिंदू-मुसलमान करानेवाला कौन है? जाति का जहर फैलानेवाला कौन? गरीब अमीर के मसले को डाइलूट कर देनेवाला कौन? राजनीतिज्ञों से लड़ने के साथ ही हम वैचारिक बदलाव की लड़ाई लड़ना चाहते हैं. हां लेकिन पूरा रास्ता अहिंसात्मक रखेंगे. हिंसा के रास्ते से तो कुछ नहीं बदलेगा. नक्सलियों का देख लिया कि उन्होंने क्या किया.

लेकिन बड़े बदलाव तो राजनीति करती है. आप तो सामाजिक आंदोलन जैसी कोई बात कर रहे हैं?

यह राजनीति है किसके लिए. तंत्र लोक के लिए न. लेकिन अब तो तंत्र ही मालिक बन गया है. एक मुख्यमंत्री को इतनी ताकत होती है जितनी भगवान को नहीं होती. लेकिन क्या कारण है कि अब तक किस सीएम ने बदलाव की कोशिश नहीं की बिहार में. अब देखिए देश में भी. प्रधानमंत्री ‘मन की बात’ कर रहा है. यह तो विचित्र बात है. मन की बात तो गरीब और विवश आदमी करता है न. पीएम किसानों से मन की बात कर रहे हैं लेकिन 60 हजार करोड़ रुपये अदानी-अंबानी को सब्सिडी देने के लिए तो मन की बात नहीं कर रहे हैं.

कुछ दिनों पहले तो आप मोदी की तारीफ कर रहे थे तब आपकी आलोचना हुई थी?

भइया मैं किसी की तारीफ नहीं कर रहा था. मुझसे ज्यादा मेरी प्रोसिडिंग उठाकर देख लीजिए. हां, लेकिन वह सशक्त आदमी तो हैं, इससे कैैसे इंकार कर सकते हैं. व्यवहार में, देखने-दिखाने में. अपने कामों को परोसने में. उसने अपनी मार्केटिंग तो की. डायनेमिक तो है वह. इसकी कोशिश तो कर रहा है. मैंने यह बात कही थी. लेकिन मैं दूसरी बात कहना चाहता हूं. अब आज के समय में सभी नेताओं की कोशिश से इंसान का ही अस्तित्व खत्म करने की तैयारी है. आजादी के 67 सालों बाद फूड बिल आ रहा है, खाना देने के लिए, पानी पीने को नहीं है. जिस देश में स्वास्थ्य जरूरी नहीं है. लोहिया ने कहा था, ‘राजा हो या भंगी की संतान-सबकी शिक्षा एक समान.’ सब तो धरा का धरा रह गया.

‘लालूजी के बेटे ने राजद का ककहरा नहीं जाना है. राहुल 15 सालों से संघर्ष कर रहे हैं. अखिलेश ने सात साल संघर्ष किया, मायावती की लाठियां खाई. उन्हें सीखने दें लालूजी’

लोहिया की बातों को लोहियावादियों ने भी ताक पर रखा?

सभी विचाराधाराओं को उन्हें माननेवालों ने रख दिया. वैसा ही हुआ है, छोड़िए न पुरानी बात. हाल में तो अन्ना आंदोलन का जोर रहा था. आंदोलन के बाद नौ प्रतिशत भ्रष्टाचार बढ़ गया. आंदोलन में गरीब तो जुटे नहीं, बेईमान जुट गए. वकील, डॉक्टर, मास्टर, नेता, नौजवान सब बोले कि ‘मैं भी अन्ना.’ जेठमलानी वकील हैं. दो करोड़ रुपये लेकर कहने लगे कि आसाराम पर केस करनेवाली महिला को हिस्टिरिया है. छी-छी… जेठमलानी. गरीब का घर जब तक बिक न जाए, तब तक वकील लोग केस चलाते हैं. वह भी कहने लगा कि हम भी अन्ना. 44 प्रतिशत गरीबी सिर्फ डॉक्टरों की वजह से है. अमन और इंसानियत ही सबसे बड़े डॉक्टर हैं. डॉक्टर भी कहने लगा था कि वह भी अन्ना. रात में दो बजे तक व्हाटस ऐप और फेसबुक से फुर्सत न लेनेवाला नौजवान भी कहने लगा था कि मैं भी अन्ना.

आपने डॉक्टरों के बारे में आंकड़े बताए. उनके कुकर्मों के खिलाफ लड़ाई शुरू की लेकिन एक मुकाम तक पहुंचने के बाद उसमें ढील दे दी?

कहां छोड़ दिया. हम लगातार जनसंवाद के माध्यम से यह मामला उठा रहे हैं. कहां छोड़ दिया. छोड़ने का सवाल ही नहीं. सदन में रोज मामला उठा रहा हूं. डेमोक्रेटिक फ्रंट पर ही उठाऊंगा न! मैं बता रहा हूं लोगांे को कि डॉक्टर पैसे के लालच में 62 प्रतिशत मामलों में घुटने बदल देते हैं. 53 प्रतिशत मरीजों को डॉक्टरों ने फर्जी तरीके से कैंसर रोगी बनाया. 67 प्रतिशत लोगों की किडनी पैसे के लिए बदली गई. ये सब मैं अपने मन से नहीं कह रहा. भारत के संदर्भ में जापान और अमेरिका का सर्वे है. 78 प्रतिशत को सुई नहीं दी जानी चाहिए लेकिन फिर भी दी जाती है. 85 प्रतिशत बगैर सर्जरी के डिलिवरी नहीं हो रही. यह भी एक खेल है. एक की जगह नौ दवाई लिखते हैं. आईसीयू में जबरदस्ती ले जाते हैं. ये सब तो हर सभा में बताता हूं. लोगों को भी जागरूक होना होगा.

ठीक है आप इन बातों को जनसंवाद में उठा रहे हैं. आपका जो ये जनसंवाद है, उसका मूल मकसद क्या है?

आम जनों को जानना. उनसे पूछना. उनको बताना कि 67 सालों बाद पॉलिटिशयन कहां हैं और आप कहां हैं. और ये देश कहां है. आपका राज्य कहां है?

आपके इस जनसंवाद में लालूजी की तस्वीर रहती है?

मैं दल में हूं इसलिए है.

लेकिन राजद की तस्वीरों में तो राबड़ीजी की तस्वीर भी रहती है. आपके संवाद में तो लालूजी ही दिखते हैं सिर्फ!

नहीं, राबड़ी देवीजी की तस्वीर नहीं है.

क्यों?

राबड़ी देवीजी मेरे लिए मां की तरह हैं लेकिन तस्वीर नहीं लगाता. अब तो मंच पर लालूजी की तस्वीर भी नहीं दिखेगी, क्योंकि उनको चापलूसों ने कहना शुरू कर दिया है कि आपकी तस्वीर लगाकर पप्पू यादव घूम रहा है. लीजिए मंच से हटा दे रहे हैं.

आप चाहते क्या हैं?

ये बताना कि आपके नेता करना चाहते तो कुछ भी कर सकते थे, आपके लिए. एक सीएम चाहेगा तो क्या नहीं बदल जाएगा. हमको तीन महीना का समय दंे. हम एफिडेविट बनाकर देंगे कि अगर कुछ नहीं कर सके तो राजनीति नहीं करेंगे. अगर तीन महीने बाद दलाल और बिचौलिया सोच भी लें धरती पर आना तो जो नहीं सो. मैं राजनीति ही नहीं करूंगा. एक चपरासी और पंचायत सचिव पैसा  लेने की सोच भी ले तो राजनीति नहीं करूंगा. अधिकारी अगर आम आदमी को मालिक की तरह आदर न दे तो मैं छोड़ दूंगा. आम आदमी के टैक्स से ही हमको तनख्वाह मिलती है. अगर आम आदमी को ही सम्मान नहीं मिलेगा तो काहे की राजनीति. हम बेईमान हैं और हम ही बेईमानी करेंगे तो कैसे होगा.

‘जेठमलानी दो करोड़ रुपये लेकर कहने लगे कि आसाराम पर केस करनेवाली महिला को हिस्टिरिया है. छी-छी जेठमलानी. गरीब का घर बिक न जाए, तब तक वकील केस चलाते हैं’

बड़ा द्वंद्व है. दुविधा है. आप लालूजी की तस्वीर भी रखते हैं और उनके खिलाफ ही मोर्चा खोल रहे हैं?

लालूजी मेरे लिए आदरणीय हैं. कल को उनके साथ नहीं भी रहेंगे तो भी रहेंगे. विचारों के कारण. संस्कारों के कारण.

राजद के लोगों का साथ मिल रहा है?

नहीं, कहीं नहीं. कुछ लोग आते हैं, जो मेरे विचारों से सहमत हैं. जिनमें संघर्ष करने की क्षमता नहीं वे साथ नहीं आते. जो सरकार बनने की उम्मीद में आस लगाए हुए हैं, वे नहीं आते.

विरासत पर बात उठाई है. बेटा तो बेटी क्यों नहीं?

मैंने कहा कि बेटा-बेटी में फर्क नहीं. तीन लोग उनके घर में हंै तो फिर बेटी क्यों नहीं. अब लालूजी ने कहा कि कार्यकर्ताओं को टिकट नहीं. बड़ा गजब का बयान है उनका. हम तो जानना चाहते हैं कि क्या लालूजी परिवारवालों को टिकट देंगे, दलालों को टिकट देंगे तो कार्यकर्ताओं को क्यों नहीं. दलालों-चाटुकारों का टिकट क्यों नहीं काटते. परिवार के लिए क्यों नहीं काटते. अभी तो महाविलय हुआ है अभी से ही यह रंग.

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लंबे समय बाद आपने बात उठाई, परिवार का प्रयोग तो वे पहले से करते रहे हैं?

भइया मेरे, वे क्या प्रयोग करते रहे हैं, उससे मतलब नहीं. आप देखिए कि रामलखन सिंह यादव की विरासत इन्हें मिल गई. चौधरी चरण सिंह की विरासत मुलायम सिंह को मिल गई. डेमोक्रेसी में जनता न विरासत तय करेगी. हम और आप तय नहीं कर सकते. जनता तय कर ले कि लालूजी के बेटे को आगे बढ़ाना है तो कौन रोक लेगा.

आप रहेंगे न साथ में?

मेरी शुभकामना है. लेकिन बात तो यह है न कि अभी लालूजी के बेटे ने राजद का ककहरा नहीं जाना है. राहुल गांधी 15 सालों से संघर्ष कर रहे हैं. अखिलेश ने सात साल संघर्ष किया. मायावती की लाठियां खाई. उन्हें सीखने दें लालूजी. विरासत के बारे में पप्पू यादव कैसे बोलेगा कि उनका बेटा जनता की रहनुमाई करनेवाला विरासत संभालेगा. दुनिया में किसी के मुंह से सुना क्या. क्या नेहरूजी ने कहा. यह लालूजी पहले आदमी हैं जो इस तरह विरासत पर बोले. ये तो विचित्र बात है.

लालूजी ने पप्पू यादव की ओर इशारा करके तो नहीं कही विरासतवाली बात?

पता नहीं उन्हें किसने सलाह दी. मैं तो सबसे ज्यादा उनका आदर करता रहा हूं.

लेकिन उनको लगता है कि पप्पू यादव तो बहकता रहता है. कभी निर्दलीय, कभी सपा से तो कभी किसी दल से. आप अलग-अलग रास्ता अपनाते रहते हैं और अब कोसी छोड़ बिहार घूम रहे हैं तो चुनौती दिखी होगी?

इंिडयन डेमोक्रेटिक फेडरल पार्टी बनाई. सपा का अध्यक्ष रहा. जनता दल में संसदीय बोर्ड में मेंबर बना. मैं तो बचपन से ये सब करता रहा हूं. 1987 से मैं ऐसा करता रहा हूं.

क्यों. आपने इतने ठांव क्यों बदले. इतने बेचैन क्यों?

जहां मुझे संतुष्टि नहीं मिलेगी, वहां क्यों रहूंगा. मैं 90 के दशक से राजनीति में हूं. जहां जनता के पक्ष में बात नहीं होगी, वहां रहकर क्या करूंगा. पूंजीपतियों ने मिलकर इसमें से 12 साल तो मुझे जेल में डलवा दिया. 12 साल तीन महीने के बाद मैं आया. कोसी ही क्यों उनकी लहर को रोक देता है. क्यों मोदी का जादू कोसी में नहीं चलता. क्यों पति-पत्नी दोनों जीत जाते हैं. इन 12 सालों में किसी का उदय हो जाना चाहिए था. लालूजी के पुत्र का उदय हो जाना चाहिए था. मुझे ही संसद में बोलने का श्रेय मिलता है. इस दौरान मुझे मीडिया से लेकर सबने ऐसे पेश किया जैसे मैं बड़ा विलेन हूं लेकिन जनता ने तो मेरा साथ दिया. मैं बिहार के संपन्न किसान परिवार से हूं. मेरे दादा कोर्ट के ज्यूरी हुआ करते थे. मेरे परिवार ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी. मेेरे पिता ने दो बार एमपी का चुनाव लड़ा, और एक बार एमएलए का. मेरे पिता आध्यात्मिक आदमी हैं. मुझे क्या जरूरत थी, क्या कमी थी कि मैं विलेन हो गया. मैं तो फौज में जाना चाहता था. मुझे देखकर मेरी मां गाती थी, ‘तुझे सूरज कहूं या चंदा.’ दादा कहता था कि बड़ा पहलवान बनेगा. लेकिन कुछ लोगों ने मिलकर पप्पू यादव को खलनायक की तरह पेश किया.

फिर किसने यह छवि बनाई? बाहुबली पप्पू यादव को ही बिहार और देश जानता है?

मुट्ठी-भर लोगों ने, जिन्हें लगा कि मैं उनके लिए चुनौती हूं. पदाधिकारियों ने. जनता के दुश्मनों ने.

राजनीति में पिताजी से सीखकर आए?

नहीं, दादा की वजह से ही  हमारा परिवार राजनीति में है. हमारे दादा कोर्ट के ज्यूरी हुआ करते थे उससे पहले मुखिया भी रहे. मैं अमेरिका पढ़ने जा रहा था. जिला स्कूल और आनंदमार्गी स्कूल का टॉपर था. कहां पप्पू यादव बाहुबली था. ऊंचे सपने थे. वह तो सामाजिक जरूरतों ने ढकेल दिया मुझे भी राजनीति में लेकिन यहां आकर पाया कि राजनीतिक लोग सबसे ज्यादा दुष्चरित्र, बेईमान, लुटेरे हैं, गंदे हैं.

आप कभी राजनेता की तरह बात कर रहे हैं कभी सामाजिक सुधारकर्ता की तरह?

हां, मैं खुद से लड़ता हूं. राजनीति का पक्ष भारी पड़ता है कभी, तो कभी दूसरा पक्ष.

आप 90 के दशक में राजनीति में आए. उसी समय सामाजिक न्याय की राजनीति शुरू हुई. लालू- नीतीश का भी युग रहा ये. ऐसे बिहार की राजनीति में इन 25 सालों के सफर को कैसे देखते हैं?

कर्पूरी ठाकुर, चंद्रशेखरजी, मधु लिमये, देवीलाल, लालू यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, भूपेंद्र नारायण मंडल, जगदेव बाबू जैसे कई लोगों ने इसमें जोर लगाया. जगदेव बाबू को यहीं लाठी से मारा गया. कर्पूरी अपमानित हुए. सामाजिक न्याय की लड़ाई का दौर लंबे समय से चल रहा था. नब्बे के दशक में एक सरकार बनी. यह कहिए. इसके पहले भी सामाजिक न्याय की सरकार बनी थी. 90 की सरकार के बाद राजनीतिक और सामाजिक जागरूकता बढ़ी. प्रत्येक क्रिया के विपरित प्रतिक्रिया शुरू हुई. इन स्थितियों में लालूजी को मौका मिला. लीडरशिप उनका था तो लालूजी का नाम हुआ. लेकिन बिहार की समस्या का समाधान नहीं हुआ. आर्थिक व शैक्षणिक सुधार तो नहीं हुआ. कोई समाधान तो नहीं मिला इस दिशा में. बिहार को न्याय और विकास तो नहीं मिला. बिहार राजनीति की उर्वर भूमि बना रहा. 8400 गांव हैं, लेकिन तकरीबन 5600 गांवों में आज भी स्कूल नहीं हैं. सिर्फ 18 लाख नौजवान बीए में पढ़ते हैं. आज तक मात्र नौ हजार बेटियां तकनीकी शिक्षा ले सकी हैं. हम अपनी विरासत को नहीं संभाल सके. शासन और ज्ञान की परंपरा को आगे नहीं बढ़ा सके इन सालों में. बिहार के पास एक लंबी परंपरा है. कर्ण की नगरी यहीं है. सीता, आर्यभट्ट,  अशोक, शेरशाह सूरी से लेकर विद्यापति, भिखारी ठाकुर, बाबू कुंवर सिंह, मंडन मिश्र यहीं के हैं. ऐसी परंपरा रही लेकिन हम उसे आगे नहीं बढ़ा सके.

‘लालूजी ने गरीब के मर्म को समझा. तब सोशल मीडिया नहीं था लेकिन अब दो मिनट में दुनिया बदलने की हड़बड़ी है. लालूजी यह नहीं समझ पा रहे हैं. जनता उकताई हुई है’

आप ये कह रहे हैं कि सामाजिक न्याय की राजनीति और सत्ता के 25 सालों में सिर्फ जागरूकता फैलाने का काम हुआ?

नहीं, जाति का जहर भी फैलाया गया और उससे अपना मकसद साधा गया.

लालू और नीतीश में क्या फर्क देखते हैं. दोनों ने इन 25 सालों में राज किया?

लालूजी ने निश्चित रूप से गरीब की भाषा और मर्म को समझा. तब सोशल मीडिया नहीं था. लेकिन अब समय बदल गया. अब दो मिनट में दुनिया बदलने की हड़बड़ी है. लालूजी यह नहीं समझ पा रहे हैं. जनता उकताई हुई है. मोदी को लाती है उसी उम्मीद में. मोदी जी गिर जाते हैं. लालू के उलट नीतीश कुमार जी दूसरी राह पर चले. ब्यूरोक्रेसी को हावी कर दिया. लालूजी के राज में ब्यूरोक्रेसी के मन में डर था. पैसा लेता था तो काम भी करता था. जनता को आंख नहीं दिखाता था लेकिन नीतीश के राज में उलटा हुआ. लालूजी के राज में भी उन्हीं लोगों ने लूटा जो नीतीश कुमार के राज में लूटे या लूट रहे हैं. अफसोस ये होता है कि सामाजिक न्याय की राजनीति में बड़े वर्ग का साथ मिला, जिसका उपयोग न लालू कर सके, न नीतीश. अल्पसंख्यक, पिछड़े, दलित, अतिपिछड़ा, ऊंची जातियाें में राजपूतों की बड़ी आबादी सामाजिक न्याय के साथ रही लेकिन लालूजी संभाल नहीं पाए. लालूजी के राज में एक जाति को लगा कि उनका राज आ गया. वे बाहुबली बनने लगे. तब लोगों को लगा कि फर्क क्या है, पहलेवाले भी तो यही करते थे. तब नारा चला कि यादवों को खत्म करो. यादव गाली बने. फिर नीतीश कुमार के कंधे पर पिछड़ों को बांटा गया और राज किया गया. नीतीश कुमार भी घिर गए. छटपटाहट है उनमें कि इनको बदलो, उनको बदलो.

किसमें छटपटाहट है. सवर्णों में?

नहीं सवर्णों को नहीं कहूंगा. बिहार में कुछ 50 घराने हैं, जो सत्ता की सियासत को हमेशा साधने में लगे रहते हैं, वही ये सब खेल करते हैं.

आपने एक बात कही कि लालू उस समय आ गए. क्या आप ये कहना चाह रहे थे कि लालू सिर्फ परिस्थितियों की देन की वजह से नेता बने, स्वाभाविक नेता नहीं?

हां, इससे इंकार नहीं कि वे परिस्थितियों की देन की तरह आए नेता थे लेकिन ऐसा भी नहीं कह सकता  िक वे नेता नहीं थे. वे 1974 के आंदोलन में सक्रिय थे. वे नेता रहे हैं.

बिहार में अब तो जीतन राम मांझी एक अहम नेता हैं, क्या कहेंगे आप?

हां, वे एक अहम नेता हैं. वे जिस घर में जाएंगे वह एक मजबूत खेमा होगा. मुझे डर है कि कहीं झारखंडवाला हाल न हो जाए महाविलय पार्टी का.

क्या हुआ झारखंड में?

झारखंड में जनता दल यू और राजद की जमानत जब्त हो गई. हेमंत सोरेन का साथ छोड़े तो असर दिख गया. कीमत चुकानी पड़ी.

पप्पू यादव सीएम बनने की लड़ाई लड़ रहे हैं. आपने कहा भी कि आपको तीन माह दिए जाएं तो ऐसा कर देंगे, वैसा कर देंगे?

आपने पूछा तो कहा.

आपकी कोई बात नहीं मानी जा रही. महाविलय हो चुका है. मांझी अलग हैं. लालूजी अब बार-बार कह रहे हैं कि मेरा बेटा उत्तराधिकारी है. ज्यादातर आपको सुना रहे हैं.

उत्तराधिकारी तो अब नीतीश कुमार हो गए. अब  यह सवाल ही खत्म हो गया.

आपको तो कोई दिक्कत नहीं है न?

मुझे किसी से क्या दिक्कत है. लेकिन ये तो सब जानते हैं न कि आज अगर यादवों को जंगलराज का पर्याय माना जाता है, उनको गाली दी जाती है तो उसमें नीतीश की भूमिका सबसे ज्यादा रही है. उन्होंने यादवों के बारे में ऐसा प्रचारित करवाया. लेकिन ऐसा होता तो है नहीं. पप्पू यादव या लालू यादव खराब हैं तो इससे पूरे यादव समाज को गाली नहीं देनी चाहिए. लेकिन नीतीश कुमार ने तो ये करवाया था.

आप करेंगे क्या? लालूजी आपको किनारे कर चुके हैं. नीतीश ही उत्तराधिकारी बन गए. आपकी किसी बात काे महत्व नहीं दिया गया न. क्या अलग रास्ता अपनाएंगे?

अब यह जमात और वर्कर तय करेगा. मैं घूम रहा हूं. राजद के कार्यकर्ताओं से मिल रहा हूं.

आप महाविलय के बाद राजद और लालटेन को अपने पास रखना चाहेंगे?

ऐसा कुछ नहीं है. राजदवाले नेता और कार्यकर्ता चाहेंगे तो ऐसा होगा.

पत्नी और कांग्रेस सांसद रंजीत रंजन की भूमिका आपके कॅरियर में अहम रही है.

रंजीत रंजन की बड़ी भूमिका रही है. जितनी भूमिका मेरे दादा और पिता की रही है, उतनी ही भूमिका मेरी पत्नी की रही है.

आपके और पत्नी के विचार एक हैं. आप युवा संवाद में उनकी तस्वीर भी लगाते हैं. वह कांग्रेस से आप राजद से. राजनीतिक तौर पर अलग-अलग क्यों हैं आप दोनों?

वह कांग्रेस की विचारधारा मानती हैं. मेरे लिए बिहार प्राथमिक सूची में है. अलग-अलग विचारधारा है इसलिए दल में हैं.

अगर आप दोनों बेस्ट पॉलिटिकल कपल हैं तो अलग क्यों. एक और एक ग्यारह क्यों नहीं बन रहे. बिहार के लिए ही सही.

यह तो कांग्रेस को तय करना चाहिए. हो सकता है कि कांग्रेस के मन में दुविधा हो. हो सकता है कि कांग्रेस के मन में हो कि मैं बाहुबली के रूप में प्रचारित किया जाता रहा हूं. लेकिन अब इस छवि का क्या किया जाए. अमित शाह पर तमाम आरोप लगे लेकिन वे आज देश की सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष हैं. आडवाणीजी पर आरोप लगा, वे गृहमंत्री बने.

आपको कांग्रेस प्रस्ताव दे तो जाएंगे. वह तो बिहार में मर गयी है?

देखेंगे. कांग्रेस बड़ी पार्टी है. वह कभी नहीं कहेगी कि मर गई है. कांग्रेस में मजबूत जनाधारवाली मेेरी पत्नी रंजीत हैं, वे आगे आएंगी तो मैं उनके साथ रह सकता हूं. अपना स्वार्थ क्यों देखूंगा.

रंजीत को आगेकर कांग्रेस कहे कि पप्पू साथ दीजिए तो क्या करेंगे?

क्या किसी दल के साथ रहना जरूरी है. कल कांग्रेस मुझे अपने काम करने से रोकने लगे तो उसके साथ कैसे रह पाऊंगा. मैं बहुत दुविधा में रहता हूं.