
ओडिशा के व्यावसायिक केंद्र कटक स्थित सरदार वल्लभ भाई पटेल पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टिट्यूट ऑफ पेडियाट्रिक्स, जो कि शिशु भवन के नाम से मशहूर है, में पहुंचते ही आपको एक गंध घेर लेती है. ये वही गंध है जिससे देशभर के किसी भी सरकारी अस्पताल में आपका सामना होता है. दीवारों से उखड़ा रंग, लोगों से भरे वार्ड, इनक्यूबेटर में लेटे बच्चे और उनके बेबस, चिंतित व निराश मां-बाप जो अपने बच्चे की परेशानियों के खत्म होने का इंतजार कर रहे हैं. उपेक्षा और डर से भरे इन दृश्यों में झलकती कराह आपको भावुक कर देती है. ये अस्पताल बाल रोगों के इलाज के लिए जाना जाता है.
ये वही जगह है जहां अगस्त के दो हफ्तों में 69 नवजात बच्चों की मौत हुई है, जिसके विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं और बच्चों की मृत्यु का कारण जानने के लिए जांच की मांग भी की जा रही है. किसी भी राज्य, भले ही वो शिशु मृत्यु दर में सिर्फ एक प्रदेश (मध्य प्रदेश) से पीछे हो, के लिए भी ये आंकड़े डरावने ही होंगे. साथ ही दिलचस्प बात ये भी है कि 2013-14 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार मध्य प्रदेश और ओडिशा दो ऐसे राज्य हैं जहां गरीब ग्रामीण आबादी सबसे अधिक है और जो अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित रहते हैं.
जब ‘तहलका’ की ओर से इस अस्पताल का दौरा किया गया तो और भी क्षुब्ध करने वाले तथ्य सामने आए, जो दिखाते हैं कि कैसे एक प्रमुख सरकारी अस्पताल शिशु मृत्यु दर से लड़ने के लिए प्रयासरत है जबकि वहां भर्ती हुए शिशुओं की संख्या के कोई कम्प्यूटरीकृत मेडिकल रिकॉर्ड ही नहीं हैं.
गौर करने वाली बात ये है कि राज्य के गंभीर रूप से बीमार बच्चों को कटक के शिशु भवन में भेजा जाता है. राज्य में बेहतर बाल चिकित्सा के लिए मशहूर इस अस्पताल में नवजात से लेकर 14 साल तक के बच्चों का इलाज किया जाता है. 416 बिस्तरों वाले इस अस्पताल में 21 आईसीयू हैं. बताया जाता है कि अधिकतर शिशुओं की मौत ऐस्फिक्सिया यानी श्वास अवरोध (ये ऐसी अवस्था है जिसमें शरीर में ऑक्सीजन सही तरीके से नहीं पहुंच पाती, जिसकी वजह से सांस लेने में परेशानी होती है, कई अंग सही से काम नहीं कर पाते. बच्चों में अगर जन्म से ये बीमारी हो तो मस्तिष्क को भी खासा नुकसान होता है), समय से पहले जन्म, रक्त विषाक्तता और दिमागी बुखार से हुई है. हालांकि अस्पताल के अधिकारियों का दावा है कि जब बच्चों को दूसरे अस्पतालों से यहां लाया गया था तब ही उनकी हालत काफी गंभीर थी, तो ऐसे में उनके बच पाने की उम्मीद क्षीण ही थी. ये दावा अस्पताल और सरकार द्वारा बच्चों की मौत की जिम्मेदारी टालने से ज्यादा कुछ नहीं लगता.
यहां ये जानना जरूरी है कि आखिर ये बच्चे शिशु भवन आए ही क्यों? ये सबूत है कि सरकार राज्य भर में पर्याप्त और प्रभावी स्वास्थ्य सुविधाएं देने, साथ ही आसपास के इलाकों में नाजुक हालत के मरीजों की देखभाल में असफल रही है. अच्छे इलाज की आशा में अभिभावक विभिन्न रोगों से जूझ रहे अपने बच्चों को गंभीर हालत में शिशु भवन लेकर आते हैं.
अस्पताल में मिले मनोज कुमार साहू के मामले को देखा जाए तो पता चलता है कि कैसे जिला अस्पताल समय पर सही इलाज देने में नाकाम हैं. मनोज पुणे में प्लम्बर हैं. वह बताते हैं कि कैसे दक्षिणी ओडिशा के कोरापट जिले से वो अपनी लगभग मृतप्राय बेटी को लेकर शिशु भवन पहुंचे थे. उनके अनुसार, ‘बच्ची को जन्म के छठे दिन से ही बुखार आने लगा, हमने उसे जिला अस्पताल में भर्ती करवाया पर उसकी हालत में कोई सुधार नहीं हुआ. तब डॉक्टरों ने हमें उसे शिशु भवन ले जाने को कहा. हमने एक हजार रुपये देकर एम्बुलेंस किराये पर ली जिससे हम बच्ची को शिशु भवन ले जा सकें. हमें कटक पहुंचने में पूरा दिन लग गया. तब तक मेरी बेटी लगभग मर ही चुकी थी, उसमें कोई हलचल नहीं हो रही थी. यहां डॉक्टरों ने उसे फौरन आईसीयू में भर्ती किया. अगर हमारे जिले में कोई अच्छा अस्पताल होता तो शायद मेरी बेटी बच जाती!’ मामला जितना दूरदराज का और जितने गरीब इलाके का होता है त्रासदी उतनी ही बड़ी होती है. अगर दूरी को छोड़ भी दें तो इलाज की कीमत (क्या आपको लगता है सरकारी अस्पताल सस्ते होते हैं?) देने में किसी परिवार, जो बमुश्किल दो जून की रोटी जुटाता है, की कमर टूट जाती है और कर्ज का कभी न खत्म होने वाला चक्र शुरू हो जाता है. उदाहरण के तौर पर देखें तो अभिभावक को पहले आईसीयू की 250 रुपये फीस देनी होती है, जो पांच दिनों के बाद बढ़कर 500 रुपये हो जाती है. इसके अलावा वेंटिलेटर के लिए भी 500 रुपये देने होते हैं. साथ ही ग्लूकोज आदि की बोतल के लिए भी 300-400 रुपये भरने पड़ते हैं. यहां उस राज्य की बात हो रही है, जहां इस साल के अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस पर सरकार ने गैर प्रशिक्षित मजदूरों (इसमें खेतिहर मजदूरी भी शामिल है, जिस पर सबसे ज्यादा आबादी निर्भर है) की न्यूनतम मजदूरी 150 से बढ़ाकर 200 रुपये रोजाना की है, अर्द्ध-कुशल मजदूरों की 170 से बढ़ाकर 220 रुपये रोजाना और प्रशिक्षित मजदूरों की 190 से बढ़ाकर 240 रुपये रोजाना प्रतिदिन की गई है. चिकित्सा के ये खर्चे उस समय और घातक लगने लगते हैं जब ये पता चले कि ओडिशा की एक तिहाई ग्रामीण आबादी (35.79 फीसदी) 32 रुपये रोजाना (देश का आधिकारिक गरीबी रेखा पैमाना) की आय से भी कम पर गुजारा करती है. प्रति व्यक्ति मासिक खर्च 1,003 रुपये है जो दिखाता है कि ग्रामीण ओडिशा देश में सबसे कम खर्चा करने वाला भाग है, जहां परिवारों की कुल आय का लगभग 57 फीसदी हिस्सा खाने पर व्यय होता है.
प्रदीप प्रधान, ‘राइट टू फूड कैम्पेन’ के कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने हाल ही में अपनी रिपोर्ट ओडिशा के राज्यपाल को सौंपी है. इसमें साफ बताया गया है कि कैसे बीपीएल कार्ड धारकों को शिशु भवन में इलाज करवाने में परेशानियों का सामना करना पड़ता है. उदाहरण के लिए वो बताते हैं, ‘कोरापट जिले के जयपुर के एक बीपीएल कार्डधारक अपने तीन साल के बच्चे के इलाज के लिए शिशु भवन आए थे. बाहर काउंटर पर बैठे स्टाफ ने उनसे खून की जांच के लिए फीस मांगी, जब उन्होंने अपना बीपीएल कार्ड दिखाते हुए कहा कि उन्हें मुफ्त इलाज की सुविधा है, तब स्टाफ ने उन्हें गाली देते हुए कहा, या तो फीस भरो या निकल जाओ. आखिर में उन्हें 190 रुपये भरने पड़े.’