ज्यादातर लोग इन समस्याओं का सतही ढंग से आकलन करते हैं, जबकि सतह पर देखने से चीजें साफ नहीं होंगी न ही उनके उपाय हो सकेंगे. हमारे सामाजिक ढांचे में ही खराबी है. संविधान कहता है कि छुआछूत नहीं होनी चाहिए, लेकिन समाज में आज भी छुआछूत जारी है. उसे खत्म नहीं किया जा सका क्योंकि जाति के उन्मूलन की बात ही नहीं हुई. जो उपाय किए गए, वे जाति को जिंदा रखकर किए गए और वही आज भी हो रहा है.
संविधान बनने के बाद शुरुआत में आरक्षण की व्यवस्था इसलिए नहीं की गई थी कि लोग जातीय रूप से पिछड़े हैं, बल्कि इसलिए की गई थी कि वे सामाजिक-आर्थिक ढांचे से बाहर हैं. वे वंचित हैं इसलिए आरक्षण दिया गया था. आम्बेडकर ने जाति उन्मूलन की बात की थी, लेकिन वे असफल रहे. देखिए, आरक्षण दलित-वंचित तबके को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक तो है लेकिन वह कोई पैनाशिया (रामबाण) नहीं है कि सारी समस्याएं उसी से ठीक हो जाएंगी.
संविधान कहता है कि छुआछूत नहीं होनी चाहिए, लेकिन समाज में आज भी छुआछूत जारी है. क्योंकि जाति के उन्मूलन की बात ही नहीं हुई
दलितों की स्थिति सुधारने की दिशा में आरक्षण कोई खास मदद नहीं कर पाया है. आप जायजा लेकर तुलनात्मक अध्ययन कर सकते हैं. दलित समुदाय के लोग जहां थे, वे वहीं हैं. आरक्षण की नूराकुश्ती से उन्हें कोई लाभ नहीं मिला, क्योंकि इस तंत्र की संरचना में खराबी है, जो वंचितों को आगे नहीं आने देती. पहले यह था कि लोग वर्ण व्यवस्था के मुताबिक रहते थे, उनमें छुआछूत आदि तो थी, लेकिन शोषणकारी व्यवस्था के बावजूद समाज एक-दूसरे की मदद पर निर्भर था. जबसे वंचित-दलित तबके पावर शेयरिंग में शामिल होने लगे, ऊंची जातियां आक्रामक होने लगीं. शहरों में हालत उतनी बुरी नहीं है, जितनी गांवों में है. ऊंची जातियों के लोग लगातार दलितों पर हमले कर रहे हैं और राजनीति इसमें कोई अंतर नहीं ला पा रही है. आज के दलित नेता और दलितों की नुमाइंदगी करने वाली पार्टियां बिचौलिया बनकर रह गए हैं. दलितों के नाम पर कई पार्टियां बनीं, कई नेता सक्रिय हैं, लेकिन उनसे ज्यादा उम्मीद नहीं दिखती. उत्तर प्रदेश में मायावती और कांशीराम ने अच्छी मंशा के साथ काम किया लेकिन यह तंत्र ऐसा है कि वे लोग कुछ नहीं कर सके. मायावती भी कांग्रेस और भाजपा के बीच उलझकर रह गईं. दलित राजनीति भी अभी संघर्ष की हालत में है. उसे तमाम चालबाजियों से निपटना है.
दलित समुदाय के लिए फिलहाल कोई राष्ट्रीय आवाज नहीं है. क्योंकि जब आप कहते हैं दलित तो इसका मतलब कोई एक जाति नहीं है. जाति तो चमार है, पासी है, कोयरी है. दलित शब्द उस पूरे समुदाय को संबोधित है जिसके तहत तमाम वंचित जातियां हैं. उनको एकत्र करने की आवश्यकता है. एक ऐसा केंद्रबिंदु तैयार किया जाना चाहिए जहां पर दलित समुदाय को मोबलाइज किया जा सके. जहां तक हालात में बदलाव का सवाल है तो हमारा ऐसा मानना है कि बदलाव आएगा. लेकिन वह किसी की वजह से नहीं आएगा. बदलाव समय की मांग है. इसलिए आएगा. नई पीढ़ी ज्यादा प्रगतिशील है और वह तमाम पुराने ढांचों को तोड़ रही है. इसलिए आशा की जानी चाहिए कि समय के हिसाब से जाति खत्म होगी.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और विचारक हैं)
(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)