सनी लियोन परिघटना का फायदा अगर उनसे ज्यादा किसी को हुआ है तो वो है भारतीय मीडिया. जो नैतिकता, आत्मसंयम और ‘चारित्रिक विकास’ बेचने वाली दुकानों से भी कमाता है, साथ ही इन्हीं मूल्यों की कमर तोड़ने वाली अराजक मनोरंजन की दुनिया से और भी ज्यादा कमाई करता है.
भारतीय मीडिया इतना बे-किरदार है कि ‘बिग-बॉस’ जैसे कार्यक्रम में सनी लियोन को लाकर सुपर-डुपर कमाई करता है, फिर उस कार्यक्रम की उत्तेजक झलकियों को ‘खबर’ बताकर अगले दिन खबरिया चैनल पर टीआरपी बटोरता है, फिर एसएमएस द्वारा महंगी दरों पर वोटिंग करवाकर सीधे दर्शकों को लूटता है और सनी लियोन को हर तरह के कार्यक्रम में फिट कर जब इस पूरी प्रक्रिया का दोहन सम्पूर्ण हो जाता है तो नैतिकता, पश्चाताप और व्याभिचार के सवालों से, अकेली सनी लियोन को छलनी कर अपने परम-पावन कर्तव्य की इतिश्री से भी रेटिंग बटोर लेता है. सनी लियोन के उपभोक्ता, उसकी पॉर्न फिल्मों के निर्माता-विक्रेता, ये सब कभी नहीं धिक्कारे जाते, हालांकि इनके बिना ‘सनी लियोन’ होना मुमकिन नहीं.
इस रीढ़विहीन मीडिया और उसके जातिवादी मर्द संपादकों की जुर्रत नहीं कि वह ‘कलर्स’ चैनल के मालिकों से पूछें कि ये ‘बिग-बॉस’ जैसा विकृत कार्यक्रम क्यों चला रहे हो तुम? इस मीडिया की जुर्रत नहीं कि बिग-बॉस के निर्माताओं से पूछें कि एक पॉर्न अभिनेत्री को घर-घर के ड्रॉइंग रूम में किसलिए पहुंचाया गया?
भारतीय मीडिया के लिए सनी लियोन एटीएम जैसा सुख है क्योंकि चाहे उसको सराहें या फिर दुरदुराएं, दोनों ही सूरत में टीआरपी यकीनन मिलेगी
इस मीडिया की ये भी जुर्रत नहीं कि सनी लियोन वाले बिग-बॉस सीजन-5 के विज्ञापन को ही नकार दे, लेकिन इसी मीडिया को अकेली सनी लियोन को घेरकर उसकी आलोचना करने जैसा पराक्रमी काम करना आता है. सनी लियोन की पॉर्न-फिल्म, बॉलीवुड-फिल्म, रियलिटी शो, और आइटम नंबर के भारत में करोड़ों दर्शक हैं, ये एक तथ्य है. लेकिन हमारे मीडिया बहादुरों की ये भी जुर्रत नहीं कि उन करोड़ों में से बीस-पच्चीस का ही एक सैंपल सर्वे कर ये पूछें कि ‘भाई आप इस असांस्कृतिक मनोरंजन को देखते क्यों हो? आपके देखने के चलते ही ये बनाया जाता है, जिससे मुनाफा पैदा होता है, जिससे समाज परेशान हो रहा है?’ वैसे भारतीय फिल्म और मनोरंजन जगत में आने के बाद सनी लियोन वही कर रही हैं जो बाकी लड़कियां कर रही हैं. तो सनी लियोन में आखिर ऐसी क्या बात है कि उन्होंने इतना कौतूहल जगा दिया भारतीय समाज में? आखिरी बार ऐसी जिज्ञासा कब पैदा हुई थी मीडिया और फिल्म इंडस्ट्री में?
ये तब हुआ था जब बागी फूलन देवी हथियार डालकर वापस लौटी थीं समाज में. फूलन देवी के साथ हुए अपराधों को निर्देशक शेखर कपूर ने ‘बैंडिट क्वीन’ (1994) नामक फिल्म बनाकर उसका बाजारू दोहन किया था और फूलन देवी को महज एक बलात्कार-दर-बलात्कार पीड़िता के तौर पर पेशकर वाहवाही और दौलत कमाई थी. बलात्कारियों को बीच चौराहे सजा-ए-मौत की वकालत करने वाले भारतीय समाज में भी फूलन देवी के प्रति जो रवैया था वो उस महिला के प्रति सम्मान का नहीं था जिसने कानून की पकड़ से छूट गए अपने बलात्कारियों को सजा देकर एक मिसाल कायम की, बल्कि समाज की दिलचस्पी ये देखने में थी कि सामूहिक बलात्कार कैसा होता है और इसकी शिकार महिला कैसे रहती-सहती है? और ये भी सच है कि किसी भी महिला का अपनी यौनिकता पर अधिकार, उसका प्रदर्शन, उसके प्रति सहजता हमारे समाज को असहज कर जाती है. भारतीय फिल्म उद्योग इसकी जीती जागती मिसाल है. हालिया सालों में मल्लिका सहरावत, राखी सावंत, पूनम पांडेय और अब सनी लियोन का बिंदास रवैया उनके फिल्म करिअर की सबसे बड़ी बैसाखी इसी कारण बना.
इसलिए सनी लियोन के साथ हम भारतीयों का रिश्ता सरप्राइज-फैक्टर के साथ शुरू हुआ, बिग बॉस में सिर्फ भागीदार ही नहीं बल्कि पूरा दर्शक समाज अचंभित था कि निर्लज्ज-नग्न-यौन अनुभवों की दुनिया का एक बाशिंदा दिन-दहाड़े हमारे बीच कैसे? वो भी खुद को भारतीय मूल का घोषित करते हुए? विदेशों में बसे भारतीय मूल वालों की हर कामयाबी को ‘भारतीय संस्कार की कामयाबी’ का ठप्पा लगाने वालों के लिए ये एक भयानक भारतीयता थी. ये भारतीय मूल के सबीर ‘हॉटमेल’ भाटिया से कई गुना हॉट-फीमेल का मामला था. दुनियाभर में सॉफ्टवेयर क्रांति करने वाले भारतीय, इस भारतीय मूल की ‘साॅफ्वेयर’ के साथ डील कर पाने में नाकाम थे. कुछ चिर-सरपरस्त टाइप मर्दों की दिक्कत थी कि अपनी इस कामयाब ‘बेटी’ का क्या करें? कुछ का मसला था कि अपने पति/बॉयफ्रेंड के समक्ष कैसे प्रासंगिक बनी रहें, कुछ का मानना था कि हमारी उम्र तो गुजर गई बौराने की लेकिन बेटों को कैसे बचाएं? कुछ को व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा ने भी परेशान किया. कुल मिलाकर भारतीय मीडिया और मनोरंजन व्यवसाय को छोड़ दें तो दिक्कत सबको थी. भारतीय मीडिया के लिए सनी लियोन एटीएम जैसा सुख है क्योंकि चाहे उसको सराहें या दुरदुराएं, टीआरपी यकीनन मिलेगी, लिहाजा उत्कंठ नारीवादी कोण हो या भारतीय संस्कृतिवादी, खरबूजा छुरी पर गिरे या छुरी खरबूजे पर.
दो शब्द अश्लीलता के सवाल पर भी- कि पॉर्न या अर्द्धपॉर्न (मस्तीजादे) फिल्में भी जटिल निर्माण प्रक्रिया से बनती हैं, ऐसे में फाइनेंसर, निर्माता, निर्देशक, संपादक, तकनीक विशेषज्ञ, संगीत निर्देशक, हीरो, वितरक आदि को इल्जाम के दायरे से बाहर रख सिर्फ महिला पॉर्न स्टार को अश्लीलता के सवाल पर घेरना ही अश्लीलता है. पॉर्न से मुनाफा कमाकर, उसी पॉर्न स्टार से पश्चाताप करवाने की हेकड़ी ही अश्लीलता है. मीडिया जगत में होने वाले यौन-उत्पीड़न, यौन अपराधों पर कभी स्टोरी न करना, पीड़ित महिला-सहकर्मी को लाचार, बेसहारा और बेरोजगार छोड़ आततायी संपादक-चैनल हेड की जी-हुजूरी करना ही अश्लीलता है.
विश्व में अब कुछ देशों में ‘पॉर्न वेबसाइट प्रति व्यक्ति’ के हिसाब से हैं, मतलब ये कि प्रति हजार व्यक्तियों पर लगभग हजार ही पॉर्न साइट्स हैं. इस मामले में मानवता के विकास की कहानी अद्भुत है, यानी पीने का पानी नहीं पहुंचा पाए हैं लेकिन विकसित दुनिया ने सबके लिए पॉर्न मुहैया करवा दिया है. अब ये साम्यवादी समझ कि ‘रोजगार के तौर पर स्त्री-शरीर का उपयोग उसे एक वस्तु में तब्दील कर रहा है, निर्मम बाजार और पूंजीवाद सेक्स को गैरमानवीय आयाम दे रहे हैं’, बुनियादी तो है लेकिन काफी नहीं. सेक्स-रेवेन्यू से अब देशों की अर्थव्यवस्थाएं चल रही हैं. राष्ट्रीय सरकारें सेक्स के बाजार से कमाया गया मुनाफा सामाजिक-सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य पर खर्च कर रही हैं. इसलिए सेक्स-उद्योग अब प्रतिदिन की सच्चाई है, जिसे हम आत्मसात कर ही लेंगे. देसी सनी लियोन के प्रकट होने में जितनी देर लगेगी उतनी ही देर तक आधी-विदेशी सनी लियोन का सिक्का चलता रहेगा, और वही इस यात्रा का अगला पड़ाव होगा, फिर सब सामान्य हो जाएगा.
दरअसल पॉर्न की कामयाबी का राज यह है कि ये नितांत एकांगी और गैर लज्जाजनक अनुभव है. ये उपभोक्ता को गुमनाम रख सिर्फ प्रस्तुतकर्ता पर केंद्रित रहता है और उपभोक्ता समाज अपनी नाक सिकोड़े, त्योरियां चढ़ाए नैतिकता का आग्रह भी कर लेता है. दुनिया के सबसे बड़े पॉर्न-आसक्त भारतीय समाज को अगर सनी लियोन ये चुनौती दे दे कि ‘है कोई माई का लाल-संस्कारी पुरुष जो समाज में खुलकर आए और बताए कि सनी लियोन उसकी फंतासी की मलिका है’, तो आपको क्या लगता है कि कितने मर्द ईमानदारी से आगे बढ़कर आ सकेंगे? हमारे पति, भाई, बेटे, बॉयफ्रेंड और सहकर्मी हमारे जीवन का हिस्सा हैं और पॉर्न उनके जीवन का, दूसरी तरफ ‘देसी बॉयज’ भी हैं, स्वीकार कीजिए.
(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं)