भूकंप के बारे में सोचते हुए हमें अपने कैलेंडर, इतिहास और प्रकृति का कैलेंडर और उसकी घटनाओं का इतिहास मन में दोहरा लेना चाहिए. आज दिल्ली राजधानी है लेकिन इससे पहले भी यह अलग-अलग लोगों को राजधानी की तरह अपनी सेवाएं दे चुकी हैं. हमलोगों की स्मृति में इस शहर का इतिहास तो कोई एक हजार साल का होना ही चाहिए. यह संभव है कि इतने समय के इतिहास में ऐसा कोई भूकंप नहीं आया हो जो हमें कड़वा सबक सिखा गया हो. यह हमेशा याद रखना चाहिए कि यह शहर जिस जगह बसा है, वह भूकंप के लिहाज से कोई सरल जगह नहीं कही जाएगी. जिस पैमाने पर भूकंप की तीव्रता नापी जाती है, वह हमारा बनाया हुआ है. यह सही है कि पैमाना बहुत मेहनत से बनाया गया है लेकिन यह हमारा ही बनाया हुआ है. यह कोई जरूरी नहीं है कि प्रकृति ने वह पैमाना पढ़ रखा हो. प्रकृति को जिस दिन लगेगा वह उस दिन उससे कम या ज्यादा का नमूना दिखा सकती है. इसलिए दिल्ली शहर को किसी भी चीज का विस्तार करते हुए इस बात को अपने मन से कभी भी हटने नहीं देना चाहिए.
दुर्भाग्य से हम लोग ऐसे समय से गुजर रहे हैं जब आर्थिक नीतियों ने गांव से उजाड़कर शहर की ओर धकेला है. बांध, बिजलीघर, सड़कों का चौड़ीकरण आदि कई तरह की विकास की योजनाएं हैं. इन सबके नीचे जो भी चीजें आती हैं सबको उठाकर फेंक दिया जाता है. इस काम में न कोई संवेदना है और न ही व्यवस्था देने की कोई योजना है. लोग तो अपने-अपने पेड़ों से गिर जाते हैं और न जाने जब पेड़ की पत्तियां थोड़ी भी हिलती-डुलती हैं और थोड़ी भी हवा या आंधी चलती है तो वह सब उड़कर न जाने कहां चले जाते हैं. ऐसी सभी जगहों से उखड़े लोग अपने आसपास के शहरों की ओर ठेले जाते हैं. इन शहरों का आकर्षण कहिए या चुंबक, जो लोगों को अपनी ओर खींचते हैं. इन शहरों में कुछ लोग चाहकर और कुछ बिना चाहत के अपनी मजबूरी में आकर बसते है. ऐसे लोगों की सेवाएं बहुत महत्वपूर्ण हैं, इसे नहीं भूलना चाहिए. अपनी जगह छोड़कर जो लोग नई जगह पहुंचते हैं, उनका कोई स्वागत करने वाला नहीं मिलता है. उसे अपने रहने के लिए कहीं-न-कहीं छप्पर डालना होता है. इसी तरह से एक बस्ती बस जाती है, जिसका ठीक-ठीक नाम भी मेरी भाषा आजतक नहीं खोज पाई है. इसे हम कभी झुग्गी-झोपड़ी, मलिन बस्ती, गंदी बस्ती आदि कुछ कह देते हैं. इस तरह इन बस्तियों के कई नाम होते हैं. अंग्रेजी में तो इसे सीधे-सीधे ‘स्लम’ कहते हैं. शहर को बहुत सारी अनिवार्य सेवा देने वाली आबादी को हम तरह-तरह के अपमानजनक नामों से पहचान पाते हैं.
डीडीए के 10-20 साल पुराने मकानों की गारंटी लेने को कोई तैयार नहीं है. कुछ इमारतों की हालत ऐसी है कि बिना भूकंप के ही कोई छू दे तो ये गिर जाए
इसमें एक वैध और अवैध शब्द भी जुटता है. प्रायः मुखर लोग जहां रहते हैं वो वैध इलाके कहलाते हैं और जहां अपनी जगह से उखड़े या उजड़े लोग रहते हैं, वो अवैध बस्तियां कहलाती हैं. चूंकि यह दौर संख्या का है इसलिए इनकी गिनती करने के लिए राजनेता या राजनीति करने वाले आगे आते है. इसके बाद राजनेता उनसे यह वादा भी करते हैं कि तुम अपना मत मुझे दे दो तो हम चुनाव जीतने के बाद आपके इलाके को वैध बना देंगे. जो राजनेता बस्ती को वैध बनाने की बात चुनाव के दौरान करते हैं, बाद में जब उनकी सरकार बन जाती है तब वे ही इन बस्तियों में बुलडोजर चलाने के लिए पहुंच जाते हैं. कभी शहर को सुंदर बनाने, कभी अवैध निर्माण, कभी सड़क, सफाई आदि के नाम पर बस्तियों पर बुलडोजर चलाए जाते हंै. कभी रात को मूसलाधार बारिश में, कभी एक-दो डिग्री की कड़क ठंड में तो कभी 47-48 डिग्री की आग बरसाती धूप में बस्तियों को निर्ममता से उजाड़कर फेंक दिया जाता था. यह शहर का एक मजबूरी वाला हिस्सा है, जिसे हम साधन-संपन्न कहते हैं जो पहले से वैध कही जानेवाली बस्तियों में रहता है. उसके सपने कुछ और बढ़कर हैं. इस आबादी के लोग दिल्ली के आसपास बसने वाली अटपटे नामों वाली कॉलोनियों में 20-30 लाख से लेकर अब तो 20-30 करोड़ वाली कॉलोनियों में अपनी जगह तलाशते हैं. जैसा हम गरीब लोगों की बस्तियों का नाम अपनी भाषा में ढूंढ़ नहीं पाए, वैसे ही हम वैध बस्तियों के नाम अपनी भाषा में तलाश नहीं कर पाए हैं. हमें ऐसी बस्तियों के नाम इतालवी और दूसरी भाषा के मिलते हैं जिसका मतलब हम नहीं जानते हैं. नोएडा, गुड़गांव और फरीदाबाद में कुछ कॉलोनियों में ऐसे नाम हमें मिल जाते हैं जिसके बारे में हम ‘ऐ…’ ही कह सकते हैं. ‘ऐ…’ कहने का मतलब यह कि भाई समझा नहीं जरा इसका मतलब बताना. इनमें रामपुर और रामनगर टाइप पते नहीं बसे हैं. जिस दौर में हिंदुत्व का सबसे अधिक शोर है उसमें से ऐसे नाम वाले पते शामिल नहीं हैं.