अकेले नहीं आते बाढ़ और अकाल

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आज से कोई सौ बरस पुरानी घटना है. वह घटना यदि घटी न होती तो शायद हम आज यहां एकत्र भी न हो पाते. सन 1910 का किस्सा है. राजेंद्र बाबू तब कलकत्ता में वकालत पढ़ रहे थे. यहां एक दिन उन्हें उस दौर के प्रसिद्ध बैरिस्टर परमेश्वर लाल ने बुलाया था. वे कुछ समय पहले ही गोखलेजी से मिले थे. बातचीत में गोखलेजी ने उनसे कहा था कि वे यहां के दो-चार होनहार छात्रों से मिलना चाहते हैं. परमेश्वर जी ने सहज ही राजेंद्र बाबू का नाम सुझा दिया था.

राजेंद्र बाबू गोखलेजी से मिलने गए, अपने एक मित्र श्रीकृष्ण प्रसाद के साथ. सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसायटी की स्थापना अभी कुछ ही दिन पहले हुई थी. गोखलेजी उस काम के लिए हर जगह कुछ अच्छे युवकों की तलाश में थे. उन्हें यह जानकारी परमेश्वरजी से मिल गई थी कि वे बड़े शानदार विद्यार्थी हैं. वकालत उन दिनों ऐसा पेशा था जो प्रतिष्ठा और पैसा एक साथ देने लगा था. इस धंधे में सरस्वती और लक्ष्मी जुड़वां बहनों की तरह आ मिलती थीं.

कोई डेढ़ घंटे चली इस पहली ही मुलाकात में राजेंद्र बाबू से श्री गोखले ने सारी बातों के बाद आखिर में कहा था, ‘हो सकता है तुम्हारी वकालत खूब चल निकले. बहुत रुपये तुम पैदा कर सको. बहुत आराम से ऐश-इशरत में दिन बिताओ. बड़ी कोठी, घोड़ा-गाड़ी इत्यादि दिखावट का सामान सब जुट जाए. और चूंकि तुम पढ़ने में अच्छे हो तो तुम पर यह दबाव और भी अधिक है.’

गोखलेजी थोड़ा रुक गए थे. कुछ क्षणों के उस सन्नाटे में भी राजेंद्र बाबू के मन में न जाने कितनी उथल पुथल मची होगी. वे फिर बोलने लगे ‘मेरे सामने भी यही सवाल आया था, ऐसी ही उमर में. मैं भी एक साधारण गरीब घर का बेटा था. घर के लोगों को मुझसे बहुत बड़ी-बड़ी उम्मीदें थीं. उन्हें लगता था कि मैं पढ़कर तैयार हो जाऊंगा, रुपये कमाऊंगा अौर सबको सुखी बना सकूंगा. पर मैंने उन सबकी आशाओं पर पानी फेरकर देशसेवा का व्रत ले लिया. मेरे भाई इतने दुखी हुए कि कुछ दिनों तक तो वे मुझसे बोले तक नहीं. हो सकता है यही सब तुम्हारे साथ भी हो. पर विश्वास रखना कि सब लोग अंत में तुम्हारी पूजा करने लगेंगे.’ श्री गोखले के मुख से मानों एक आकाशवाणी सी हुई थी.

बाद का किस्सा लंबा है. लंबी है राजेंद्र बाबू के मन में कई दिनों तक चले संघर्ष की कहानी औैर घर में मचे कोहराम की, रोने धोने की, बेटे के साधू बन जाने की आशंका की. यह घटना नहीं हुई होती तो आज आकाशवाणी के इस कार्यक्रम के निमित्त आदरणीय राजेंद्र प्रसाद जी की पावन स्मृति में उनको प्रणाम करने का सौभाग्य हमें नहीं मिल पाता.

इस किस्से से ऐसा न मान लें हम लोग कि वे अगले ही दिन अपना सब कुछ छोड़कर देशसेवा में उतर पड़े थे. श्री गोखले खुद बड़े उदार थे. उन्होंने उस दिन कहा था कि ‘ठीक इसी समय उत्तर देना जरूरी नहीं है. सवाल गहरा है. फिर भी एक बार और मिलेंगे, तब अपनी राय बताना.’

अगले दस बारह दिनों का वर्णन नहीं किया जा सकता. भाई साथ ही रहते थे. इनके व्यवहार में आ रहे बदलाव वे देख ही रहे थे. राजेंद्र बाबू ने कोर्ट जाना बंद कर दिया था. न ठीक से खाते पीते, न किसी से मिलते जुलते थे. फिर एक दिन हिम्मत जुटाई. एक पत्र, काफी बड़ा पत्र, भाई को लिखा और घर छोड़ने की आज्ञा मांगी. पत्र तो लिख दिया पर सीधे उन्हें देते नहीं बना. सो एक शाम जब भाई टहलने के लिए गए थे, तब उसे उनके बिस्तरे पर रख खुद भी बाहर टहलने चले गए.

भाई ने लौटकर पत्र देखा, और अब वे खुद राजेंद्र बाबू को तलाशने लगे. जब वे बाहर कहीं मिल गए तो भाई बुरी तरह से लिपटकर रोने लगे. राजेंद्र बाबू भी अपने को रोक नहीं पाए. दोनों फूट-फूट कर रोते रहे. ज्यादा बातचीत की हिम्मत नहीं थी फिर भी तय हुआ कि कलकत्ता से गांव जाना चाहिए. मां, चाची और बहन को सब बताना होगा.

राजेंद्र बाबू को अब लग गया था कि देश प्रेम और घर प्रेम में घर का वजन ज्यादा भारी पड़ रहा है. वे इतनी आसानी से इस प्रेम बंधन को काट नहीं पाएंगे. गोखलेजी अभी वहीं थे. राजेंद्र बाबू एक बार और उनसे भेंट करने गए. सारी परिस्थिति बताई. गोखलेजी ने भी उन्हें पाने की आशा छोड़ दी.

‘रेल लाइनों के कारण बाढ़ की भयंकरता बढ़ जाती है. मेरा यह दृढ विचार है कि रेलवे लाइन और दूसरी ऊंची-ऊंची सड़कें बाढ़ के प्रमुख कारण हैं’

गांव पहुंचने का किस्सा तो और भी विचित्र है. चारों तरफ रोना-धोना. बची खुची हिम्मत भी टूट गई थी. जैसे थे वैसे ही बन गए. फिर से लगा कि पुरानी जिंदगी पटरी पर वापस आने लगी है.

पर उस दिन जो आकाशवाणी हुई थी, वह झूठी कैसे पड़ती? यही वकालत उन्हें आने वाले दिनों में, पांच-छह बरस के बाद चंपारण ले गई. वहां उन पर, उनके जीवन पर नील का रंग चढ़ा. नील का रंग यानी गांधी जी के चंपारण आंदोलन का रंग. यह रंग इतना चोखा चढ़ा कि वह फिर कभी उतरा ही नहीं.

गांधी रंग में रंगे राजेंद्र बाबू फिर बिना किसी पद की इच्छा के देश भर घूमते रहे और सार्वजनिक जीवन के क्षेत्र में जितनी तरह की समस्याएं आती हैं उनके हल के लिए अपने पूरे मन के साथ तन अर्पित करते रहे और जहां जरूरत दिखी वहां धन भी जुटाते-बांटते रहे. उन समस्याओं की, उन विषयों की गिनती गिनाना कठिन काम है. आज तो हम दो विषयों पर, दो समस्याओं पर ही कुछ बातें करेंगे. ये हैं बाढ़ और अकाल. पानी के स्वभाव के ये दो छोर हैं. एक में, बाढ़ में चारों तरफ पानी ही पानी और दूसरे में हर कहीं पानी का अभाव ही अभाव. राजेंद्र बाबू ने इनमें से जो भी समस्या सामने आई, बाकी हाथ के कामों को गौण मानकर सबसे पहले इन्हीं पर ध्यान दिया. लेकिन इसके विस्तार में जाने से पहले हम जरा आज का संदर्भ भी दुहरा लें.

चुनाव के दिनों में हम देखते हैं किसी को किसी राजनीतिक दल ने अपना उम्मीदवार नहीं बनाया तो उसने गुस्से में आकर दल छोड़ दिया. किसी ने निराश होकर आत्महत्या कर ली तो किसी ने उस दल की ऐसी बखिया उधेड़ दी, इतने सारे दोष अवगुण गिना डाले कि सुनने पढ़ने वाले को अचरज होने लगे कि ये अब तक उस दमघोटू संसार में सांस कैसे ले रहे थे. इसके पीछे एक धारणा यह बन गई है कि मुझे कोई पद नहीं मिलेगा तो देश की सेवा कैसे हो पाएगी मुझसे.

इस विचित्र धारणा को पालने पोसने और आगे बढ़ाने में सारे दल उनके सदस्य धर्म, लिंग, जाति, अगड़े, पिछड़े सभी में गजब की सहमति दिखती है. ऐसे में हमें राजेंद्र बाबू के कुछ विचार आज एक फिर दुहरा लेने चाहिए.

यह प्रसंग आज से कोई 93 बरस पहले का है. नवंबर का महीना था. अवसर था कौंसिल और असेम्बली के चुनाव का. छोटी-छोटी बातों पर तब के बड़े-बड़े नामों तक में मतभेद ही नहीं, मनभेद के भी कड़वे किस्से सामने आने लगे थे. क्या ऐसी ही नींव पर, कमजोर नींव पर आजादी के बाद की दलगत राजनीति का महल नहीं बन रहा था.

राजेंद्र बाबू ने उस समय अपना मन मजबूत कर ‘देश’ नामक अखबार में एक लेख लिखा था. उन्हें उन्हीं के साथियों ने पसंद नहीं किया था. उन्हीं के शब्दों को यहां दुहरा लेना चाहिए ‘जब देश के स्थान पर हम किसी जाति विशेष अथवा धर्म विशेष अथवा दल विशेष को बिठाना चाहते हैं, तब इस तरह की लड़ाई हुए बिना नहीं रह सकती.’

‘देश सेवकों के लिए एक ही रास्ता है कि कम से कम तब तक जब तक देश पूर्णरूपेण स्वतंत्र नहीं हो जाता, वे किसी स्थान, पद अथवा प्रतिष्ठान के लिए लालायित न हों और केवल सेवा को ही ध्येय बनाकर काम करते जाएं.’

इस लेख में वे आगे लिखते हैं ‘मैं इसको प्रवंचना मात्र मानता हूं, जब कोई यह सोचता और कहता है कि सेवा करने के लिए उसे किसी पद विशेष की आवश्यकता है तथा उस पद के बिना वह सेवा नहीं ही कर सकता.’

इस ऐतिहासिक लेख के अंत में वे कहते हैं, ‘सेवक के लिए हमेशा जगह खाली पड़ी रहती है. उम्मीदवारों की भीड़ सेवा के लिए नहीं हुआ करती. भीड़ तो सेवा के फल के बंटवारे के लिए लगा करती है. जिसका ध्येय केवल सेवा है, सेवा का फल नहीं है, उसको इस धक्का-मुक्की में जाने की और इस होड़ में पड़ने की जरूरत नहीं है.’

जमीन पर यह सब हो रहा था और उधर आसमान से भी एक भयानक विपत्ति उतर आई थी. आश्विन के महीने में बिहार के छपरा जिले में एक दिन घोर बरसात हुई. चौबीस घंटों में लगभग छत्तीस इंच वर्षा हुई. नतीजा यह हुआ कि पूरा जिला भयानक बाढ़ में डूब गया. वहां के सरकारी कर्मचारियों ने लोगों की इस मुसीबत में बहुत उदासीनता और उपेक्षा का भाव दिखाया. तब आज की तरह ढेर सारे अखबार, दिन रात निरर्थक खबरें बहाने वाले ढेर सारे टेलीविजन चैनल तो थे नहीं, पर जो भी थोड़े से अखबार छपते थे, सभी ने यह बात लिखी कि जब लोग, घर, गांव, खेत, मवेशी पानी में डूब रहे थे, त्राहि-त्राहि पुकार रहे थे, ऐसे में कुछ अधिकारी कर्मचारी नावों में चढ़कर ‘झिरझिरी’ खेल रहे थे.

झिरझिरी एक तरह से लुकाछिपी का खेल होता है. डूबते लोगों को, यहां तक कि सि्त्रयों और बच्चों को भी बचाने में इन अधिकारियों ने कोई मदद नहीं की. लोग डूबते रहे, प्रशासन लुकाछिपी ही खेलता रहा. ऐसी भयंकर परिस्थिति में एक अंग्रेज न्यायाधीश और एक भारतीय उप न्यायाधीश ने खूब मदद की लोगों की. राजेंद्र बाबू जैसे शालीन व्यक्ति अपनी आत्मकथा में उस दिन का वर्णन करते हुए कहते हैं कि कलेक्टर और पुलिस के अफसर तथा डिप्टी मजिस्ट्रेट ‘टस से मस’ नहीं हुए. सरकार के ऐसे घृणित व्यवहार को लेकर अगले दिन बाढ़ के पानी के बीच ही छपरा में एक विशाल सार्वजनिक सभा हुई और उसमें सरकार की खुलेआम निंदा की गई और साथ ही मदद देने आगे आए लोगों की खूब प्रशंसा भी हुई और उनके प्रति कृतज्ञता भी प्रकट की गई थी.

देहातों का हाल तो और भी बुरा था. उन दिनों छपरा से मशरक तक जाने वाली रेल लाइन के कारण बाढ़ का सारा पानी आगे बहने के बदले एक बड़े भाग में फैल गया था और पीछे से आने वाली विशाल धारा उसका स्तर लगातार उठाते जा रही थी. लोगों को इससे बचने का एक ही रास्ता दिखा था रेलवे लाइन काट देना और चढ़ते पानी को आगे के भूभाग में फैलने देना ताकि यहां कुछ सांस ली जा सके. पर कलेक्टर ने उनकी एक न सुनी. और तो और ऐसी ही तबाही मचा रही अन्य रेलवे लाइनों पर सशस्त्र पहरा बिठा दिया गया था. सीवान के पास एक ऐसी ही जगह बहुत पानी जमा हो गया था. गांव वालों ने तब खुद ही रेल लाइन काटना तय कर लिया पर सामने सशस्त्र पुलिस देख उनकी हिम्मत न पड़ी.

राजेंद्र बाबू इसका वर्णन करते हुए लिखते हैं ‘कष्ट सहते गए लोग. पर जब वह बर्दाश्त से बाहर हो गया तो दो चार आदमी कंधे पर कुदाल रखकर पानी में तैरते हुए रेल लाइन की तरफ बढ़े. पुलिस ने उन्हे देखा और उनको धमकाया. उन्होंने जवाब दिया कि पानी में डूबकर तो हम मर ही रहे हैं और तुम लाइन काटने नहीं देते. अब तक हमने बर्दाश्त किया. अब और बर्दाश्त नहीं कर सकते. मरना तो दोनों हालातों में है डूब कर मरें या गोली खाकर मरें. हमने निश्चय कर लिया है कि गोली खाकर मरना बेहतर है. हम लाइन काटेंगे तुब गोली मारो.’

बहते पानी में यह बहादुर लोग तैरते हुए मजबूत बांध की तरह उठी उस रेल लाइन पर अपने दृढ़ निश्चय से कुदाल चलाते गए. पुलिस की हिम्मत नहीं हुई गोली चलाने की. लाइन अभी थोड़ी सी ही कट पाई थी कि पीछे भर रहे पानी की ताकत ने लोगों के संकल्प में साथ दिया और लाइन भड़ाक से टूटी और विशाल बाढ़ का पानी उसे किसी तिनके की तरह अपने साथ न जाने कहां बहा ले गया. पीछे के अनेक गांव पूरी तरह से डूबने से बच गए थे. बाद में पुलिसवालों ने भी रिपोर्ट में लिखा कि बाढ़ के पाने के दबाव से ही रेल लाइन कट गई थी.

इस सारी विपत्ति में राजेंद्र बाबू और वे जिस दल से जुड़े थे उसके अनगिनत कार्यकर्ताओं ने दिनभर काम किया था. छपरा की उस बाढ़ में किसी बड़े अधिकारी ने यहां तक कह दिया था कि ये सारी शिकायतें लेकर मेरे पास क्यों आए हो, जाओ जाओ गांधी के पास जाओ. और गांधी मतलब कांग्रेस के लोग, और उसमें भी राजेंद्र बाबू होता था.

इन सब दुखद प्रसंगों से राजेंद्र बाबू ने देखा था कि बाढ़ और साथ ही अकाल अकेले नहीं आते. इससे पहले समाज में और भी बहुत कुछ ऐसा होता है जो होना नहीं चाहिए. यह सब कभी धीरे-धीरे तो कभी बड़ी तेजी से होता है. गति जो भी हो, समाज के नीति निर्धारकों, संचालकों और नेतृत्व का ध्यान इन बातों की तरफ नहीं जा पाता और फिर बाढ़ या अकाल सामने आ खड़ा हो जाता है.

बुरे कामों की बाढ़ आ जाती है. बिना पानी का स्वभाव समझे ही विकास के नाम पर कई तरह के काम होते रहते हैं. यह किसी एक कालखंड की बात नहीं है. दुर्भाग्य से सब समय में ऐसी ही गलतियां दुहराई जाती रहती हैं. तो एक तरफ प्रकृति, पर्यावरण के खिलाफ ले जानेवाले कामों की बाढ़ आ जाती है तो दूसरी तरफ अच्छे कामों का अकाल पड़ने लगता है. अच्छे विचारों का अकाल पड़ने लगता है.

राजेंद्र बाबू के जमाने में उन इलाकों में अंग्रेजों की व्यापारिक नीतियों या कहें अनीतियों के कारण बड़ी तेजी से रेल की लाइनें बिछाई गई थीं. रेल लाइन उनके व्यापार और शासन के लिए भी बड़ी खास चीज बन गई थी. इसलिए उसे आसपास की जमीन से ऊंचा उठाकर रखना जरूरी था. आज लोग इस बात को भूल चुके हैं कि कभी हमारे देश में फैल रहा रेल व्यवस्था का यह जाल अंग्रेज सरकार के हाथों में नहीं था. वह कुछ निजी अंग्रेजी कंपनियों की जेब में था.

खुद राजेंद्र बाबू अपनी आत्मकथा में इस दुखद प्रसंग में लिखते हैं, ‘रेल लाइनों के कारण बाढ़ की भयंकरता बढ़ जाती है. अपने सूबे में पिछले तीस बरसों में जितनी बड़ी और भयंकर बाढ़ें आईं हैं सबका मुझे काफी अनुभव है. मेरा यह दृढ़ विचार है कि रेलवे लाइन और डिस्ट्रिक बोर्ड की तथा दूसरी ऊंची सड़कें बाढ़ के प्रमुख कारण हैं. यदि इनमें जगह-जगह काफी संख्या में चौड़े पुल बने रहते तो हालत ऐसी न होती… पर यहां तो रेल की कंपनियों के मुनाफे पर ही अधिक ध्यान रखा जाता है. उनको पुल बनवाने के लिए मजबूर नहीं किया जाता, लाइन काटना तो दूर की बात है… बीएडब्ल्यू रेलवे ने इस मामले में बहुत कंजूसपन दिखलाया है. यद्यपि अब उसमें कई जगह पुल बने हैं. तथापि अब भी बहुत से ऐसे स्थान है, जहां पुल की जरूरत है. उसने जो पुल बनवाए हैं, वे जनता के कष्ट दूर करने के ख्याल से नहीं, अपने मुनाफे के ख्याल से, क्योंकि जब तक केवल जनता के कष्ट की बात रही, एक न सुनी गई, पर जब प्रकृति ने लाइन को इस तरह तोड़ा कि महीनों रेल चलनी बंद हो गई तो उसने मजबूरन कई पुल बनवा दिए.’

कहीं कम कहीं ज्यादा, वर्षा हर जगह होती है, विभिन्न जगहों में रहने वाले समाज ने अपने वर्षों के अनुभव से इसके साथ अपना तालमेल बिठा लिया था

सन 1937 तक आते-आते तो उस बड़े भूभाग की हालत ऐसी हो गई थी कि बिहार के राज्यपाल ने उस वर्ष बाढ़ की समस्या को लेकर एक बड़ा सम्मेलन पटना में बुलाया था. इसमे राजेंद्र बाबू को भी भाग लेने का निमंत्रण भेजा गया था. खुद राज्यपाल ने अपने मुख्य भाषण में बाढ़ के आने के जो कई कारण बताए जाते हैं, प्रकृति के विरुद्ध जाने के जो अनेक बुरे काम किए जाते हैं, उन सबका वर्णन करते हुए श्रोताओं से माफी तक मांगी थी कि उनके भाषण का एक बड़ा भाग सकात्मक होने के बदले काफी कुछ नकारात्मक सा हो गया था.

राजेंद्र बाबू अचानक अस्वस्थ हो गए थे. वे उस सम्मेलन में भाग नहीं ले पाए थे, लेकिन उन्होंने इस विषय पर एक बड़ी टिप्पणी लिखकर भेजी थी. सम्मेलन में इसे उस दिन श्री अनुग्रह नारायण सिन्हाजी ने पढ़कर सुनाया था.

वर्षा तो हर साल होती ही है पूरे देश में. कहीं कम कहीं ज्यादा, कहीं बहुत ज्यादा भी पर इन विभिन्न जगहों में रहने वाले समाज ने अपने वर्षों के अनुभव से इस कम ज्यादा वर्षा के साथ अपना जीवन कैसे ढालना है- यह ठीक से सीख लिया था.

एक तरफ तो है जैसलमेर, जहां वर्षा का आंकड़ा इंचों में बात करें तो वर्षभर में मात्र 6 इंच से ऊपर नहीं जाता, तो दूसरी तरफ हमने देखा कि बिहार के छपरा में मात्र एक दिन में 36 इंच वर्षा हो गई थी. फिर उत्तर पूर्व में हमारे एक प्रदेश का तो नाम ही मेघों का घर रखा गया है. इन सभी जगह के समाजों ने पीढ़ियों के अनुभव से अपने आसपास के मौसम, धरती, हवा, पेड़-पौधे और वहां के पशुओं के साथ आत्मीय संबंध बना लिए थे.

आज हम देखते हैं कि जलनीतियां बनाई जाने लगी हैं. पहले ऐसा नहीं होता था. समाज अपना एक जलदर्शन बनाता था और उसे कागज पर न छापकर लोगों के मन में उकेर देता था. समाज के सदस्य उसे अपने जीवन की रीत बना लेते थे. फिर यह रीत आसानी से टूटती नहीं थी. जलनीतियां आती जाती सरकारों के साथ बनती बिगड़ती रहती हैं पर जलदर्शन बदलता नहीं. इसी रीत से उस क्षेत्र विशेष की फसलें किसान समाज तय कर लेता था. सिंचाई के लिए अपने साधन जुटा लेता था.

अभी हमने जैसा बिहार के संदर्भ में देखा कि अंग्रेजों ने बिना उस इलाके को समझे रेल की पटरियां खूब ऊंची उठाकर बिछा दीं और गंगा और अन्य नदियों के विशाल मैदान को जगह-जगह रोक लिया. उस बड़े भूभाग में पानी की बेरोकटोक आवक जावक के लिए उसने समुचित प्रबंध भी नहीं सोचा, उसे करने की बात तो कौन कहे. रेल लाइन में कितने अंतर पर बड़ी-बड़ी पुलिया बननी चाहिए इस पर उसने ध्यान नहीं दिया, कम खर्च में ज्यादा मुनाफा खींच लेने का काम किया और बाद में पता चला कि यह तो उनकी अपनी भाषा अंग्रेजी की कहावत की तरह परिणाम दे रहा है. कहावत है ‘पैनी वाईज, पाउंड फुलिश.’ पैसा बचाने में होशियारी की, रुपया गंवा बैठे.

जब अंग्रेज हमारे यहां आए थे तो हमारे देश में कोई सिंचाई विभाग नहीं था. कोई इंजीनियर नहीं था, इंजीनियरिंग की पढ़ाई नहीं थी, वैसी शिक्षा देने वाला कोई विद्यालय, महाविद्यालय तक नहीं था. सिंचाई की शिक्षा नहीं थी पर सिंचाई का शिक्षण हर जगह था और समाज उस शिक्षण को अपने मन में संजोकर रखता था और उस शिक्षण को अपनी जमीन पर उतारता था. जब अंग्रेज यहां आए थे- एक बार फिर दुहरा लें तब हमारे यहां एक भी सिविल इंजीनियर नहीं था पर सचमुच कश्मीर से कन्याकुमारी तक, पश्चिम से पूरब तक कोई 25 लाख छोटे-बड़े तालाब थे. इनमें से भी ज्यादा संख्या में जमीन का स्वभाव देखकर अनगिनत कुएं बनाए गए थे. वर्षा का पानी तालाबों में कैसे आएगा, किस तरह के क्षेत्र से, यहां वहां से बहता आएगा. उसका आगौर अनुभवी आंखों से नाम लिया जाता था. फिर यह पानी साल भर कैसे पीने का पानी जुटाएगा और किस तरह की फसलों को जीवन देगा. इस सबकी बारीक योजना कहीं सैकड़ों मील दूर बैठे लोग नहीं बनाते थे, वहीं बसे लोग उस क्षेत्र में अपना बसना सार्थक करते थे. यह परंपरा आज भी पूरी तरह से टूटी नहीं है, हां उसकी प्रतिष्ठा जरूर गिर गई है, नए पढ़े लिखे समाज के मन में. पर हमारे इस पढ़े लिखे समाज को आज यह जानकर अचरज होगा कि हमारे देश की तकनीकी शिक्षा, सिविल इंजीनियरिंग की सारी आधुनिक शिक्षा की नींव में ये अनपढ़ माना गया, अनपढ़ बता दिया गया समाज ही प्रमुख था. आज बहुत कम लोग यह बता पाएंगे कि हमारे देश में पहला इंजीनियरिंग काॅलेज कहां और कब खुला था. इसे संक्षेप में दुहरा लेना चाहिए.

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