‘भारत को भारत रहने दीजिए, यह आर्यावर्त नहीं होने वाला’

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कुछ लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि महिषासुर के प्रतीक को खड़ा करके हम मिथकीय नायकत्व की परंपरा को खत्म करने के बजाय मिथकीय परंपरा को ही आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं. ब्राह्मणवादी मॉडल खारिज करने के बजाय अपने तरीके का नया ब्राह्मणवादी मॉडल खड़ा कर रहे हैं. ये तो अजीब सवाल उठाए जा रहे हैं, अजीब बात की जा रही है. अगर कोई साहित्य के जरिए वर्चस्ववादी रास्ता अपनाएगा तो उसका मुकाबला वैकल्पिक साहित्य को खड़ा करके ही दिया जा सकता है. अगर कोई आर्थिक आधार पर वर्चस्ववादी परंपरा को बढ़ाएगा तो फिर उसकी काट वैकल्पिक आर्थिक मॉडल में ही होगी. उसी तरह पौराणिकता के आधार पर कोई वर्चस्ववादी रवैया दिखाएगा, उस परंपरा को बढ़ाना चाहेगा तो फिर उसके लिए पुराणों के पन्नों से ही वैकल्पिक नायकों की तलाश करके उनके नायकत्व को उभारना होगा. आज शोर है कि महिषासुर के नायकत्व को उभारकर राष्ट्रद्रोही काम हो रहा है. दुर्गा की बात करेंगे, काली की बात करेंगे तो महिषासुर की बात होगी ही.

महिषासुर की बात करना अजीब लग रहा है, राष्ट्रद्रोही कृत्य लग रहा है लेकिन कोई पूछे कि भारत माता की जय कौन लोग बोलते हैं. भारत माता कैसे हो गई? भारत का नाम तो शकुंतला और दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम पर पड़ा था. एक राजकुमार के नाम पर जिस देश का नाम भारत पड़ा, वह भारत माता कब और कैसे बन गया? और भारत माता की तस्वीर तो देखिए. बाघ पर सवार या बाघ के छाले के साथ. इसमें ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं. जो अय्याशी के साथ शिकार करते थे, घरों में छाले लगाते थे, उन्हीं के खुराफाती मगज की उपज रही होगी भारत माता. अब बताइए कि भारत माता जैसा मिथ गढ़कर कौन उसे आगे बढ़ा रहा है. एक समाज नए मिथ गढ़े, पुराने मिथों को पीढ़ी दर पीढ़ी स्थापित करे तो ठीक, लेकिन दूसरा वंचित समुदाय अगर उसके प्रतिकार में वैकल्पिक तौर पर उसी फ्रंट पर जाकर मिथ से ही अपने नायक को निकाल ले, उसके नायकत्व का उभार करे तो बुरा, राष्ट्रद्रोही! यह कैसी बात है?

आज महिषासुर पर जो लोग शोर मचा रहे हैं उन्हें थोड़ी जानकारी इतिहास की भी होनी चाहिए. यह पहली बार नहीं हो रहा. इसमें कोई नयापन नहीं है. महिषासुर के नायकत्व को मानें तो फिर भी महोबा जैसी जगह पर मंदिर है, जिसका संरक्षण भारत सरकार ही वर्षों से कर रही है. महिषासुर प्रसंग को छोडि़ए, इतिहास के पन्ने को जरा पलटकर देखिए, चीजें साफ होंगी, नजरिया बदलेगा.

वाल्मीकि रामायण में एक प्रसंग है. राम कहते हैं कि तुम्हें स्त्रीत्व की परीक्षा देनी होगी. सीता कहती हैं कि स्त्रीत्व तो विवाह के समय ही लड़की पति को सौंप देती है. अब तुम उस स्त्रीत्व या पत्नीत्व की रक्षा नहीं कर पाए तो इसमें मेरा क्या दोष? अब जैसे-जैसे महिलाओं में जागरूकता आएगी इस वाल्मीकि रामायण का संपूर्ण पाठ होगा, इस बिंदु पर भी बात होगी.

1890 के करीब की बात होगी. राष्ट्रीय आंदोलन का दौर था. सभी लोग अपने तरीके से राष्ट्रीय आंदोलन को आगे बढ़ाने की कोशिश में लगे हुए थे. उसी समय  बाल गंगाधर तिलक ने महाराष्ट्र में गणेश महोत्सव की परंपरा की शुरुआत की. फुले उस समय थे. फुले ने तुरंत कहा कि गणेश महोत्सव शुरू हुआ है तो बली राजा महोत्सव भी शुरू किया जाए. ऐसा हमेशा होता रहा है. जैसे-जैसे वंचित तबकों में, दलितों में, महिलाओं में चेतना आएगी, वे अपने हिसाब से प्रतिकार करेंगे या वैकल्पिक तरीके से अपनी परंपरा की शुरुआत करेंगे. राम की बात होगी तो दलितों में चेतना आने पर वे शंबूक को भी जानेंगे ही, शंबुक के व्यक्तित्व पर बात होगी ही. स्त्रियों में चेतना आने पर सीता पर बात होगी ही और फिर यह भी बात होगी कि आखिर क्या कसूर था शंबूक का कि उसके कान में सीसा डाल दिया गया था या कि क्या गलती की थी सीता की, जिसे त्याग दिया गया था. एकतरफा पाठ तो होगा नहीं. अर्जुन की बात करेंगे, अर्जुन को महिमामंडित करेंगे तो एक वर्ग एकलव्य को अपने तरीके से स्थापित करेगा ही. इसलिए यह आरोप न लगाएं कि कोई नई जमात अपने तरीके से चीजों को तोड़-मरोड़कर मिथ की दुनिया को बढ़ा रही है. मिथ को आधार बनाकर वर्षों, पीढि़यों से बात करने वाले दूसरे लोग रहे हैं जो आज भी मिथ के जरिए ही सब कुछ चलाना चाहते हैं लेकिन इसमें भी उनकी शर्त यह है मिथ भी उनका हो, उनके अनुसार हो.

किसी बात की एकांगी व्याख्या क्यों नहीं हो सकती, इसके लिए एक उदाहरण देता हूं. वाल्मीकि रामायण में एक प्रसंग है. राम कहते हैं कि तुम्हें स्त्रीत्व की परीक्षा देनी होगी. सीता कहती हैं कि स्त्रीत्व तो विवाह के समय ही लड़की पति को सौंप देती है. अब तुम उस स्त्रीत्व या पत्नीत्व की रक्षा नहीं कर पाए तो इसमें मेरा क्या दोष? अब जैसे-जैसे महिलाओं में जागरूकता आएगी इस वाल्मीकि रामायण का संपूर्ण पाठ होगा, इस बिंदु पर भी बात होगी. आप छोडि़ए पुराणों की बात. धूमिल जैसे कालजयी कवि को तो जानते ही होंगे. उन्होंने कविता लिखी थी, जिसमें एक पंक्ति थी- ‘जिसकी उठाई पूंछ, वही मादा निकला.’ धूमिल क्रांतिकारी कवि माने जाते थे, प्रगतिशील भी. बहुत दिनों तक इस पंक्ति का इस्तेमाल होता रहा लेकिन जैसे ही स्त्री चेतना का विकास हुआ, स्त्रियों ने सवाल उठाए कि क्या मादा होना गुनाह है. इस पंक्ति का इस्तेमाल बंद हो गया. यह हर कालखंड में होता रहा है. जो चीजें छूट जाती हैं या जिन पर ध्यान नहीं दिया जाता है, उस पर नए सिरे से बात होती ही है. मैथिलीशरण गुप्त ने उर्मिला और यशोधरा पर लिखा क्योंकि इन दो विरली नायिकाओं पर बात ही नहीं हुई थी. रामधारी सिंह दिनकर ने कर्ण पर लिखा.

मैं व्यक्तिगत तौर पर मानता हूं कि महिषासुर महोत्सव या महिषासुर के उभार को स्मृति ईरानी के नजरिये से समझने की जरूरत नहीं. स्मृति ने संसद में जिस तरह से गैर-संसदीय भाषा का इस्तेमाल किया या फिर उन्होंने जो व्यवहार किया, इसे उनके लोगों को ही देखने-समझने की जरूरत है. जो लोग स्मृति के भाषण और व्यवहार पर इतरा रहे हैं, उन्हें यह समझने की जरूरत है कि यह जो भारत है उसे अब आर्यावर्त नहीं बनाया जा सकता. सिर्फ आर्यों का भारत नहीं बनाया जा सकता. यह भारत एक दिन में नहीं बना. यह कई परंपराओं, कई रिवाजों, कई किस्म के नायकों से बना है. रवींद्रनाथ टैगोर जो कहते थे न कि भारत में शक, हूण, आर्य, अनार्य सब एक देह में मिल गए हैं, उस नजरिये से भारत को देखना होगा. महिषासुर पर बात पर बवाल खड़ा करने से नहीं होगा. जो लोग दुर्गा या काली को नायिका मान रहे हैं और महिषासुर को खलनायक, उन्हें यह जानना चाहिए दुर्गा-काली और महिषासुर एक ही समूह के थे. एक ही विरादरी के. काली की जो मशहूर तस्वीर है, जिसमें वे मुंडों की माला पहने हुई हैं और शंकर की देह पर पैर रखकर सवार हैं, जीभ निकाली हुई हैं, वह तस्वीर क्या है? जब काली लगातार असुरों-दैत्यों को मारने लगीं तो शंकर परेशान हो गए, क्योंकि शंकर असुरों-दैत्यों के आराध्य थे. काली के भी आराध्य. इसलिए वे रास्ते में लेट गए. काली उन पर चढ़ गई तो शर्म से, आश्चर्य से उन्होंने जीभ निकाल लिया. दुर्गा-काली के मिथ की पड़ताल करें महिषासुर का विरोध करने वाले, खलनायक बताने वाले मिथकों के आधार पर दुर्गा-काली भी उसी समूह की निकलेंगी.

भारत को इन विवादों से निकलकर आगे की चुनौतियों की ओर ध्यान देना चाहिए. यह नॉलेज सेंट्रिक एरा है, मतलब ज्ञान आधारित युग. जिसके पास ज्ञान होगा, वही आगे बढ़ेगा. भारत को ज्ञान की दुनिया में कदमताल करना चाहिए. भारत अब तक औद्योगिक क्रांति का हिस्सा नहीं बन सका, अपने देश में नहीं करवा सका. उससे चूक गया तो कम से कम इस ज्ञानक्रांति के दौर में नहीं चूके. इसके लिए जरूरी होगा कि जड़ता से निकले. इसे भाजपा और आरएसएस के लोगों को समझना होगा. नित नए मिथ को उभारने, उछालने से काम नहीं होगा. सिर्फ भाजपा-आरएसएस को नहीं, कांग्रेस जिसने सबसे लंबे समय तक देश पर राज किया है, जो आज भी अखिल भारतीय पार्टी है, उसे भी समझना होगा. कांग्रेस आज वैचारिक रूप से दरिद्र हो चुकी पार्टी है. उसे वैचारिकता के धरातल पर आना होगा. और जो सामाजिक न्याय की पार्टियां हैं, उन्हें भी देश के बारे में सोचना होगा. सिर्फ जाति के खोल में सामाजिक न्याय का जो सपना दिखा रही हैं सामाजिक न्याय की पार्टियां, उससे निकलना होगा. सामाजिक न्याय की पार्टियों को भी अपनी भाषा बदलनी होगी. अपने संकीर्ण दायरे से निकल देश को बनाने के बारे में सोचना होगा.    

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

(निराला से बातचीत पर आधारित)