नया सफरः शुरू के दिन

लगभग ग्यारह महीने हुए, राज्यसभा का सदस्य बने. लगातार मन में यह सवाल उठता रहा है कि यह अनुभव कैसा है? हालांकि यह शुरूआत के ही दिन हैं. दिसंबर, 2014 के अंत तक दिल्ली में घर नहीं मिला या छोटा आफिस नहीं बना सका था. बिना आफिस बने एक सार्थक भूूमिका (बतौर एम.पी) संभव नहीं. प्रक्रिया ही ऐसी है. अप्रैल 10, 2014 से राज्यसभा सदस्य के तौर पर कार्यकाल की शुरूआत हुई. जून में शपथ ली. एक महीने का बजट सत्र था. उसमें शरीक रहा. फिर शीतकालीन सत्र में. इस सत्र में थोड़ा अनुपस्थित रहना पड़ा. राजनीतिक काम, अस्वस्थता व झारखंड चुनाव के कारण. कुछेक पार्लियामेंट्री कमेटी की बैठकों में शरीक हुआ. इस पद पर जाने का प्रस्ताव अचानक आया. वह रात अब भी जेहन या स्मृति में हैं. तब पिछले कुछेक महीनों से रात दस से साढ़े दस के बीच खाना खाकर सोने का क्रम चल रहा था. पर उस दिन किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर एक टीवी आयोजन की परिचर्चा में भाग लेना था. टीवी चैनल के लोग अपना ओवी वैन लेकर घर आये थे. इस डिबेट के कारण सोने में सोने में देर हुई. लगभग ग्यारह बजे रात में फोन आया कि आपको राज्यसभा जाना है. अगले दिन शाम में इसकी घोषणा हुई. पहली प्रतिक्रिया एक किस्म की आनंद की, खुशी की थी. क्योंकि इस व्यवस्था में राज्यसभा, लोकसभा जाना एक बड़ी उपलब्धि मानी जाती है. इसके पहले 1991 में जब चंद्रशेखर जी प्रधानमंत्री थे, तब उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय में, प्रधानमंत्री के अतिरिक्त सूचना सलाहकार, संयुक्त सचिव भारत सरकार के रूप में, इसी तरह अचानक बुलाया. जब तक वह सरकार में रहे, रहा. जिस दिन उन्होंने इस्तीफा दिया, उसी दिन प्रधानमंत्री कार्यालय के रिसेप्शन पर इस्तीफा, गाड़ी, घर की चाबी, सबको छोड़ कर रांची लौट आया था.

उस वक्त भी पहली बार खबर पाकर एक उल्लास हुआ था कि व्यवस्था की अंदरूनी दुनिया देखने का अवसर मिलेगा. तब युवा था. उत्सुकता थी कि देखूं कि सरकार चलती कैसे है? सही भूमिका की कितनी गुंजाइश है? इससे अधिक न तब कोई कामना थी, न अब कोई कामना है. यह व्यवस्था अंदर से कैसे चलती है? इसके महत्व क्या हैं? इसी क्रम में राज्यसभा जाने का यह अवसर आया. याद आया कि प्रभात खबर में आना एक बदलाव का प्रतीक था, निजी जीवन में. कोलकाता में आनंद बाजार पत्रिका (रविवार) और मुंबई, टाइम्स आफ इंडिया समूह के धर्मयुग में काम करने के बाद. यानी दो सबसे बड़े अखबार घरानों के दो सबसे महत्वपूर्ण हिंदी प्रकाशनों में काम करने के बाद एक बंद प्रायः अखबार प्रभात खबर में आना. उसको खड़ा करनेवाली टीम के सदस्य के रूप में होना. पिछले 25 वर्षों तक इससे जुड़े रहने के बाद एक ठहराव का एहसास होना. उस दौर या मनःस्थिति में राज्यसभा जाने का यह प्रस्ताव, निजी जीवन में एक बदलाव का प्रतीक लगा. यह बदलाव कैसा रहेगा? पिछले कुछेक महीनों से यह सवाल मन में उठता रहा है? अंर्तद्वंद के रूप में यह सवाल उठता रहा कि क्यों इस पद के लिए लोग 100-200 करोड़ रुपये खर्च करते हैं?

राज्यसभा में किस प्रभाव के लोग पहुंचते हैं, इसकी चर्चा पढ़ी थी. आज केंद्र में जो रक्षा राज्यमंत्री हैं, वीरेंद्र सिंह. वह हरियाणा की राजनीति में असरदार व्यक्ति रहे हैं. लंबे समय तक कांग्रेस में रहे. कद्दावर व्यक्ति. कांग्रेस छोड़ने से पहले उनका बयान आया कि सौ करोड़ में हमारे यहां से लोग राज्यसभा जा रहे हैं. कुछ ही महीनों पहले एच.डी.कुमार स्वामी, जो कर्नाटक में मुख्यमंत्री रहे, उनका एक टेपरिकार्डेड बयान, देश के सारे अखबारों की सुर्खियों में रहा. उन्होंने अपने यहां एमएलसी के एक व्यक्ति को टिकट देने के लिए पांच करोड़ रुपये की मांग की. जब यह खबर सार्वजनिक हुई, तब उन्होंने कहा कि हां, पार्टी के लिए हमलोगों ने चंदा मांगा.

यह पद पा लेने के बाद अनुभव करता हूं कि एक नया सांसद, अगर वह समृद्ध पृष्ठभूमि से नहीं आता, अगर उसके पास अपना कोई व्यवसाय नहीं, बड़ी पूंजी की आमद नहीं है, उसके घर से कोई सपोर्ट नहीं है, तो वह दिल्ली में मंहगी गाडि़यां कैसे रख सकता है और उसका रखरखाव कर सकता है? यही नहीं अपने क्षेत्र में मंहगी गाडि़यां रखने के साथ-साथ, अन्य चार-पांच न्यूनतम गाडि़यां लेकर वह कैसे चलता है? मैं एक नये सांसद की बात कर रहा हूं. पिछले 10-11 महीनों से मेरे मन में एक सवाल बार-बार उठ रहा है कि अगर मैं प्रभात खबर से जुड़ा नहीं होता, तो एक सांसद के रूप में जो चीजें मुझे उपलब्ध हैं, उसकी बदौलत एक गाड़ी से अधिक मेनेटेन करना असंभव है. गाडि़यों का काफिला लेकर चलने की बात दूर छोड़ दें. इस पृष्ठभूमि में मैं कई राजनेताओं को देखता हूूं. वे एक-दो टर्म ही विधायक या सांसद रहे, पर खुद मंहगी गाडि़यों पर चढ़ते ही हैं, उनके आगे-पीछे कई गाडि़यां चलती हैं. सांसद हैं, तो दिल्ली में गाड़ी रखते हैं. जिस राज्य से सांसद हैं, उस राज्य की राजधानी में रखते हैं. फिर अपने क्षेत्र में रखते हैं. यह कैसे संभव है? स्पष्ट नहीं होता. सांसद बना. फिर लोकसभा चुनाव आ गये. इसमें व्यस्त रहने के कारण तत्काल शपथ नहीं ली. बाकी लोगों में शपथ लेने की जल्दी थी, ताकि सांसद के रूप में मिलनेवाली सुविधाएं शुरू हो जायें. विलंब से, जब पहले दिन संसद पहुंचा, तो एक अजीब अनुभव हुआ. वह स्मृति में है. सांसदों को सेक्रेट्रियट काम के लिए भत्ता रूप में लगभग 30 हजार रुपये मिलते हैं. यह तब मिलता है, जब आप अपने सहायक के नाम दे दें. चूंकि सांसद के रूप में मैं दिल्ली गया था, मेरा कोई ठौर-ठिकाना नहीं था. मेरा कोई सहायक नहीं था, इसलिए मैं किसी का नाम नहीं दिया. मुझे पता चला कि नहीं यहां अपने घर के परिचित लोगों के, सगे-संबंधियों के नाम दें दे, ताकि यह भत्ता प्रतिमाह मिलने लगे. मैंने मना कर दिया. मैंने कहा कि जब तब ऐसे लोग मेरे साथ कामकाज के तौर पर नहीं जुड़ जाते, दिल्ली में घर नहीं मिल जाता, मैं ऐसे लोगों को रख नहीं लेता, तब तक मैं कुछ नहीं लूंगा. मुझे पता चला कि आमतौर से कुछ लोग ऐसे ही लेते हैं. तब मुझे याद आया, लगभग वर्ष भर पहले इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर कि कैसे लगभग एक वर्ष पहले तक कुछेक सांसद अपने बेटे, बेटी या सगे-संबंधियों के नाम अपने सहायक के रूप में दे देते थे.

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