अफीम की घुट्टी है राष्ट्रवाद

UP Dalit by Shailendra Pandey P (39) web

भाजपा सरकार एक तरफ आंबेडकर को अपना नायक बताने की कोशिश करती है और दूसरी तरफ दलित बुद्धिजीवियों समेत दलित समुदाय पर हमले भी कर रही है. बात एकदम साफ है. आंबेडकर का एक तरह से एप्रोप्रिएशन यानी अपनाने की प्रक्रिया तो बहुत पुरानी स्थिति है. यह एक ऐतिहासिक तथ्य है. पहले भी यह कहा जाता था कि ये तो प्रात: स्मरणीय हैं. इनकी फोटो लगानी चाहिए, लेकिन आप देखेंगे कि वह सब 92 के बाद शुरू होता है. जब यह देखने में आया कि बहुजन समाज पार्टी अब उठान पर है, दलित समाज में आत्मनिर्भर राजनीति की तरफ रुझान है तो यह हुआ कि अब किसी तरह से इस समुदाय को रोका जाए. उसको रोकने के लिए इन्होंने, जो गैर-जाटव था, गैर-चमार था, उसे रोकने का प्रयास किया. जो छोटी-छोटी जातियां थीं, जैसे धोबी था, वाल्मीकि है, पासी है, कोरी है, उन सबको कोआॅप्ट करना शुरू किया. लेकिन वास्तविकता तो यही है कि उनके नायक बाबा साहब आंबेडकर की फोटो को अंगीकार कर सकते हैं, लेकिन उनकी विचारधारा को अंगीकार नहीं कर सकते. क्योंकि उनकी विचारधारा हिंदू सामाजिक व्यवस्था पर बहुत बड़ा प्रहार करती है और इसकी जो श्रेणीबद्ध और असमानता वाली संरचनाएं हैं, उनका रहस्योद्घाटन करती हैं, उनका पर्दाफाश करती हैं कि दलितों की आज जो स्थिति है वह दरअसल धर्मग्रंथों और ब्राह्मणवाद के कारण है. क्या यह भाजपा या आरएसएस को स्वीकार्य होगा? हमें नहीं लगता कि स्वीकार्य होगा. अगर स्वीकार्य नहीं है तो सिर्फ अंगीकरण तो हो ही नहीं सकता. मुझे लगता है कि जो छद्मवाद था कि केवल और केवल फोटो लगाकर उन्हें कोआॅप्ट किया जाए, उनका स्मारक बना दिया जाए, उन पर अंक निकाला जाए, उनका बंगला खरीद लिया जाए, लंदन में उनकी मूर्ति लगा दी जाए, हिंदू मिल की जमीन उनको दे दी जाए, तो ये जो भौतिक प्रतीक के रूप में उनको अंगीकार करना है. वास्तविकता में इससे बाबा साहब अांबेडकर की फोटो का जो अंगीकार है उसका अर्थ दलित जनों को अंगीकार करना नहीं है. यह भी देखा जा सकता है कि बाबा साहब अांबेडकर की फोटो का तो आपने कोआॅप्शन किया ही किया बाद में कुछ दलित लीडरों को भी अपने साथ कर लिया. रामदास अठावले, रामविलास पासवान, उदित राज उर्फ रामराज… तो ये लोग ऐसे लीडर हैं जिनके पास कोई जनाधार अब नहीं बचा था. इसे बिहार चुनाव में देखा जा सकता है, जहां रामविलास पासवान कितनी बुरी तरह परास्त होते हैं. मांझी को कोआॅप्ट कर लेते हैं आप, लेकिन मांझी भी शिथिल हो जाते हैं. तो ये सब यह बताता है कि बाबा साहब की फोटो और दलित नेताओं को अंगीकार करने से यह जरूरी नहीं है कि दलितों का भी अंगीकार हो सके. ये अलग-अलग बातें हैं.

पिछली कांग्रेस की सरकार में छह ऐसे दलित थे, जो राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता के सीधे भागीदार थे. स्पीकर थीं मैडम मीरा कुमार, वे दलित थीं. गृहमंत्री जो थे, वे दलित थे, पहली सांस्कृतिक मंत्री जो थीं, वे भी दलित थीं और सशक्तीकरण एवं न्याय मंत्री तो दलित होता ही होता है. खड़गे रेलवे मंत्री थे. इसके साथ ही पीएल पुनिया को भी मंत्री बनाया गया था. तो छह-सात लोग दलित वर्ग से दिखाई पड़ते थे. आज अगर भारतीय जनता पार्टी की सरकार में देखें तो 10 मंत्री ब्राह्मण हैं. एक मंत्री है जो दलित है.. मैं कैबिनेट मंत्री की बात कर रहा हूं. पार्लियामेंट्री बोर्ड में 12 सदस्य हैं जिनमें से 7 ब्राह्मण हैं और बाकी एक सदस्य ही दलित है. लेकिन न उसमें आदिवासी है, न ही महिला है. तो इस तरह यह साफ दिखाई दे रहा है कि बाबा साहब की फोटो और दलित नेताओं के कोआॅप्शन का यह मतलब नहीं है कि दलितों को प्रतिनिधित्व भी मिलेगा. अगर प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा तो सत्ता में भागीदारी कैसे करेंगे?

जब आप राष्ट्रवाद पर बहस करेंगे तो जनसामान्य के मुद्दे गौण हो जाएंगे. भूख, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, किसानों की आत्महत्या, दलितों का शोषण, जातीय शोषण, धार्मिक शोषण, ये सब का सब गौण हो जाएगा. तो जब इनके मुद्दे पर कोई बात नहीं करेगा तो कीमत तो यही लोग चुकाएंगे. राष्ट्रवाद की बनावट में यह है, कि वह शोषण और शोषित, दोनों को नहीं देखती. यह अफीम की घुट्टी होती है.

वे किसी तरह की डिबेट नहीं चाहते. ग्वालियर में ‘बाबा साहब के सपनों का भारत’ विषय पर बहस थी, जिस कार्यक्रम में मैं भी था. आंबेडकर विचार मंच ने कार्यक्रम रखा था. दलित श्रोता थे, दलित वक्ता और दलित मंच. अब इसके विरोध में आप हिंसात्मक प्रदर्शन करें, तो यह तो कोई बात नहीं हुई. अंदर घुसने से मना करने पर उन्होंने गोली चलाई

जिन प्रोफेसरों पर हमला हुआ, वे सब चर्चा करते हैं और तथ्यात्मक चर्चा करते हैं. लेकिन आपके राष्ट्रवाद में जो छद्म है, उसमें झंडा, जमीन और जवान, ये तो दिखाई पड़ रहा है, लेकिन आप लोगों की बात नहीं कर रहे हो. लोगों की बात जब आप नहीं करते तो आप बड़ी सतही जमीन पर टिके हैं, इसलिए ये लोग वाद-विवाद या चर्चा नहीं चाहते, ये सीधे मारकर हटा देना चाहते हैं. यह इनका तरीका है कि जब हिंसक होकर आप आएंगे तो फिर कौन डिबेट करेगा आपसे. वे डिबेट नहीं चाहते. ग्वालियर में ‘बाबा साहब के सपनों का भारत’ विषय पर बहस थी, जिस कार्यक्रम में मैं भी था. आंबेडकर विचार मंच ने कार्यक्रम रखा था. दलित श्रोता थे, दलित वक्ता और दलित मंच. अब इसके विरोध में आप हिंसात्मक प्रदर्शन करें, तो यह तो कोई बात नहीं हुई. वे हिंसात्मक होकर सीधे अंदर चले आए थे और उन्होंने हिंसा की. अंदर घुसने से मना करने पर उन्होंने गोली चलाई.

राष्ट्र और राष्ट्रवाद दो अलग चीजें हैं और राष्ट्र-राज्य तीसरी चीज है. राष्ट्र एक सामाजिक अवधारणा है जिसके भीतर ‘हम’ की भावना होती है और सांस्कृतिक पूंजी, सांस्कृतिक धरोहर होती है जो ऐतिहासिक काल से लगातार चली आ रही है. उसके साझा मूल्य से राष्ट्र बनता है. ये धर्म, भाषा और प्रांत इन सबका कोई मतलब नहीं है राष्ट्रवाद से. लेकिन राष्ट्रवाद वैचारिक अवधारणा है. इसे कई आधारों पर सृजित किया जा सकता है. इसमें सबसे बड़ी बात दूसरेपन की भावना. यानी कि ये दूसरे लोग हैं, बाहर के लोग हैं. इसमें इनसाइडर और आउटसाइडर की डिबेट होती है.