
उत्तर प्रदेश व बिहार में सालों से प्रचलित और फिल्म दबंग के ‘मुन्नी बदनाम हुई…’ के बाद चर्चा में आए गीत ‘लौंडा बदनाम हुआ, नसीबन तेरे लिए…’ का मूल लेखक कौन है यह किसी को नहीं पता. लेकिन इस क्षेत्र में लगभग सभी यह जरूर जानते हैं कि इसे गा-गाकर लोकमानस में रचाने-बसाने का काम ताराबानो फैजाबादी ने किया है. ताराबानो ने अपनी दिलकश अदाओं के साथ प्रस्तुति देते हुए इसे लोकप्रिय तो बनाया लेकिन अनजाने में ही इससे ‘लौंडों’ को बदनाम होने की रवायत शुरू हो गई.
‘लौंडा’ यानी हल्के-फुल्के अंदाज में समझें तो इसका अर्थ है, लड़का. एक इलाके विशेष के अंदाज में मानें तो वे लड़के जो स्त्रियों की वेशभूषा धारण कर नाचने-गाने का काम करते हैं उन्हें ‘लौंडा’ कहा जाता है और इस विधा को लौंडा नाच. पहली नजर में इस विधा में बदनामी की अपार संभावनाएं दिखती हैं. सो ऐसा हुआ भी. प्रकाश झा ने अपनी चर्चित व राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म ‘दामुल’ में ‘हमरी चढ़ल बा जवनिया गवना ले जा राजा जी…’ गीत के साथ लौंडा नाच का इस्तेमाल किया तो मशहूर फिल्म ‘नदिया के पार’ में ‘जोगीजी धीरे-धीरे, नदी के तीरे-तीरे…’ होली गीत में लौंडा नाच मजेदार अंदाज में सामने आया था. वहीं अनुराग कश्यप को भी ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के लिए भी लौंडा नाच की जरूरत महसूस हुई. इन सबके बाद राजनीति की बात करें तो लालू प्रसाद का लौंडा नाच प्रेम हर बिहारी जानता है. आरंभ से ही लालू अपने राजनीतिक आयोजनों में लौंडा नाच करवाते रहे हैं. पिछले साल उनकी परिवर्तन रैली के बाद भी पटना की सड़कों पर लौंडा नाच का जलवा बिखरा था. यानी लौंडा नाच का उपयोग सबने अपनी-अपनी सहूलियत से किया लेकिन गांव-गिरांव, लोकगायन, सिनेमा में धूम मचाने के बाद लौंडा नाच की विधा और उसके कलाकार गति-दुर्गति को प्राप्त करते रहे और चला-चली की बेला में आ गए.
तो आखिर क्या है इस विशिष्ट कला विधा से जुड़े कलाकारों की पीड़ा? वे लोक कलाकार से नचनिया के रास्ते लौंडा कब से कहलाने लगे और लौंडा कहलाए तो उन्हें बदनामी का पर्याय क्यों बनाया गया. फिर जब बदनाम हुए तो एक पीढ़ीगत परंपरा गति से दुर्गति को प्राप्त क्यों करने लगी? सबसे पहले हम ये सवाल हसन इमाम के सामने रखते हैं. हसन इमाम रंगकर्मी हैं और लोक-कलाओं के गहरे अध्येता भी. दलित लोक कला में प्रतिरोध उनकी चर्चित किताब रही है और हालिया दिनों में उन्होंने एक शोध ‘बिहार के लोक कलाकार-प्रजातांत्रिक अधिकारों के सांस्कृतिक प्रवक्ता’ शीर्षक से किया है. वे कहते हैं, ‘नाम होने, बदनाम होने की बात तो बाद की है लेकिन प्लीज, आप लोक कलाकारों व नर्तकों को लौंडा शब्द से संबोधित न करें. यह नाम ही सामंतमिजाजी समाज की देन है. किसी भी किस्म का नाच प्रतिरोध का प्रतीक है. चूंकि दलित-दमित जाति के लोक कलाकारों ने ही इस नाच को परवान चढ़ाया है. इस नाच को सामाजिक स्वीकृति न मिले और यह गौरव का विषय न बने तो सामंतों ने उपहास उड़ाने के लिए इसे लौंडा नाच कहा था. लौंडा नाच जैसी कोई कला फॉर्म नहीं होती और न ही इसकी चर्चा कहीं मिलती है.’ हसन इमाम आगे कुछ बताने के बजाय सवाल पूछते हैं, ‘गांव के नाटकों में लड़के ही लड़की बन अभिनय, नाच, गान सब करते रहे हैं. सबको लौंडा कहते हैं आप? मनोहर श्याम जोशी महिला की भूमिका ही निभाते थे, उन्हें लौंडा कहेंगे? हबीब तनवीर के नाटक में, रतन थियेम के नाटक में लड़के ही लड़की बनकर आते रहे हैं. उन्हें लौंडा कहते हैं? और आप बिरजू महाराज या कथक के दूसरे मशहूर कलाकारों को लौंडा कहेंगे? वे भी तो नाचते ही हैं, स्त्री जैसा बनकर?’ हसन कहते हैं, ‘आप गौर कीजिए कि कब से लौंडा शब्द चलन में आया और कब से वे बदनामी के पर्याय बने. बिहार के मशहूर लोक कलाकार भिखारी ठाकुर दलितों, दमितों, उपेक्षितों के बीच बड़े कलाकार माने जाते थे, सम्मान पाते थे और सामंतों-संभ्रांतों के बीच लौंडा कहे जाते थे.’ ऐसे ही सवालों के साथ हम वरिष्ठ नाटककार हृषिकेश सुलभ से भी बातचीत करते हैं. सुलभ कहते हैं, ‘पुरुषों द्वारा नर्तकी बनकर नाचने की परंपरा कोई आज की नहीं है. दक्षिण के मंदिरों में इसकी समृद्ध परंपरा रही है और पुरी के मंदिर में तो ‘गोटीपुआ’ नामक एक नाच परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है जिसमें कम उम्र के बच्चे नाचते हैं. हरम में लौंडों के रखने का वर्णन भी मिलता है.’
लोककलाओं के अध्येता बताते हैं कि इस परंपरा में बिगड़ाव सामंतवादी युग में आया क्योंकि सामंतवाद अपनी विकृत मानसिकता को लोक कलाओं पर थोपता रहा है. स्त्री के लिए वर्जनाओं के दौर में पुरुष कलाकार ही नचनिया बनकर नाचते थे लेकिन सामंतों ने उनकी मजबूरी का फायदा उठाया. नाच दल निम्नवर्गीय लोग चलाते थे. दो-चार माह की व्यस्तता के बाद उनके पास काम नहीं होता था. ऐसे में सामंतों ने ‘लौंडों’ को अपने यहां काम पर रखना शुरू किया. काम भी लेतेे, नचवाते भी थे और यौन उत्पीड़न भी करतेे. बिहार में कई सामंत हुए हैं जिन्होंने ‘लौंडों’ को अपने यहां रखा और उनकी कारगुजारियों से ‘लौंडा’ बनने वाले लड़के बदनाम होते गए. सुलभ याद करते हैं कि एक लौंडे को उन्होंने अपने साथियों की मदद से आरा के एक प्रोफेसर साहब के यहां से निकलवाया था. प्रोफेसर उसका यौन उत्पीड़न करते थे. बकौल सुलभ, ‘लौंडा नाच को विकृत कर उसे खत्म करने में सामंत मिजाजियों की भूमिका सबसे ज्यादा रही है. अब तो यह विधा चलाचली की बेला में ही आ चुकी है. क्योंकि उनकी जगह बांग्लादेश, नेपाल की लड़कियां गांव में भी नाच करने जाने लगी हैं.’
सुलभ की यह बात बिल्कुल सही है. अब यह नाच विधा हाशिये पर सिसकियां ले रही है लेकिन एक जमाना था जब इसकी धूम थी और हर इलाके में मशहूर पुरुष नचनिए हुआ करते थे. वे बजाप्ता एक दल चलाते थे. उनके दल का नाम दूर-दूर तक होता था. इस परंपरा और विधा के परवान चढ़ने के पीछे एक वजह और दिखती है. इसे समझने के लिए थोड़ा गहराई से परिस्थितियों पर गौर करना होगा. नाच मनोरंजन की एक महत्वपूर्ण विधा सदियों से, पीढ़ियों से रही है लेकिन उसका दायरा हमेशा अलग किस्म का रहा. जब नामचीन तवायफों का दौर था और उनकी धूम देश भर में थी तो वे राजा-महाराजाओं के महलों तक सीमित रहती थीं. जिस राजा-महाराजा के पास सामर्थ्य होता था वह उन्हें अपने यहां बुलाता था. नचवाता-गवाता था. तवायफों के बाद बाईजी युग का अवतरण हुआ तो उन पर जमींदारों और धनाढ्यों का कब्जा हुआ. ये पैसे और रसूखदार लोग थे. शादी-ब्याह, खास आयोजन में बाईजी को अपने यहां बुलाने लगे और नचवाने-गवाने लगे, उन पर पैसे उड़ाने लगे और उनकी कलाई पकड़ने लगे, सार्वजनिक तौर पर उनके हाथ-गाल को छूने लगे. नाच मनोरंजन की एक महत्वपूर्ण विधा होने के बावजूद एक दायरे में जकड़ी रही. एक बड़ा वर्ग, हाशिए और वंचितों का समूह इसके आसपास फटक भी नहीं सका. वह इससे वंचित रहा तो खुद ही इसके विकल्प में, प्रतिरोध में एक शैली विकसित की. पुरुष ही स्त्री की तरह बनने लगा. वंचितों के यहां नाचने लगा. राह चलते भी नाचने लगा. जो लोग इस महत्वपूर्ण मनोरंजन विधा से सदियों से वंचित थे वे जनाना बने पुरुष को ही देखकर सीटियां बजाने लगे. उसका हाथ पकड़ने लगे. यहां उस पर भी पैसा उड़ाया जाने लगा. देखते ही देखते इस नाच विधा ने लोकप्रियता के पैमाने में बाईजी आदि को काफी पीछे छोड़ दिया. वंचित समुदाय ने खुद लौंडा बनकर सिर्फ मनोरंजन की एक महत्वपूर्ण विधा नाच का सामान्यीकरण कर इस पर सदियों से वर्चस्व जमाए बैठे सामंतों, जमींदारों और राजे-रजवाड़ों को चुनौती ही नहीं दी बल्कि इस परंपरा में नायक भी खड़े करने लगे.
[box]तमाशे से आगे…
प्रिय पंकज पवन , आपके सराहनिए प्रयासों के लिए आपको सर्वप्रथम बधाई देना चाहूंगा …. मेरा नाम निखिल राज है , भोजपुरिया जनता मुझे “भोकाल सिंह” (महुआ टीवी ) के नाम से पहचानती है . मैं अभी लौंडा नृत्य के ऊपर एक कहानी लिख रहा हूँ इसलिइ लौंडा नृत्य और उसकी परम्परा के बारे में मैं जानने को इच्छुक हूँ … परतू इसकी शुरूवात किसने की ये मुझे अभी तक नहीं पता चल पाया है ..आपके पोस्ट से काफी कुछ जानकारी प्राप्त हुई . अगर संभव हो तो कृपया मुझे लौंडा नृत्य और उनकि समस्याओं के बारे में “[email protected] ” पर कृपया मुझे जानकारी दें ….अथवा अगर आपका कोई सम्पर्क नम्बर हो तो मुझे मुहैया ज़रूर करें ..
धन्यवाद .
निखिल राज .
अभिनेता , लेखक , निर्देशक .