हुआ यूं था : जब कनाडा से बैरंग लौटे सिखों पर की थी ब्रिटिश सेना ने फायरिंग

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हाल ही में कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडू ने कनाडा सरकार के पूर्व में लिए गए एक फैसले के संबंध में सिख परिवारों से माफी मांगने की बात कही तो इतिहास की एक घटना की याद जेहन में ताजा हो उठी. अगले महीने इस घटना काे 102 साल पूरे हो जाएंगे. यह घटना 23 मई, 1914 की है और कोमागाता मारु उस जापानी जहाज का नाम था जिस पर सवार होकर 376 भारतीय को कनाडा के वैंकूवर बंदरगाह पहुंचे थे लेकिन सरकार ने उन्हें बंदरगाह पर उतरने की अनुमति नहीं दी. 340 सिखों के अलावा इनमें 24 मुसलमान और 12 हिंदू शामिल थे. बहरहाल जस्टिन ट्रूडू अगले महीने की 18 तारीख को ‘हाउस ऑफ कॉमंस’ में इस फैसले के लिए माफी मांगेंगे. 

20वीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों से ही भारतीयों का एक वर्ग खास तौर से पंजाब के लोग बेहतर अवसरों की तलाश में पश्चिमी देशों खास तौर से कनाडा में काम करने और वहां बसने के इच्छुक थे. वहीं कनाडा में भारतीयों की बढ़ती संख्या ने वहां की तत्कालीन ब्रिटिश सरकार में असंतोष पैदा कर दिया था जिसके कारण सरकार ने अनेक आव्रजन कानून पारित कर दिए जिसने वहां भारतीयों के प्रवेश को मुश्किल बना दिया था. ऐसे में सिंगापुर में रह रहे सिख व्यवसायी बाबा गुरदीत सिंह ने भारतीयों का एक ऐसा बड़ा नेटवर्क तैयार करने के लिए कनाडा जाने का फैसला किया जो भारत और विदेशों में भारतीयों की मदद कर सके. इस सफर की शुरुआत हांगकांग से हुई जहां से 4 अप्रैल, 1914 को 165 भारतीयों को लेकर कोमागाता मारु रवाना हुआ. आठ अप्रैल को शंघाई पहुंचने पर जहाज में कुछ और यात्री सवार हुए. 14 अप्रैल को जहाज जापान के योकोहामा पहुंचता है आैैर तीन मई को यहां से रवाना होते-होते इसमें कुल 376 यात्री सवार हो चुके होते हैं. 23 मई को यह जहाज वैंकूवर पहुंचा था. यहां कनाडा सरकार ने यात्रियों को उतरने की अनुमति ही नहीं दी. इससे यात्रियों के साथ ही कनाडा और अमेरिका में रह रहे दूसरे भारतीयों में रोष पैदा हो गया.

यात्रियों को बंदरगाह पर उतारने की रणनीति पर विचार-विमर्श शुरू हुआ. एक तरफ कनाडा और अमेरिका के कई शहरों में रह रहे भारतीय लगातार विरोध-प्रदर्शन कर रहे थे तो वैंकूवर में एक ‘तट समिति’ का गठन किया गया. समिति ने कानूनी लड़ाई शुरू की लेकिन उसी साल छह जुलाई को मामले की सुनवाई करते हुई ब्रिटिश कोलंबिया की अदालत ने सर्वसम्मति से यह आदेश पारित कर दिया कि कोई भी सरकारी प्राधिकरण आव्रजन और औपनिवेशीकरण विभाग के काम में दखल देने का अधिकारी नहीं है. इससे पहले जहाज के 20 यात्रियों को कनाडा में प्रवेश की अनुमति मिल गई लेकिन बाकी के यात्रियों को जहाज सहित 23 जुलाई को कनाडाई सेना की निगरानी में भारत के लिए रवाना कर दिया गया. 27 सितंबर, 1914 को कोमागाता मारु जहाज कलकत्ता पहुंचा तो यहां भी यात्रियों की समस्या खत्म नहीं हुई. भारत की ब्रिटिश सरकार ने कोमागाता मारु की यात्रा को नियमों के खिलाफ और यात्रियों को शासन विरोधी करार दे दिया. सरकार ने कोलकाता के बज-बज बंदरगाह पर जहाज को रोका और गुरदीत सिंह समेत 20 लोगों को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया. तब गुरदीत सिंह ने गिरफ्तारी का विरोध किया और उनके एक साथी ने एक पुलिसवाले पर हमला बोल दिया जिसके बाद ब्रिटिश सेना ने फायरिंग शुरू कर दी. इसमें 19 लोगों की मौत हो गई थी. इस दौरान गुरदीत सिंह भागने में सफल रहे और 1922 तक छिपकर रहे. फिर महात्मा गांधी ने एक सच्चे देशभक्त के तौर पर उनसे समर्पण करने की बात कही. गुरदीत ने यही किया और उन्हें पांच साल की सजा मिली.