
आजादी के बाद पहले चुनाव सन् 1951 में हुए थे. नेहरू जी के नेतृत्व में. तब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को 364 सीटें मिली थीं. 489 सीटों में से. करीब तीन चौथाई बहुमत था. जब तक नेहरू जी जीवित रहे तकरीबन ऐसा ही बहुमत उन्हें मिलता रहा.
इसके बाद उनकी बेटी इंदिरा को भी अपने दम पर बहुमत मिला. 1967 में न भी मानें तो 1971 में उन्हें कमोबेश अपने पिता सरीखा ही बहुमत मिला. 518 में से 352 सीटें. यह बांग्लादेश बनने के बाद का चुनाव था जब इंदिरा और इंडिया में कोई भेद नहीं रह गया था.
इसके बाद 80 में इंदिरा एक बार फिर जनता पार्टी के बिखराव के बाद उतने ही प्रचंड बहुमत से चुनाव में विजयी होकर आईं. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके पुत्र राजीव को आजादी के बाद का, और अब तक का भी, सबसे बड़ा बहुमत मिला. 1984 के चुनाव में उन्हें 514 में से 404 सीटें मिली थीं. अगर इसके तुरंत बाद 1985 में हुए असम और पंजाब के लोकसभा चुनावों को भी मिला दें तो उन्हें मिली कुल सीटों की संख्य 414 थी. यह अभूतपूर्व था. लेकिन इसमें राजीव गांधी का योगदान था ही कितना!
उस वक्त तक न तो यह देश ही राजीव को राजनेता के तौर पर पहचानता था और न ही राजीव गांधी ही राजनीति को ठीक से पहचानते थे. उनकी पहचान इंडियन एयरलाइंस के एक पूर्व हवाई जहाज पायलट और संजय गांधी के कामचलाऊ विकल्प की थी. जाहिर सी बात है कि जीत का श्रेय राजीव को नहीं बल्कि दिवंगत इंदिरा गांधी को ही जाना चाहिए. हालांकि जीवित रहते हुए उनके लिए भी इतना प्रचंड बहुमत पाना असंभव ही था.
इसके बाद वर्ष 2009 तक सात बार आम चुनाव हुए लेकिन कांग्रेस और भाजपा सहित किसी को भी पूरा बहुमत नहीं मिला.
इसका मतलब नरेंद्र मोदी, पंडित जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद अकेले ऐसे नेता हैं जिनके नेतृत्व की वजह से उनकी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला है.
और नेहरू-इंदिरा की कभी पार्टी रही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का क्या?
थोड़ा देर से पढ़ा पर बहुत अद्भुत आकलन है संजय जी। हिन्दी में इतना सादा और स्पष्ट लिखने वाले कम ही हैं।