इन दिनों जब एक धार्मिक रंगत वाला रक्तपिपासु राष्ट्रवाद और भारतीयता सत्ता का संरक्षण पाकर बलबला रहे हैं, यह सवाल हर आदमी को खुद से जरूर पूछना चाहिए क्योंकि यह जिंदगी और मौत का मसला बनता जा रहा है. ये स्वयंभू राष्ट्रवादी धार्मिक भावनाओं को आहत करने, देशविरोधी काम करने, सभ्यता और संस्कृति को मैला करने के मनमाने आरोप लगाकर, आसानी से उकसावे में आ जाने वाली हीनता, हताशा की मारी भीड़ का कुशल प्रबंधन कर जानें ले रहे हैं. वे खानपान, कपड़े, प्यार करने के तरीकों से लेकर पूरी जीवनशैली को अपने हिसाब से निर्धारित करना और पालन कराना चाहते हैं. ऐसा नहीं है कि उनमें पवित्रता का तेज और नैतिकता का बल है, वे खुद गले तक हर तरह के घच्चेपंजे में फंसे लोग हैं, जो भाजपा नेता दादरी में अखलाक नाम के मुसलमान की हत्या को गाय खाने का आरोप लगाकर जायज ठहराता है, वही एक बूचड़खाने के निदेशक के रूप में बीफ का एक्सपोर्ट करके करोड़ों रुपये पीटने का सपना देखता पाया जाता है.
वे सब कुछ भारतमाता की जय की आड़ में कर रहे हैं, उनका एकमात्र तर्क है, ‘वृंदावन में रहना है तो राधे-राधे कहना है.’
मैने खुद अपने भीतर झांका तो बचपन में किताबों में देखा कश्मीर से कन्याकुमारी के बीच फैला एक नक्शा झिलमिलाया जिसमें एक देवी जैसी गोरी औरत और उसका रथ खींचते शेर सही अनुपात में फिट हो गए, दिल्ली के लालकिले पर अकेला तिरंगा झंडा दिखा जिसके बगल में पंद्रह अगस्त की परेड की सलामी लेने के बाद एक पका हुआ आदमी बुलेटप्रूफ केबिन से भाषण दे रहा था, लता मंगेशकर के गाए ‘जरा याद करो कुर्बानी’ की धुन पर हिलते कंटीले तार दिखे जिनसे ओस आंसुओं की तरह टपक रही थी, वहीं मुस्तैद फौजी दिखे जो किसी भी क्षण जान देने को तैयार खड़े थे, थोड़ी देर तक तो इन लुभावनी तस्वीरों का रेला चला लेकिन भीतर बियाबान फैलने लगा… ये सब तो कैलेंडर, टीवी, म्यूजिक और फोटो हैं. इन बंदूक लिए सैनिकों की क्या जरूरत थी पहले पता तो चले कि रक्षा किसकी करनी है. अगर जमीन देश होती है तो रियल इस्टेट के कारोबारियों, हर तरह के छल से जमीनें बचाए रजवाड़ों और जमींदारों को इनका मालिक होना चाहिए और इसकी रक्षा भी उन्हीं को करनी चाहिए. यानी जमीन देश नहीं है, लोग भी देश नहीं है, अगर होते तो हमें उनके ऊंच, नीच, अछूत, म्लेच्छ होने में इतना पुरातन और पक्का यकीन कैसे होता कि हम आपस में खून बहाते.