
फर्जी मुठभेड़ में मारा जाना, पुलिस की बदतमीजी का शिकार होना, यातना सहना, महिलाओं के साथ बलात्कार, यह सब मणिपुर के लोगों के जीवन का हिस्सा बन गया है. पिछले साल सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एक समिति ने पाया कि मणिपुर में कथित मुठभेड़ में मारे गए लोगों के परिजनों के एक समूह एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल एक्जिक्यूशन विक्टिम फेमिलीज एसोसिएशन ऑफ मणिपुर द्वारा लगाये गए आरोप बिलकुल सही हैं. इस समूह द्वारा 2012 में तैयार एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले तीन दशकों (1979-2012) में मणिपुर के अंदर 1,528 आम नागरिक सशस्त्र बलों की गोलियों के शिकार हो चुके हैं. इन सभी मौतों के पीछे जो मुख्य कारण उभरकर सामने आता है, वह है- आफ्स्पा. इस कानून के संरक्षण में सुरक्षा बल किसी भी तरह की जवाबदेही से मुक्त हो जाते हैं. अपने किसी भी ऑपरेशन या अभियान में मारे गए लोगों के लिए उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. ऐसे में इस बात की संभावना हमेशा बनी रहती है कि अगर किसी जवान का दिमाग फिर जाए, तो किसी की भी जिंदगी खतरे में पड़ सकती है. इसी बर्बर कानून को खत्म करवाने के लिए शर्मिला इतने वर्षो से भूख हड़ताल पर हैं.

विद्रोही नगा गुटों को नियंत्रित करने के मकसद से यह विवादास्पद कानून 22 मई 1958 को अस्तित्व में आया था. उस समय भी नगा लोगों ने इसका पुरजोर विरोध किया था. बावजूद इसके भारतीय संसद ने एक अलोकतांत्रिक कानून को लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर में कानून बना दिया. उस समय सरकार का कहना था कि इस कानून का मकसद नगा-बहुल इलाकों में शांति स्थापित करना है, जैसे ही यह लक्ष्य हासिल हो जाएगा, सरकार आफ्स्पा को वापस ले लेगी. लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ. हुआ इसके बिल्कुल विपरीत. धीरे-धीरे यह कानून नगा-बहुल इलाकों से फैलते हुए पूरे पूर्वोत्तर और फिर जम्मू कश्मीर तक पहुंच गया. आज पूर्वोत्तर के सातों राज्यों में यह कानून लागू है.
इस कानून में ऐसा क्या है कि देश के रक्षक इसे पाते ही अचानक से बेकाबू होते दिखने लगते हैं. इस ‘कानून’ के अनुसार सरकार द्वारा घोषित ‘अशांत’ इलाकों में सशस्त्र बलों को सिर्फ विशेष अधिकार ही नहीं, बल्कि एकाधिकार मिल जाता है. आफ्स्पा के दायरे में एक तरह से लोकतंत्र समाप्त हो जाता है और सेना की सत्ता कायम हो जाती है. सैन्यकर्मियों के ऊपर कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती. सशस्त्र बल जब चाहे, जहां चाहे, हथियारों का इस्तेमाल कर सकते हैं. उनका तर्क ही इसमें मायने रखता है. मसलन अमुक व्यक्ति गैरकानूनी काम कर रहा था या फलां व्यक्ति देश की संप्रभुता के लिए खतरा था आदि. यह विशेषाधिकार सिर्फ सशस्त्र बल के उच्च अधिकारियों के पास ही नहीं है बल्कि आम जवानों (नॉन-कमीशंड) तक को हासिल है.
पिछले 56 वर्षों में बार-बार यह बात साबित हुई है कि यह कानून किसी भी सभ्य समाज और लोकतांत्रिक व्यवस्था के मूल्यों से मेल नहीं खाता. इसके बावजूद यह कानून दिनोंदिन मजबूत होता गया है. सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों में इसकी अमानवीयता पर रोशनी डाली गई है. वर्ष 2004 में भारत सरकार द्वारा गठित जस्टिस जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट में भी इसे कबूल किया गया है. जून 2005 में आई इस रिपोर्ट का एक हिस्सा कहता है, ‘चाहे जो भी कारण रहे हों, यह कानून उत्पीड़न, नफरत, भेदभाव और मनमानी का जरिया बन गया है.’ हाल ही में मणिपुर के एक न्यायालय ने शर्मिला को बरी करते हुए कहा कि राजनीतिक मांग के लिए इरोम शर्मिला का आंदोलन एक लोकतांत्रिक और कानूनी तरीका है, इसलिए उन्हें इसकी सजा नहीं दी जा सकती. पर दो दिन बाद ही पुलिस ने उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया. आज भी वह एक कैदी की जिन्दगी गुजारने को मजबूर हैं.

इन 15 वर्षों में शर्मिला ने अपनी बात को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की है. उन्होंने सरकार और उसकी तमाम संस्थाओं से आफ्स्पा को खत्म करने की गुहार लगाई है. हर नए व्यक्ति, सरकार और पार्टी में एक उम्मीद देखी है. इसी उम्मीद को लेकर उन्होंने प्रधानमंत्री से मिलने के लिए समय भी मांगा, जो उन्हें आज तक नहीं मिला है. इन सबके बावजूद शर्मिला को न केवल उम्मीद, बल्कि यकीन है कि एक न एक दिन आफ्स्पा जरूर खत्म होगा. हाल ही में एक मुलाकात के दौरान उन्होंने मुझसे एक बात कही थी, जिसका जिक्र करना जरूरी है- ‘मुझे उम्मीद है कि मैं अपना अगला जन्मदिन (14 मार्च) आफ्स्पा मुक्त मणिपुर में मनाऊंगी.’ उनकी इस उम्मीद पर हिंदुस्तान यही कह सकता है- आमीन!
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)