‘मित्रो’ को आज अपनी सेक्सुअल डिजायर व्यक्त करने का अधिकार है और इसे उसने अर्जित किया है…

इस तरह की भाषा और अभिव्यक्ति का ये रूप सही नहीं है. एक लोकतंत्र को ऐसे तरीकों की जरूरत नहीं है. कितने संघर्ष के बाद हमें आजादी मिली, संविधान मिला है, हमें इसे कीमती समझते हुए इसकी सुरक्षा करनी चाहिए. पर इन सबके बीच मैं इन बातों के लिए खुश हूं कि इतनी गलत बातों के बीच भी हमारे राष्ट्रपति ऐसी बातें कह देते हैं जिन पर नागरिकों और राजनीतिक दलों को भी गौर करना बहुत जरूरी है.

कुछ समय पहले पुरस्कार वापस किए गए. मेरे हिसाब से ये विरोध जताने का सबसे विनम्र तरीका था. ये एक ऐसा मुल्क है जहां लेखक के पास ये अधिकार तो है कि वो जो सही समझता है उसे कह सके

वर्तमान सरकार पर आरोप लग रहे हैं कि वह असहमति के अधिकार को छीन रही है.

हां पर ये बिल्कुल गलत है. ये अच्छी बात नहीं है. हम इस देश के नागरिक हैं, हमारे भी कुछ अधिकार हैं. आप उन्हें नहीं छीन सकते.

बुद्धिजीवियों का एक तबका बार-बार कह रहा है कि ये फासीवाद के लक्षण हैं. क्या ये हिंदू पाकिस्तान बनाने की राह पर हैं?

हमारे पास पॉलिटिकल आइडेंटिटी बनने का एक पूरा इतिहास है. हमने पाकिस्तान बनते देखा है. मैं कह सकती हूं कि जिस रास्ते पर ये चल रहे हैं और टुकड़े हो जाएंगे. जब आप लोगों में इतनी नफरत पैदा करेंगे तो इसका नतीजा क्या होगा! आप जो कर रहे हैं वो गलत है, आप इसमें कामयाब नहीं होंगे. और अगर हो भी गए तो इससे आपका ही नुकसान होगा.

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विश्वविद्यालयों में भी प्रतिरोध के स्वर लगातार उठ रहे हैं. देश के कई नामी विश्वविद्यालय चाहे हैदराबाद हो, जेएनयू या इलाहाबाद विश्वविद्यालय विवादों में हैं. राजनीति के इस तरह से विश्वविद्यालयों में पहुंच जाने पर क्या कहेंगी?

आप हर चीज को अपनी विचारधारा के अनुरूप नहीं बना सकते जबकि असल में वो कोई विचारधारा भी नहीं है. आपकी विचारधारा कुछ नहीं है. देश के लोग प्रबुद्ध हैं. वे सब समझते हैं. एक किसान चाहे पढ़ा-लिखा न हो पर वो भी अपना अच्छा-बुरा सब समझता है. हमारी पीढ़ी के लिए ये देखना बेहद तनाव भरा है. आप उर्दू लेखकों से लिखवाते हैं कि आप सरकार के खिलाफ नहीं लिखेंगे! आप बिना क्रिटिकल हुए तो खुद को बेहतर नहीं बना सकते तो क्या सरकार बिना आलोचना के खुद को बेहतर बना सकती है!

नई पीढ़ी क्या करना चाहती है, वो हमसे कितनी आगे है ये पता होना चाहिए, तभी आप आगे बढ़ पाएंगे. पिछले दिनों एक कार्यक्रम में कन्हैया कुमार और उनके साथियों से मिलना हुआ. वे लोग कितने स्पष्ट हैं कि उन्हें क्या चाहिए, उन्हें क्या करना है. मुझे उन्हें देखकर बहुत अच्छा लगा. और ऐसा इसलिए है कि वे बहुत कुछ पढ़ने-लिखने वाले लोग हैं, वे हिंदी पढ़ते हैं. वे लोग हमारी तरह नहीं हैं जो ब्रिटिश समय में पढ़े हैं. सरकार को सोचना चाहिए कि वो इस पीढ़ी के साथ क्या कर रही है! नयी पीढ़ी के पास ऊर्जा है, ख्याल हैं, ज्यादा सुविधाएं नहीं हैं फिर भी वे आगे बढ़ रहे हैं. आपका मुल्क उनसे आगे बढ़ेगा.

समाज में धर्म अौर जाति के आधार पर भेदभाव बढ़ रहा है. किसी भी तरह का विवाद हो उसे हिंदू-मुस्लिम रंग दे दिया जाता है.

इसके पीछे बस एक रणनीति है हिंदू राष्ट्र, जिसमें ये कभी कामयाब नहीं हो पाएंगे. और ऐसा कभी देखा नहीं होगा कि हिंदुओं की मेजॉरिटी के बावजूद आप मुस्लिमों से डर रहे हैं! क्यों? और आप देश, समाज में उनका योगदान भूल रहे हैं. हर क्षेत्र में चाहे कला हो, संगीत या साहित्य. पर अब जो बच्चे बड़े हो रहे हैं वो बिल्कुल अलग हैं. कुछ समय पहले एक टीचर कुछ बच्चों को मुझसे मिलवाने लाई थीं. उनमें से कुछ थोड़े कमजोर तबके के भी थे. एक बच्चे ने बताया कि उसके पिता कबाड़ का काम करते हैं. ये बात कई बच्चों को हतोत्साहित कर सकती है पर उस बच्चे में वो आत्मविश्वास था. कोई भेदभाव नहीं, कोई गिला नहीं. ये आजाद मुल्क है. तो जब ये बच्चे बड़े होंगे तो मैं नहीं समझती ये किसी भेदभाव में विश्वास करेंगे.

हिंदू राष्ट्र बनने के सपने का कोई भविष्य है?

नहीं. यह कभी सफल ही नहीं हो सकता. विश्व में कितने मुस्लिम राष्ट्र हैं तो क्या इस समय उनकी भाग-दौड़, वहां हो रही हलचल हम नहीं देख पा रहे हैं! आप क्या सोचते हैं कि आप क्या नया करेंगे किसी एक धर्म विशेष के आधार पर राष्ट्र बनाकर!

लेखक, बुद्धिजीवी और विद्यार्थी अपनी राय जाहिर करने पर विरोध का सामना कर रहे हैं. क्या असहमति को दबाना इस तरह लोकतंत्र के खिलाफ है?

बिल्कुल है. इतनी सदियों बाद देश में लोकतंत्र आया है और जिस तरह से ये शासन कर रहे हैं, ये सबूत है कि इतनी बुरी तरह से तो बाहर के लोगों ने भी हम पर शासन नहीं किया. विरोध करना कोई बुरी बात नहीं है, इससे आप विकास करते हैं.

आपने विभाजन से पहले का संघर्ष भी देखा है. उस वक्त भी शासक वर्ग के प्रति असंतोष था. क्या आज के हालात वैसे ही हैं?

आज माहौल उससे बहुत ज्यादा खस्ता है. उस समय बात राजनीतिक पहचान की थी जो अब नहीं है.

उनकी बस एक रणनीति है हिंदू राष्ट्र, जिसमें ये कभी कामयाब नहीं हो पाएंगे. और ऐसा कभी देखा नहीं होगा कि हिंदुओं की मेजॉरिटी के बावजूद आप मुस्लिमों से डर रहे हैं! क्यों?

यदि मित्रो 2016 में लिखी जा रही होती तो…

इस पर मुझे एक बात याद आती है. मित्रो मरजानी में एक जगह मित्रो की सास वंश बढ़ाने के बारे में कहती है, तो मित्रो जवाब देती है कि ये तुरत-फुरत का खेल नहीं है कि एक ही मिनट में जिंद बोलने लगे. जब इसका मंचन हो रहा था तो ख्याल ये था कि लोग हंसेंगे पर हम सब चकित रह गए जब कोई हंसा नहीं. तो इस तरह की कंडीशनिंग है. लोग खुद भी जानते हैं कि कैसे उन्होंने स्त्री को दबाकर रखा है.

मित्रो मरजानी में एक जगह मित्रो कहती है  ‘जिंद जान का यह कैसा व्यापार? अपने लड़के बीज डालें तो पुण्य, दूजे डालें तो कुकर्म!’  जिस तरह की सेक्सुअल लिबर्टी की बात मित्रो कर रही है, हिंदुस्तान के मुख्यधारा के साहित्य में ऐसा कभी नहीं देखा गया था. एक पितृसत्तात्मक समाज में लिख पाने की प्रेरणा कैसे मिली?

देखिए, साफ कहूं तो लेखक बहुत कुछ नहीं कर सकता, ये उनकी गलतफहमी होती है. हड्डी पात्र की मजबूत होती है और उसी की जरूरत होती है. मैं उस वक्त राजस्थान में थी. वहां कुछ मजदूर काम कर रहे थे. वहां एक ठेकेदार और औरत थे. औरत ने लहंगा पहना हुआ था और छोटा-सा घूंघट भी निकाल रखा था. ठेकेदार ने उसे अपने पास बुलाने के लिए एकदम तपी हुई आवाज में पुकारा, ‘आजा री’ और वो औरत जोर से हंसी और बोली, ‘इस लहंगे की मांद में आ गए तो गए काम से!’ मैंने बस ये सुना. मैंने यही सोचा कि ये इन शब्दों से ज्यादा कुछ है. राजस्थानी मुझे ज्यादा नहीं आती पर उसमें बहुत ज्यादा टीस है. और फिर पात्रों को रचने का तरीका होता है. अगर आपने एक कोरे कागज पर कोई एक लाइन खिंची देखी है तो लिखते समय आप तीन जगह अपनी ताकत बांटते हैं…पहली उस लाइन की जो आपने देखी है, दूसरी लेखक की अपनी ताकत और फिर पात्र की. अगर पात्र में जान न हो तो आप क्या करेंगे? और अगर आप पात्र को पहचानते नहीं हैं फिर क्या! और एक बात, लेखक को न तो पात्र को अपने से नजदीक रखना है न बहुत दूर रखना है. तब आप किरदारों को नियंत्रित कर सकते है. मैं ये कह सकती हूं कि भाषा के तारतम्य से ही ये किरदार निकला.

आपके स्त्री किरदार बहुत स्वतंत्र हैं, जो जिस दौर में वे लिखे गए, उस समय की सच्चाई से बिल्कुल उलट हैं. ये कैसे हुआ?

मेरी परवरिश संयुक्त परिवार में हुई है पर हमें बहुत आजादी मिली साथ ही अनुशासन भी था. तो शायद इसी का प्रतिबिंब इन किरदारों पर है.

आपकी अधिकतर किताबों के अंग्रेजी अनुवाद हुए हैं, हिंदी के कम ही लेखकों के काम को ऐसी सराहना मिली.

(हंसते हुए) मैं तो बोर हो जाती हूं. एक बार किताब प्रकाशित हो जाती है फिर मैं उसके बारे में ज्यादा नहीं सोचती.