प्रो. सिरास की जिंदगी पर आधारित फिल्म ‘अलीगढ़’ रिलीज होने वाली है. क्या फिल्म बनाने का विचार आपका था?
प्रो. सिरास पर फिल्म बनाने का विचार मेरा नहीं था. हम पत्रकार लोग तो ये सब देखते रहते हैं. हम लोग सिर्फ स्टोरी लिखते हैं और भूल जाते हैं. 2013-14 में ईशानी बनर्जी दिल्ली में काम कर रही थीं तब उन्हें प्रो. सिरास के बारे में पता चला तो वो अलीगढ़ गईं और उनके बारे में पता किया. वहां किसी के पास पूरी कहानी नहीं थी, वहां उन्हें मेरे बारे में पता चला तो उन्होंने मुझे कॉल किया. प्रो. सिरास अकेले रहते थे और एकाकी व्यक्ति थे इसलिए किसी के पास उनकी पूरी कहानी नहीं है. मुझसे मिलने के बाद उन्हें लगा कि मैं भी उनकी कहानी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हूं. अपूर्व एम. असरानी और ईशानी ने मिलकर फिल्म की कहानी को लिखा है. इस तरह से फिल्म आगे बढ़ी.
प्रो. सिरास का मामला बहुत ही संवेदनशील था. ऐसे मामलों के बारे में लिखना आसान नहीं होता? इसकी रिपोर्टिंग कैसे की?
उस समय मैं दिल्ली में जूनियर रिपोर्टर था, मुझे नहीं पता था कि अलीगढ़ जाना है और कैसे इस मामले की रिपोर्टिंग करनी है. जब उन्हें विश्वविद्यालय से निलंबित किया गया उस वक्त मैं अलीगढ़ पर एक फीचर स्टोरी कर रहा था. निलंबन की खबर हमारे यहां नहीं प्रकाशित हो पाई थी और मुझे इस मामले पर रिपोर्ट करने के लिए कहा गया. शुरू-शुरू में मैं इस मामले से एक पत्रकार के तौर पर जुड़ा, लेकिन जिस तरह की रिपोर्टिंग हो रही थी, वह मुझे ठीक नहीं लगी. दूसरे तमाम लोगों ने उस वक्त उस एमएमएस के बारे विस्तार से लिखा. मैंने कभी उस एमएमएस क्लिप के बारे में विस्तार से नहीं लिखा. मैंने अपनी रिपोर्ट में सिर्फ ये लिखा कि इस घटना के बाद समाज के लोग कैसा व्यवहार कर रहे हैं. एक एमएमएस बनाकर उनकी निजता का उल्लंघन किया गया था और लोग उन्हीं को भला-बुरा कहने में मशगूल थे.
[ilink url=”http://tehelkahindi.com/a-professor-of-aligarh-shrinivas-ramchandra-siras/” style=”tick”]जानिए अलीगढ़ के समलैंगिक प्रोफेसर की कहानी[/ilink]
आप उन लोगों में से हैं, जिनसे वे आखिरी समय में संपर्क में थे. आप उनसे मिलने वाले थे, क्या हुआ था?
मैं प्रो. सिरास से कभी नहीं मिल पाया. इलाहाबाद हाईकोर्ट की ओर से जब उनके पक्ष में फैसला आया. उस वक्त ये खबर मुझसे छूट गई थी, क्योंकि इसे तो इलाहाबाद से रिपोर्ट करना था. तब मुझे फॉलोअप करना पड़ा. तब मैंने प्रोफेसर को फोन कर ये बताया कि सर आपने कुछ बताया नहीं. तब मैंने उन्हें बताया कि मैं उन पर एक बड़ी स्टोरी करूंगा. तब उन्होंने मुझसे एक-दो दिन में आकर मिलने के लिए कहा था. जब प्रोफेसर से बात हुई तब उन्होंने कहा था कि तुम्हारी वजह से मुझे सोने में लेट हो गया. मैंने ये बात अपने संपादक को बताई तो उन्होंने कहा कि अभी चले जाओ. उस वक्त रात हो चुकी थी इसलिए मैंने उन्हें फोन लगाना ठीक नहीं समझा. अगले दिन मैं 11 बजे के बाद अलीगढ़ पहुंचा तो उन्हें कॉल किया तो उनका फोन ‘स्विच ऑफ’ या ‘नॉट रिचेबल’ आ रहा था. उस दिन बार-बार मैंने कॉल किया तो फोन ‘स्विच ऑफ’ आ रहा था तो मुझे थोड़ी हैरानी हुई थी.
आपकी प्रो. सिरास से कई बार बात हुई. बातचीत के आधार पर आपको वे किस तरह के इंसान लगे?
जितनी मेरी उनसे बात हुई उसके आधार पर ये पता चला कि वह साधारण और बेहद निजी व्यक्ति थे. अलीगढ़ में अकेले रहा करते थे. उनके ज्यादा दोस्त नहीं थे. वह सहनशील और मजबूत इरादों वाले व्यक्ति थे, क्योंकि जिस तरह का विवाद उनके साथ हुआ था. कोई और होता तो फोन ‘स्विच आॅफ’ कर लेता या फिर किसी से बात नहीं करता, लेकिन खराब परिस्थितियां होने के बावजूद उन्होंने अपना फोन कभी बंद नहीं रखा और जब आप कॉल करो तो वे बड़ी आसानी और सहजता से बात भी करते थे. उन्होंने कभी किसी से कुछ नहीं कहा. उन्हें लगता था कि समस्याएं उनकी अपनी हैं और वे ही इनका समाधान करेंगे. उन्हें बस यही लगता था कि जो कुछ भी हुआ उससे उनकी निजता के अधिकार उल्लंघन किया गया, ये तब किया गया था जब दिल्ली हाईकोर्ट ने सहमति से समलैंगिक संबंध बनाने को अपराध नहीं माना था. शुरू में उनकी लड़ाई अपना निलंबन रद्द कराने को लेकर थी, लेकिन बाद की उनकी लड़ाई खुद के हक को लेकर शुरू हुई.
आप उनका इंटरव्यू करने के लिए अलीगढ़ जाने वाले थे. अलीगढ़ में क्या हुआ था?
अलीगढ़ पहुंचने के बाद मैं सीधा कैंपस गया लेकिन वे वहां नहीं थे. उनके डिपार्टमेंट में मलयालम पढ़ाने वाले एक प्रोफेसर हैं सतीशन, जिनका फिल्म में भी छोटा सा रोल है. विश्वविद्यालय में सतीशन मेरे पुराने सूत्र थे. उस डिपार्टमेंट में प्रो. सिरास के अलावा सतीशन ही थे. सतीशन भी उस दिन डिपार्टमेंट में नहीं थे, उन्हें भी उनके बारे में पता नहीं था. उनके बारे में किसी को कुछ पता नहीं था. तब किसी ने बताया कि वह दुर्गाबाड़ी मोहल्ले में रह रहे हैं. वहां विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर रहते थे. उन्हें भी पता नहीं था, लेकिन उन्होंने एक मराठी व्यक्ति के बारे में बताया जिसने उन्हें नया कमरा दिलवाया था. मैं उनके पास गया तो उन्होंने बताया कि वे यहां नहीं रहते अब. फिर कुछ दूसरे इलाकों में ढूंढा, लेकिन उनका कुछ पता नहीं चला. फिर वापस दुर्गाबाड़ी आ गया. शाम को एक लड़के ने उनके बारे में बताया. हम वहां गए तो पता चला कि जिस मराठीभाषी व्यक्ति ने प्रोफेसर को कमरा दिलाया, उसके मकान के बिल्कुल पीछे ही था प्रोफेसर का घर. उन्होंने हमसे झूठ बोला था. जब हम पहुंचे तो प्रो. सिरास का कमरा बाहर से लॉक था. हम आधा घंटा थे वहां, लेकिन उनकी कोई जानकारी नहीं मिली. दूसरे दिन भी उनका घर बंद था. मैंने अपने एडिटर से बात की तो उन्होंने अलीगढ़ में ही एक दूसरी रिपोर्ट पर लगा दिया. ये रिपोर्ट करते हुए मुझे एक दूसरे रिपोर्टर से पता चला कि उस कमरे में उनकी लाश मिली.
उनकी मौत किन वजहों से हुई इस पर अब भी रहस्य बरकरार है. आपको क्या लगता है?
बहुत सारे लोग कहते हैं कि उनकी हत्या हुई है, लेकिन उनके आत्महत्या करने से भी इंकार नहीं किया जा सकता. मेरे हिसाब से ये एक आत्महत्या थी, हत्या की संभावना बहुत ही कम है. वह बहुत निजी व्यक्ति थे. किसी को भी नहीं पता था कि उनके मन में उस वक्त क्या चल रहा था. ऐसे में ये नहीं कहा जा सकता कि हाईकोर्ट की ओर से पक्ष में फैसला आ जाने के बाद वो खुश ही थे.
आपके लिए फिल्म ‘अलीगढ़’ की खास स्क्रीनिंग कराई गई थी? आपको ये फिल्म कैसी लगी?
फिल्म की कहानी बहुत ही अच्छी तरह से लिखी गई है और फिल्म भी बहुत अच्छी बनी है. इसे थोड़ा सा नाटकीय बनाया गया है, जैसे मैं प्रोफेसर से कभी नहीं मिला, लेकिन फिल्म में मिलते हुए दिखाया गया है. हालांकि ये कहानी ऐसी है कि आप इसमें बहुत सारा ड्रामा नहीं जोड़ सकते. प्रोफेसर के बहाने फिल्म एलजीबीटी समुदाय के अधिकारों के बारे में बात करती है. एक बात मैं जरूर कहूंगा कि मैं प्रो. सिरास से नहीं मिला, लेकिन मनोज बाजपेयी ने जिस प्रभावशाली तरीके से प्रोफेसर का किरदार निभाया है, वह एकदम वैसा ही है जैसा मैंने प्रोफेसर के बारे में कल्पना की थी. लगता है कि प्रोफेसर ऐसे ही रहे होंगे.