
जेएनयू में कथित देशविरोधी नारे को लेकर बवाल हुआ तो छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी से पहले उनके भाषण में ‘जय भीम, लाल सलाम’ का नारा शामिल था. उन्होंने अपने भाषण में कहा, ‘जब हम महिलाओं के हक की बात करते हैं तो ये (संघ-भाजपा के लोग) कहते हैं कि आप भारतीय संस्कृति को बर्बाद करना चाहते हो. हम बर्बाद करना चाहते हैं शोषण की संस्कृति को, जातिवाद की संस्कृति को, मनुवाद और ब्राह्मणवाद की संस्कृति को. आपकी संस्कृति की परिभाषा से हमारी संस्कृति की परिभाषा तय नहीं होगी. इनको दिक्कत होती है जब इस मुल्क के लोग लोकतंत्र की बात करते हैं, जब लोग लाल सलाम के साथ नीला सलाम का नारा लगाते हैं.’ उन्होंने भाषण खत्म किया तो ‘इंकलाब जिंदाबाद, जय भीम, लाल सलाम’ नारा लगाया. कन्हैया जेल से छूटे तो भी उनके भाषण में ‘लाल और नीले’ झंडे की एकजुटता का संदेश प्रमुखता से मौजूद था. इसके पहले हैदराबाद में रोहित वेमुला प्रकरण में भी यह नारा गूंज रहा था. हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, जेएनयू और अन्य विश्वविद्यालयों में घटी घटनाओं के बाद आंबेडकरवादी और मार्क्सवादी संगठनों की नजदीकी पर चर्चा जोर पकड़ रही है.
सत्ता में आने के बाद भाजपा ने लगभग सभी इतिहास-पुरुषों पर अपनी दावेदारी पेश की. इसकी शुरुआत सरदार पटेल से हुई थी और फिर इस कड़ी में गांधी, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, आंबेडकर आदि एक-एक कर जुड़ते गए. 14 अप्रैल को देश भर में आंबेडकर की 125वीं जयंती बड़े धूमधाम से मनाई गई, जिसे लेकर सभी राजनीतिक दलों ने भव्य आयोजन किए. इस दिन सोशल मीडिया पर भी आंबेडकर खूब सेलिब्रेट किए गए. इस सेलिब्रेशन में यह सवाल शामिल था कि ‘जय भीम और लाल सलाम’ की भविष्य की संभावनाएं क्या हैं.
आईआईएम इंदौर के शोधछात्र विनोद कुमार कहते हैं, ‘भारत में वामपंथियों की गलती यही थी कि वे इस देश में गरीबी की सबसे बड़ी वजह और हकीकत ‘जाति’ को उपेक्षित करते रहे (और इसी का फल भुगता है). अब अगर नई पीढ़ी समझ रही है, बदल रही है तो स्वागत कीजिए. पुरानी पीढ़ी के आधार पर हर पीढ़ी पर संदेह करना ही तो मनुवादी सोच है, हमें इसी से लड़ना है. खुद पर भरोसा रखिए. अगर इस देश के मनुवाद से लड़ना है तो सारी गैरमनुवादी ताकतों को एकजुट होना होगा; हमारी ताकत अपने हित को समझने में, हमारी समझ में होगी हमारे संदेह में नहीं. भारत में वामपंथ का मार्ग सही मायने में आंबेडकर की तरफ बढ़े बिना हासिल नहीं होगा.’
[symple_box color=”red” text_align=”left” width=”100%” float=”none”]
आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद की सिंथेसिस की जरूरत है : अशोक कुमार पांडेय
वामपंथ और दलित राजनीति के बीच एक तरह का अंतः संबंध शुरू से रहा ही है. वाम आंदोलन सर्वहारा का पक्षधर है और इस देश के सर्वहारा वर्ग का सबसे बड़ा हिस्सा दलित, पिछड़े और आदिवासी समुदाय से आता है, जो भूमिहीन है, कृषि मजदूर है और शहरी समाज के सबसे निचले तबके की नौकरियों में शोषण का शिकार है. आंबेडकर के समय से ही दोनों आंदोलनों को करीब लाने की कोशिशें हुईं, संवाद भी हुए लेकिन अगर एका नहीं बन सका तो उसके लिए दोनों के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियां जिम्मेदार रहीं. वाम आंदोलन में शामिल कई तत्व जातीय पूर्वाग्रहों से मुक्ति नहीं पा सके थे, पार्टी संवैधानिक और गैर-संवैधानिक तरीकों से इंकलाब की राहों को लेकर एक दिग्भ्रम जैसी स्थिति में रही और डॉ. आंबेडकर संविधान को लेकर आशान्वित थे, उनके नजरिये में यह दलित समुदाय को उसके अधिकार दिलाने के लिए एक महत्वपूर्ण जरिया था. बाद में नामदेव ढसाल जैसे विद्रोही दलित कवि ने मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद की एक सिंथेसिस करने की कोशिश की. राव साहब कसबे की किताब ‘मार्क्स और आंबेडकर’ इस दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल थी, लेकिन अलग-अलग वजहों से कोई ठोस पहल नहीं हो पाई. कम्युनिस्ट पार्टियां वर्ग की अपनी आर्थिक समझ को भारतीय परिस्थितियों में जाति से नहीं जोड़ पाईं, हालांकि दलितों पर होने वाले अत्याचारों को लेकर पार्टियों की पक्षधरता हमेशा साफ रही. बिहार, झारखंड, ओडिशा सहित जिन जगहों पर सीधे किसान संघर्ष चले, वहां भूमिहीन दलितों की एक बड़ी संख्या जुड़ी भी. दलित राजनीति भी रामदास अठावले से मायावती तक तमाम मोड़ पार करती रही. कभी उत्तर प्रदेश में भाजपा से गठबंधन हुआ, कभी महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ दोस्ती हुई. हिंदू राष्ट्र को दलितों के लिए सबसे खतरनाक बताने वाले डॉ. आंबेडकर के अनुयायियों के लिए यह विचलन सहज तो नहीं ही था.
आज के समय वामपंथ और आंबेडकरवाद के सामने सबसे बड़ी चुनौतियां हैं- आवारा पूंजी व जल-जंगल-जमीन की लूट और दक्षिणपंथी फासीवाद का उदय. रोहित वेमुला के साथ प्रशासन का व्यवहार और उसकी आत्महत्या इस संकट को बहुत स्पष्टतः व्यंजित करती है. जाति और आर्थिक वंचना का दंश साथ मिलकर इस संकट को इतना गहरा कर देता है कि संघर्ष के अलावा कोई रास्ता नहीं दिखता. इसलिए लाल और नीले का साथ आना कोई चुनावी गठबंधन या सत्ता का खेल नहीं, देश की वंचित-दमित जनता की मुक्ति का सवाल है. यह ऐतिहासिक आवश्यकता है कि आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद की एक ऐसी सिंथेसिस प्रस्तुत की जाए जो भारत में मुक्ति के एक लंबे और फैसलाकुन संघर्ष के लिए आवश्यक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन के लिए वैचारिक आधार दे सके. आज लेखकों-बुद्धिजीवियों और छात्रों के बीच इसे लेकर एक सहमति-सी बनती दिख रही है, देखना यह होगा कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व इसे कितनी गंभीरता से लेता है. आज अगर वह इस ऐतिहासिक मौके को चूकता है तो यह दोनों आंदोलनों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा.[/symple_box]
भागलपुर के एक कॉलेज में अध्यापक डॉ. योगेंद्र ने फेसबुक पर लिखा, ‘मैं इंतजार कर रहा हूं कि नीला और लाल कब और कहां मिल रहे हैं. जेल से लौटने के बाद जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया ने बयान दिया था. इससे नीला-लाल की बहस जोर पकड़ ली है. लाल के बड़े-बड़े नेता चुप मारे हुए हैं. लगता है कि ऐसा होने पर उनकी कुर्सी को खतरा है. यह सर्वेक्षण मजेदार होगा कि लाल के मौजूदा नेतृत्व में नीला कितना प्रतिशत है?’
इस बहस ने शायद आरएसएस-भाजपा को असहज स्थिति में ला दिया है क्योंकि दलितों और पिछड़ों का मार्क्सवादियों के साथ जाना भाजपा के लिए खतरे की घंटी है. आंबेडकर जयंती पर आरएसएस के मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ और ‘ऑर्गनाइजर’ ने मार्क्स और आंबेडकर को साथ जोड़ने को ‘कुत्सित कृत्य’ बताकर उसकी कड़ी आलोचना भी कर डाली है.
इस नए समीकरण की चर्चा कैंपसों से बाहर लेखक समुदाय में भी है. रोहित वेमुला प्रकरण के बाद दिल्ली में पांच लेखक संगठनों ने ‘आजाद वतन, आजाद जुबान’ नाम से एक आयोजन शुरू किया है. यह आयोजन आंबेडकर की 125वीं जयंती की पूर्व संध्या पर भी गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली में संपन्न हुआ. यह अपने आप में ऐतिहासिक है कि इन पांच संगठनों में तीन वामपंथी संगठन- ‘जनवादी लेखक संघ’, ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और ‘जन संस्कृति मंच’ हैं और दो दलित संगठन- ‘दलित लेखक संघ’ और ‘साहित्य संवाद’. इन संगठनों का कहना है, ‘भाजपा का हिंदूवादी राष्ट्रवाद प्रगतिशील, समाजवादी और दलित तबकों के लिए खतरा है जिससे मिलकर लड़ना ही कारगर उपाय हो सकता है.’
इस कार्यक्रम में शरीक हुए जेएनयू छात्रसंघ महासचिव रामा नागा ने कहा, ‘सवाल यह नहीं है कि हमारे झंडे का रंग लाल है या नीला, सवाल यह है कि इन दोनों को मिलकर भगवा से लड़ना है. जिस तरह से हम पर हमले बढ़े हैं, हम साथ आने को मजबूर हुए हैं. सवाल लाल-नीले के विलय या एक हो जाने का नहीं, सवाल साथ मिलकर फासीवाद से लड़ने का है.’
आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद के साथ आने की इस नई परिघटना पर जेएनयू के शोधछात्र ताराशंकर कहते हैं, ‘मेरा मानना है कि चूंकि एक बड़ी लड़ाई है पूंजीवाद के खिलाफ, जो आर्थिक गैर-बराबरी का मसला है, और जो तमाम तरह की गैर-बराबरी को जन्म देता है, उस बड़ी गैर-बराबरी के समानांतर इस तरह की हजारों लड़ाइयां हमें लड़नी होती हैं. जैसे कि जेंडर का मसला हो, जाति का मसला हो, छुआछूत का मसला हो, आजादी हो. इस तरह की तमाम समानांतर लड़ाइयां लड़नी होती हैं. चूंकि मार्क्सवाद एक जगह थोड़ा-सा फेल होता है कि जाति के मसले को चिह्नित नहीं कर पाया जो भारत में बहुत बड़ा मसला था. हालांकि, उसका भी आधार शुरू में आर्थिक रहा है, लेकिन बाद में वह मानसिक स्तर पर चला गया. इसलिए इसकी लड़ाई भी साथ-साथ लड़नी बहुत जरूरी है. इसलिए इस संबंध में आंबेडकर और मार्क्स का एक साथ आना बहुत जरूरी हो जाता है. हाल में कैंपसों में बड़ा ध्रुवीकरण हुआ है.’
भाकपा माले की कार्यकर्ता कविता कृष्णन आंबेडकरवादी और मार्क्सवादियों के साथ आने को वक्त की जरूरत बताते हुए कहती हैं, ‘क्योंकि आज जिस तरह से लोकतंत्र पर हमला हो रहा है, वह खतरनाक है. आंबेडकरवादी और मार्क्सवादी ही नहीं, मुझे तो लगता है कि आंदोलनकारी जितनी ताकतें हैं, गांधीवादी भी, समाजवादी भी, आपस में बहसें करते हुए एकता को मजबूत कर सकते हैं. इसकी जरूरत सब महसूस कर रहे हैं. यह कोई बड़ी पार्टियों के स्तर से नहीं तय हुआ है. यह एकता स्वाभाविक रूप में आंदोलनों में बढ़ी है. क्योंकि जो हमला हो रहा है, वह काॅरपोरेट गाइडेड फासीवादी हमला है जिसमें वामपंथी और आंबेडकरवादी छात्रों को निशाना बनाया गया. दूसरी ओर कई दलित पार्टियां सत्ता में भागीदार भी हैं. तो जो युवा तबका है, उसे लगता है कि एक ऐसे राजनीतिक मॉडल की जरूरत है जो आंबेडकरवादी आंदोलन को आगे बढ़ाए और वामपंथी आंदोलन के साथ भी मजबूती स्थापित करे.’
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शोधार्थी और आइसा के कार्यकर्ता रामायण राम कहते हैं, ‘यह भगत सिंह और आंबेडकर को एक साथ याद करने का समय है. क्योंकि उन्हीं के विचारों के आधार पर शोषणमुक्त समाज बन सकता है. आज जब राष्ट्रवाद की नई और संकीर्ण परिभाषा गढ़ी जा रही है तब आंबेडकर याद आते हैं. हमें उनकी संकल्पनाओं को स्वीकार करने की जरूरत है. आज वर्णव्यवस्था का समर्थन हो रहा है, भेदभावपूर्ण जातिवाद को संस्थाबद्ध करने की कोशिश की जा रही है. देश भर के विश्वविद्यालयों में जातीय युद्ध छेड़ा जा रहा है और ऐसा करने वाले भी आंबेडकर का नाम ले रहे हैं. जाति उन्मूलन ही बाबा साहब के राष्ट्रवाद का आधार था. बाबा साहब का कहना था कि दस सालों में लोकतांत्रिक ढंग से राजकीय समाजवाद लागू हो. हमें उनके इस सपने को लेकर आगे बढ़ने की जरूरत है.’
जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद के शोध छात्र रमाशंकर सिंह का मानना है, ‘आज जब विश्वविद्यालयों में जय भीम, लाल सलाम का नारा लग रहा है तो इसे तात्कालिक रूप से ही नहीं देखना होगा. इसकी पृष्ठभूमि तैयार हो रही है. पिछले साल बांदा जिले में सम्मेलन हुआ जिसमें मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, अनीता भारती, आनंद तेलतुंबड़े ने हिस्सा लिया. इसमें प्रकाश करात भी आए थे. कहा गया कि किसान, मजदूर, दलित और स्त्री की मुक्ति के समान धरातल मार्क्स और आंबेडकर के बताए रास्ते से ही आ सकते हैं.’
इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एक शोध छात्रा अपना नाम न छापने की शर्त पर कहती हैं, ‘आज गहराते आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक संकट में आंबेडकरवादियों और मार्क्सवादियों का नजदीक आना जरूरी व स्वागत योग्य है. लेकिन इसके साथ ही कई सवाल भी हैं. आंबेडकरवाद सवर्ण वर्ग को ही अपना मूल शत्रु मानता है. निश्चित तौर पर, सवर्ण वर्चस्व व मानसिकता के खिलाफ संघर्ष जरूरी है, लेकिन क्या यह संघर्ष पूंजीवादी आर्थिक संकट, अभाव, शोषण व गैर-बराबरी, पूंजीवादी मुनाफे की लूट के खिलाफ भी होगा? मजदूर, किसान, कर्मचारी, छात्र-नौजवान, महिला- इनके कॉमन प्रश्न क्या आंदोलन के केंद्र बनेंगे? सामाजिक आंदोलनों से कटे रहने और अपनी गंभीर ऐतिहासिक गलतियों के चलते समाज में अपना प्रभाव नहीं बना पा रहे प्रमुख मार्क्सवादी दल बढ़ते फासीवादी खतरे से निपटने के लिए यह शॉर्ट कट अपना रहे हैं, ताकि समाज के एक हिस्से में अपनी जगह बना सकें.’