कहानी: पारो आफ्टर द ब्रेक

kahaniउसने कभी शरतचंद्र का लिखा कुछ भी नहीं पढ़ा था. उसने देवदास फिल्म भी नहीं देखी थी. उसके पति ने जरूर देवदास देखी थी और उसे पारो कहना शुरू कर दिया था. पारो के लिए पारो शब्द भी वैसा ही था जैसा कि रोपा होता या कोई भी दूसरा अनजाना शब्द, पर पारो के पास इतनी समझ थी कि उसके बच्चों का बाप जब उसे पारो कहता है तो उसकी अपनी महत्ता बढ़ जाती है.

महत्ता की भूख पारो में नई-नई नहीं पैदा हुई थी. बचपन से ही सब भाई-बहनों में बड़ी होने के कारण वह महत्ता पर अपना एकाधिकार समझती थी. उसकी इस भूख के कारण ट्यूशन कर-करके परिवार पालने वाले पिता को खीझ होती, मां को गुस्सा आता, इसलिए उन्होंने सतरहवां लगते ही उसे चटपट दूसरे घर पहुंचा दिया और सुकून की सांस ली. पारो अपनी भूख को दहेज के रूप में ले गई. ससुराल में ससुर नहीं थे, सास थी तो एकदम गऊ. ननद पहले ही दूसरे घर निपटा दी गई थी. एक कमाऊ पारो का देवदास ही था इसलिए पारो की भूख दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ती गई.

साल-दो साल में ननद आती तो कसमसाती, ‘भाभी, मां से कितना काम करवाती हो! पानी में ही पड़ी रह जाती है सारे दिन. देखती नहीं, बेचारी की उंगलियां गल गई हैं.’

पहली बार में पारो का विरोध हल्का था दूसरी बार कुछ तेज और तीसरी बार तो उसने सीधे ननद का झोंटा पकड़ा और उसे कूट डाला. अपनी इज्जत का तमाशा न बनाने की प्रबल चाह में बेचारी ननद रानी ने आवाज ही बंद कर दी. दो दिन रो-रोकर आंखें सुजाती रही और फिर अगले दिन वापस चली गई. फिर कभी मायके न लौटने की कसम खाते हुए.

पारो की सास ने कुछ समझा, कुछ नहीं समझा. जो समझा उसमें से भी बहुत सारा अनसमझा ही जताया. केवल घर की शांति और इज्जत बचाए रखने के लिए पारो को उसकी सास द्वारा पूरी महत्ता सौंप दी गई. बुढ़िया ने मुंह पर ताला डाल लिया. हाथ-पैर पूरी तरह घर के काममाज को सौंप दिए. आंखों पर मोटे परदे डाल लिए. भूख को कसम दे दी कि बासी और पानी के अलावा कुछ और न मांगे. नग्नता को वह पारो की उतरनों से ढक लेती. बीमार होती तो छुपा कर काढ़ा बनाती और छक लेती.

दस-बीस दिन में कभी देवदास पूछ लेता ‘मां ठीक हो?’

बुढ़िया पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण देखती धीरे से कह देती ‘हां बेटा, ठीक हूं.’

उधर पारो परेशानियों में घिरी रहती. पेट फूलता-पिचकता रहता. खट्टी-मीठी, चटपटी चीजों की दरकार होती रहती. कभी उसकी पाजेब टूट जाती तो कभी चूडि़यां पुरानी पड़ जातीं. कभी किसी पड़ोसिन की साड़ी पर दिल आ गया होता तो कभी दुनिया का सबसे जरूरी काम उसे चिड़ियाघर घूमना ही लगने लगता. इस प्रकार से देवदास जी महाराज अपनी नौकरी और आटा-दाल-सब्जी लादने के बाद बचे सारे समय में पारो की फरमाइशें ही पूरी करने में लगे रहते. मां की ओर देखते तो कब देखते?

देवदास की मां ने खामोशी से पारो के बच्चे नहलाए-धुलाए-चमकाए. उनका रोना-गाना सुना, गू-मूत संभाला और घर का झाड़ू-पोंछा निपटाते-निपटाते एक दिन खुद ही दुनिया से निपट गई. पारो को गंगाजल पिलाने की तकलीफ दिए बिना ही!

जब पारो की सास को लाश के रूप में पहचाना गया तब वह किसी अज्ञात नृत्यशैली की अबूझ मुद्रा में थी. उसकी मुद्रा को कोई बदल नहीं सका. कई-कई लोगों के प्रयास व्यर्थ गए. शायद दूसरी दुनिया से बुलावा आने पर वह बिना वेतन और छुट्टी की चाकरी से निवृत्ति मिलने की खुशी में नाच उठी होगी और फिर उसने अपनी खुशी के लिए कभी समाप्त न होने का वरदान मांग लिया होगा. जब तक वह देह रही नृत्यमुद्रा में रही. जब फूल बनी तब ही नृत्य अदृश्य हुआ. वैसे ही जैसे कि जीते-जी वह बहू के भय से प्रतिपल नाचती रही. अशक्त होने पर भी. बीमार होने पर भी. लेकिन उसका वह निरीह नाच किसी को दिखाई नहीं दिया.

पारो बेचारी तेरह दिन झेल गई. जो भी रिश्तेदार आया उसने कुछ-न-कुछ दबे-खुले गले से कहा-ही-कहा.

आखिर एक ही घर में रहते हुए भी क्यों एक जिंदा औरत मरी हुई औरत को कई घंटो तक नहीं देख पायी.

समय-परिस्थिति को देखते हुए पारो चुप थी अन्यथा मुंह नोच लेने में उसे संकोच नहीं होता. घर मेरा, मैं चाहे जो करूं, तुम साले रांड-भड़वे, कुकुर-बिडाल, कौन होते हो मुझे टोकने वाले कि मैं क्या देखूं क्या न देखूं!

तेरहवीं के बाद सब रिश्तेदार भी निपट गए. पारो के चारों बच्चे स्कूल जाते थे, चले गए, देवदास रोटी कमाने अपनी नौकरी की ओर. तेरह दिन बाद पारो को चैन मिला था. चमचा भर घी अपनी दाल में छोड़ते हुए उसने सोचा बड़े सड़े-सड़े दिन काटे हैं अब सजे-सजे दिन होने चाहिए! पर कैसे? पापड़-अचार के चटखारे लगाते हुए उसने सोचा कि यहां की चिल्ल-पों में तो दिन सजने से रहे! सच बात तो यह है कि बुढ़िया के जाने के बाद मार काम-ही-काम दिखेगा हर तरफ. सपरेगा कैसे? और जो अड़ोसी-पड़ोसी दबी-दबी जबान में मरी बुढ़िया की तरफदारी कर रहे थे, वे खुलेआम पारो की निंदा करने लगेंगे.

फिर शहर में रस है भी कहां? यहां की तो रीत ही निराली है. एक तो मरे घर इत्ते छोटे-छोटे हैं कि कोना-कोना दिखाई दे जाता है. लोग तो ऐसे जैसे इनके आगे कोई दूसरा कुछ है ही नहीं! इससे तो गांव भला. यहां महरी भी लगाएंगे तो पैसा लेकर वह सौ नखरे दिखाएगी, वहां गांव में तो गुड़ की डली में काम करने वाले मिल जाते हैं. खेत बटाई पर हैं ही, घर का काम गुड़-चना, गेहूं-चावल देकर ही निपट जाएगा.

शाम को पारो ने देवदास से गांव जाने की इच्छा व्यक्त कर दी.

‘बच्चें की छुट्टी होगी तब जाना.’ देवदास के इस सपाट उत्तर पर प्रकटतः पारो चुप रही पर मन उसका ऐंठ गया.

दिन-दिन भर घर के कामों में माथा ठुकता, शरीर दुखता. कम्बख्त बुढ़िया कुछ साल और नहीं जी सकती थी! बड़की रोटी बनाने लायक हो जाती तब मरना चाहिए था.

कुछ दिन बीत जाने पर पारो के मन ने उससे एक और बात कही. मन ने कहा ‘पारो री, मर्द तो तेरा झड़ लिया! यहां कौन तेरा दर्द देखने बैठा है? गांव में तो दो-दो देवर आस लगाए राह तकते होंगे. रसिया और विदेशिया!’

पारो समूची लार में लसलसा उठी.

फिर उसने एक स्वांग भरा. एक सुबह वह रात देखे काल्पनिक स्वप्न की भव्य व्याख्या करने लगी. अम्मा ने आदेश दिया है कि बहू मेरी, गांव जाओ, पुरखों का घर संभालो वरना मेरी आत्मा को चैन नहीं मिलेगा.

स्वप्न इस तरह हावी हुआ कि देवदास को हथियार डालने पड़े. जब तक देवदास ने हफ्ता भर छुट्टी की व्यवस्था की पारो ने बड़की बिटिया को रोटी बेलना-सेकना सिखा दिया और छुटकी को आटा गूंधना. दाल-चावल-सब्जी बनाना देवदास को आता था.

पारो निश्चिंत होकर गांव चली गई. उसे छोड़ कर देवदास बच्चे संभालने और कमाने शहर लौट गया. उसके गांव में रहते पारो ने जोर-शोर से पुरखों के घर के जाले साफ किए, झाड़ू-बुहारी भी की. कुछ चादरें-परदे धो लिए और क्यारियों में कुछ फूल भी बो दिए थे.

भुखमरी की कगार पर पहुंचे एक परिवार को उसने गोद ले लिया. केवल एक समय के दाल-भात के ऐवज में सुखिया उसका दोनों समय का चूल्हा  सुलगा जाती और ईंधन-पानी की भी पूरी जिम्मेदारी संभालती. उसका बड़ा बेटा सौदा-सुलफ भी कर देता और आंगन-रसोई भी लीप-पोत देता. बुधिया का छोटा भाई सुधिया बरतन बड़े चमका कर धोता-मांजता, साबुन लगे कपड़ों को फींच-फींच कर चकाचक कर देता. तीनों जन सुबह-शाम पारो की चाकरी करके शाम का दाल-भात-साग बनाते. पारो अपने हिस्से की दाल अलग करके लोटा भर पानी और चमचा-चमचा भर नमक-मिर्च बाकी दाल में डाल कर उन तीनों को भात के साथ खाने को देती, कभी-कभी बचा-खुचा साग भी.

अंधेरा होने तक वे तीनों चले जाते. रह जाती पारो और उसकी सजी-सजी रातें, जिनका मालिक रसिया था. अंधेरे में दबे पांव रसिया आता. तब तक पारो रायता, हलुवा या खीर अपने मन का कुछ-न कुछ रांध चुकी होती. फिर रसिया की पोटली खुलती. रातें गुलजार होतीं. रस बहता. भोर का उजाला सब कालिख समेट लेता. सुधिया बरतन-कपड़े चमकाता, बुधिया दुकान-दुकान दौड़ लगाता, घर-आंगन सजाता. सुधिया ईंधन से आग का रिश्ता जोड़ती. फिर वे तीनों चले जाते खेतों में भूखे पेट खटने के लिए. शाम को पानी-पानी दाल से भरपेट भात पाने का विश्वास लिए.

पारो का दिन सार्वजनिक था. बीच में कई काम थे. खाना था, बतियाना था, नहाना-धोना, सजना-संवरना था. तनिक-तनिक सी छेड़छाड़ थी. रसवर्षा थी.

सुख के दिन बीतने का भला पता चलता है? पारो को भी नहीं चल रहा था.

कभी-कभी रसिया अपने घर-खेत के काम से पारो के पास नहीं आ पाता. बस फिर तो पारो उसे घंटों तरसाती-सताती, कान पकड़वाती, नाक रगड़वाती. पर काम तो काम!

रसिया का दर्जन भर लोगों का परिवार, थोड़ी-सी खेती, दो-चार गाय-भैंस, खींचतान लगी ही रहती. उसका बड़ा भाई पास के कस्बे में छोटी-सी दुकान करता था, वहीं उसने एक दुकान की व्यवस्था रसिया के लिए भी कर दी. रसिया पारो के लालच में गांव छोड़ना न चाहता था. बहानेबाजी करता रहा, पर आखिर उसकी चली नहीं.

हर हफ्ते गांव आने का वादा करके वह चला गया. पारो दो दिन में ही बेचैन हो उठी और फिर विदेशिया देवर के जरा-सा इशारे पर ही टप्प से उसकी झोली में टपक पड़ी. दिन तो सुहाने थे ही, रातें भी फिर से गुलजार हो गईं. रसिया के लिए हफ्ते में एक दिन सावधानी के साथ रखना होता. स्वाद भी बदल जाता.

विदेशिया दो महीने के लिए गांव आया था. उसके लौटने में अभी एक हफ्ता बाकी था कि एक दिन उसके सामने रसिया सीना तान कर खड़ा हो गया. पारो ने बड़ी मुश्किल से उसका ध्यान बंटाया. लाख कहती रही कि उसके पेट में दर्द था, पुदीनहरा मांगने आया था, पर रसिया के भीतर तो शक की गांठें गड़ रही थीं. अगले दिन उसने कस्बे के लिए विदाई ली और आधे दिन बाद वापस लौट पड़ा. रात को वह पारो की खिड़की के तले पहुंचा.

उधर विदेशिया ने द्वार से प्रवेश किया. रसिया भीतर के स्वर सुनता हुआ अंधेरे को घूरता रहा.

अगली सुबह गांव के लोगों ने अरहर की ऊंची फसल के बीच खून में नहायी विदेशिया की ठंडी देह देखी.

जिस समय गांव वाले विदेशिया की लाश को घेरे थे उस समय रसिया अपनी दुकान खोल कर झाड़-पोंछ कर रहा था. दिन-भर वह हंस-हंस कर दुकानदारी करता रहा लेकिन शाम को पुलिस देखकर उसकी हंसी गायब हो गई. अनजान बनकर बोला ‘साहब, बताइए मैं आपकी क्या सेवा करूं?’

‘सेवा तो हम करेंगे. तुम थाने चलो’

रसिया ने बड़ा आत्मबल सहेजा. बड़ी नाटकीय प्रतिभा दिखाई. हफ्ते-भर से कस्बे में ही होने की कसमें खाईं लेकिन आखिर पुलिसिया तुड़ैया के आगे कुछ घंटों में ही सच उगल गया. शुद्ध सत्य नहीं मिलावटी सत्य.

कुल मिलाकर कहानी इतनी चटपटी बनी कि पुलिस को तो मजा आया ही आया, अदालत भी हाउसफुल सिनेमाहाॅल लगने लगी.

कहानी में पारो खलनायिका थी और विदेशिया खलनायक. खलनायक और खलनायिका पहले आपस में नायक-नायिका थे फिर नायिका का नायक से मन भर गया और उसने षडयंत्र रच कर विदेशिया को निपटाने और हत्या के इल्जाम से खुद को बचाने के लिए रसिया को शिकार बना डाला. यानी रसिया के हाथ पारो ने हत्या के लिए इस्तेमाल कर डाले बस!

रसिया के पास पक्का वकील था, मजबूत गवाह. रिश्तेदार भी थे, दोस्त भी. पारो के पास कुछ भी नहीं था. वह केवल बुड़बक की तरह रसिया को देख रही थी या गालियां और उल्टे-सीधे बयान देकर अपना पक्ष और कमजोर करती जा रही थी.

आखिर दोनों को बराबर सजा हुई.

गांव-घर से कभी-कभार रसिया को मिलने लोग-बाग आ जाते थे. ‘बेचारा लड़का फंस गया चुड़ैल के चक्कर में’ इसी स्थाईभाव के साथ कूछ सहानुभूति और कुछ समाचार दे जाते थे. पारो को मिलने कभी कोई नहीं गया. पूरा बंदी जीवन उसने सलाखों पर सर पटक कर बिताया.

उस पूरी लंबी अवधि में वर्णन योग्य कुछ है ही नहीं. बोरियत की बातें करने से अच्छा यह समझिए कि पारो की कहानी में एक ब्रेक आया.

गांव की खबर देवदास के दफ्तर तक भी पहुंच गई. रात-दिन एक करके भी जब वह अपना स्थानांतरण दूसरी जगह नहीं करवा सका तो उसने स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली. सहकर्मियों की आंखों का सामना करने का साहस उसमें नहीं था. आंख चुराके काम नहीं चला क्योंकि कान तो चुराये नहीं जा सकते!

किराये की दो कोठरियों में हल्का-फुल्का सामान ही था, वह सब समेट कर देवदास कहां गायब हो गया किसी को नहीं मालूम.

पारो ने सीखचों से बाहर आते हुए सोचा था भला शहर में कौन जानता होगा उसके गांव की बात! पति गऊ का बछड़ा है ही, उसे बातों में बहला लेगी. बच्चे तो शायद कुछ जानते ही न हों. जाने देवदास ने उन्हें क्या बताया होगा! क्या यह कि तुम्हारी मां मर गई? अगर ऐसा कहा होगा तो कोई कहानी बनानी पड़ेगी पर पहले यह जानना होगा कि किस विध मरने की बात उन्हें बतायी गई है. देवदास ने जो बताया होगा उसीसे कुछ जोड़ना पड़ेगा. इस समय देवदास से पंगा लेना ठीक नहीं है. बछड़ा सींग निकाल लेगा! फिलहाल तो आसरा चाहिए और कुछ न भी बनेगा तो गृहस्थी में ही चैन से रह लेगी. अब बच्चे छोटे तो नहीं रह गए होंगे कि काम-ही-काम फैला रहे. अपना-अपना काम खुद करना सब सीख ही गए होंगे. अपने को कुछ करना थोड़े ही पड़ेगा.

पारो खुद को आश्वस्त करते-करते किराये के पुराने घर के बाद दफ्तर भी हो आयी पर कुछ हाथ न लगा. पते-ठिकाने का तो कोई सुराग नहीं मिला, उल्टे विषबुझे तीर मिल गए जिनकी आस भी नहीं थी. अब गांव का ही आसरा बचा था. पारो ने सोचा कि जी कड़ा करके कुछ दिन तो ताने सुनने पड़ेंगे ही, बहुत दिनों तक उसके ही आगे-पीछे घूमने की किसे फुरसत है! रहेगी अपने घर में द्वार बंद करके. बाहर कम निकलेगी. जिन लोगों को उसकी जरूरत होगी वे तो आएंगे ही आएंगे. बस काम चल जाएगा.

पर गांव जाकर पारो को और बड़ा झटका लगा. मकान के द्वार उखड़े थे. छत टूट कर कमरों में समायी हुई थी. जाले, कीड़े-मकौड़े, घास, खर-पतवार, कूड़ा और कुत्ते-बिल्लियों के मल के ढेर तक थे वहां.

बहुत देर वह बाहरी दीवार पर पीठ टिकाये बैठी रही कि शायद कोई आयेगा,  लेकिन कोई नहीं आया. सारी रात वह भीतर एक कोने में गठरी की तरह सिकुड़ी भूखी-प्यासी पड़ी रही. गांव के जागने पर भी उसे नहीं पूछा गया तो वह उन लोगों के अांगन में जा खड़ी हुई जिन्हें खेत बटाई पर दिए जाते थे.

वहां से केवल कुछ सूचनाएं और पानी ही पा सकी पारो. जो पाया वह बहुत ही रूखेपन के साथ मिला था. पहली सूचना यह थी कि देवदास बहुत साल पहले ही अपनी सारी जमीन बेच गया था. जितने में वह पुराना मकान खड़ा था, बस वही जमीन बिन बिकी थी. मिट्टी के मोल भी किसी ने वह माकन नहीं खरीदा जिसके भीतर एक पवित्र आत्मा त्रास पाकर मरी थी. जहां पाप की फसल उगी थी वहां कोई नहीं रहना चाहता था. झोपड़ीवालों ने भी उधर का रुख नहीं किया. जो जीव भले-बुरे, पाप-पुण्य की समझ नहीं रखते थे उन्होंने ही वहां बसेरा बनाया था. यह सूचना पारो को बड़े गर्व के साथ दी गई कि उस खंडहर में कोई गांववाला हगने भी नहीं जाता.

पारो ने गौर किया सचमुच, वहां विभिन्न प्रकार के मलों में मानव मल नहीं था. इससे पारो और भी डर गई.

जितना उससे हो सका, उसने एक कमरा साफ किया. पूरे मकान में एक अधटूटा दरवाजा ही मिल पाया, उसे खींच कर साफ किये कमरे की चैखट पर टिकाया. बस इतना भरोसा हो गया कि कोई बड़ा जानवर नहीं आ पाएगा. एक हल्की-सी आस यह भी जगी कि शायद कोई देह का भूखा-प्यासा आ जाय और साथ में उसके पेट के लिए भी कुछ लेता आये.

आधी रात तक कोई नहीं आया. तब पारो पड़ोसी के अमरूद के पेड़ की शरण में गई. पेड़ ने पारो का पेट और आंचल दोनों भर दिये. पड़ोसिन ने सुबह उठकर अपनी छटी इंद्रिय से चोर का नाम पूछा और जैसे ही उत्तर मिला उसने चीख-चीख कर गालियों से गांव गुंजा दिया.

पड़ोसिन को इस बात का थोड़ा ही गुस्सा था कि उसके फल चोरी हुए, ज्यादा गुस्सा इस बात का था कि पापिन-सांपिन ने उसका फलदार पेड़ छू दिया.

पारो चुपचाप कोने में पड़ी गालियां गुटकती रही. जब भूख लगती घास-फूस के बीच छुपाये अमरूद ही काम आते. अगली रात उसने पानी की चोरी की. उसके खंडहर में कोई बर्तन नहीं था. जहां तक संभव था ढूंढ-ढांढ के बाद एक गर्दन टूटी सुराही और एक प्लास्टिक की बोतल ही उसे मिल पायी थी. उन्हें भरकर वह आधी रात में ही ला पायी. इस बार चोरी के लिए वह दूसरी दिशा में गई थी और इस चोरी का किसी को पता भी नहीं चला था.

जिस गांव में कभी पारो झिलमिलाती-खिलखिलाती घूमा करती थी वहीं अब उसे खाने को निवाला नहीं मिल रहा था, पहनने को कपड़ा नहीं मिल रहा था. पूरा खंडहर तलाश डाला पर कोई बक्सा-अलमारी टूटी-फूटी हालत में भी नहीं मिली. यानी देवदास सारा सामान ठिकाने लगा कर ही गया! दो सिंथेटिक साडि़यां मलवे के ढेर में से निकल आयीं. एक का पल्लू पारो का स्पर्श पाते ही शर्म से झर गया, दूसरी की किनारी पानी-पानी हो गई. कभी जिन्हें पहन कर वह गांव भर में अपनी अमीरी का प्रदर्शन किया करती थी, वे गरीबी में उसके साथ रहते शर्मातीं नहीं क्या?

पर पारो तो उन्हें उस हाल में पहनने से भी नहंीं शर्मायी! कोई चारा नहीं था. चार दिन से वह जिस साड़ी को पहने हुए थी वह धूल-मैल-पसीने में पूरित उनसे बेहतर नहीं लग रही थी.

एक रात जिस आंगन से पीने का पानी डरते-डरते चुराया था, अगली रात उसी आंगन से बिना डरे वह दो चक्कर में नहाने का भी पानी ले आई. इत्र-फुलेल तो रहा दूर उसके पास नहाने का साबुन भी नहीं था. सड़ी-गली साडि़यों के साथ पहनने को न पेटीकोट था, न ब्लाउज. झीने-झीने आवरण में उसने ठंडी-ठंडी रात कंपकंपाते हुए काटी. उससे अगली रात साहस कुछ और अधिक बढ़ चला था तो पानी के लिए उसने तीन चक्कर लगा कर अपने वे कपड़े धो डाले जो जेल, शहर, गांव, खंडहर, अमरूद और पानी की चोरी तक के साक्षी रहे थे. खंडहर भीतर के झाड़ों पर ही उसने जब वे कपड़े फैलाये तो सारी रात उनकी कालिख पर चांदनी हंसती रही.

खंडहर की छाया में चोरी का पानी भले ही प्यास बुझा सकता है लेकिन भूख नहीं मिटा सकता. अमरूद के पेड़ पर पड़ोसिन ने अपनी साड़ी इस तरह खींच-तान कर बांध दी थी कि एक भी अमरूद कोई छू न पाये.

रात का कोई सहारा दिखता न था इसलिए सुबह-सवेरे धुले हुए मैलपूरित कपड़ों को पहन कर वह पल्लू में मंुह लपेट कर एक घर के दरवाजे से जा लगी. जहां गृहस्वामिनी से हंस-हंस कर वह घंटों बतियाया करती थी वहीं थोड़ा सहारा पाने की आस लिए वह टिक गई थी.

गृहस्वामिनी ने सबसे छोटे बच्चे को द्वार पर भेजा. बच्चे ने मां के आदेशानुसार कड़क कर कहा ‘क्या है?’

पारो ने मौका देखकर झट बच्चे को गोद में उठा लिया और लाड़ लड़ाते हुए बतियाने लगी.

अंदर मां के खड़े कानों ने जब देखा कि बच्चा तो बातांे में फिसल गया तो उसे खुद आना ही पड़ा. पारो की गोद से बच्चा छीन कर वह बोली ‘गांव भर में काटने को तुम्हें मेरी ही नाक मिली थी! क्यों आई हो मेरे दरवज्जे?’

‘पांच दिन से भूखी हूं बहन! कुछ कूटने-पीसने का ही काम दे दो तो मुंह अंधेरे करके चली आऊंगी.’

‘बड़े-बड़े काम किये हैं तूने मुंह अंधेरे.’ कहकर गृहस्वामिनी अंदर मुड़ गई.

पारो की आखिरी आस उसी दरवाजे पर थी, वह कैसे उठ जाती? थोड़ी देर में ही एक पोलीथीन की पोटली उसकी गोद में फेंक कर गृहस्वामिनी ने कहा ‘कहे देती हूं, आज के बाद इस दरवज्जे न आ लगना कभी. नहीं तो मुझे घर के मर्दों को बताना पड़ेगा.‘

अब पारो को उठना ही पड़ा. जो भी हो पोलीथीन की पोटली में सूखी-अधसूखी रोटी-सब्जी-नमक इतनी मात्रा में था कि पारो के दो दिन कट गए.

खंडहर में रहने-जीने का जब थोड़ा अभ्यास हो गया, डर के बिना वह गहरी नींद सोई, तभी उसे एक बड़ी साफ आवाज सुनायी दी ‘रसिया भी तेरे साथ होता-सोता था!’

पारो चौंक उठी. यह आवाज विदेशिया की थी. आंखें फाड़-फाड़ कर भी खुली चांदनी में कोई दिखाई नहीं दिया. तो क्या वह भूत बन गया? विदेशिया रे! मैंने तेरा कुछ नहीं बिगाड़ा और तेरी हत्या के लिए मैं जेल काट आई. विदेशिया रे! मैं अंगूठाछाप औरत कहां जाऊं क्या करूं? मुझे मत डराना विदेशिया, मुझे मत डराना.

पारो कांपती रही. गिड़गिड़ाती रही. बांहों में पांव समेटे, घुटनों पर गाल टिकाये उसने बड़बड़ाते हुए रात काट दी. सुबह होने से पहले वह गांव के बाहर की तरफ बने घर की ओर चल पड़ी. शायद उन लोगों को मजूर की जरूरत हो. गांव के बीच न होने से वे शायद वैसी अकड़ न दिखाएं. छुपते-छुपाते वह कई घंटों बाद वहां पहुंची.

आंगन में खाट पर बैठी एक बुढि़या खांस रही थी. खांसी सूखी थी और उसकी संासें उखाड़े दे रही थी. आंखों से आंसू निकल रहे थे और दुर्बल हाथ-पांव कांप रहे थे. पारो लपक कर उसकी पीठ सहलाने लगी. थोड़ी देर में बुढि़या को कुछ राहत मिली तो पारो ने पूछा ‘घर में अकेली हो क्या अम्मा?’

बुढि़या की थकी आंखें बंद थीं. पारो ने उसे सहारा देकर लिटाया. आंगन में पड़े लोटे को हैंडपंप के पास जाकर मांजा-धोया, भरकर लाई और बुढि़या को सहारा देकर पानी पिलाया. पानी पीकर जब लेटी तब बुढि़या को याद आया कि उससे कुछ पूूछा गया था.

‘बेटा-पतोहू गेंहूं काटने गए हैं बिटिया. बच्चा कोई पढ़ने गया, कोई मां-बाप का हाथ बंटाने. जब से बुढ़ऊ नहीं रहे, हम अकेली ही हैं. पर तुम कऊन हो बिटिया?’

‘एक भटकती आत्मा हूं अम्मा!’ पारो ने करुणापूरित स्वर में कहा. अम्मा ने चौंक कर आंखें खोली. पारो को सर से पैर तक परखा. न चेहरा पारदर्शी था, न ही पैर उल्टे थे. भूत न होने की आश्वस्ति मिलते ही फिर आखें बंद होने लगीं.

‘सभी भटकती आत्मा हैं बिटिया! इस पिरथवी पर भटकने ही आये हैं. ठिकाना तो ऊपरै है!’

पारो का जी भी कुछ ठिकाने आया. चारों तरफ नजर घुमाकर उसने पूछा ‘खाना खा चुकीं अम्मा?’

‘ना बिटिया! मन नहीं है अभी. बहू ढक-तोप कर रख गई है खटिया तले.‘ फिर तनिक पारो की हालत पर गौर करके कहा ‘तुम्हंे भूख हो तो तुम खा लो.’

‘खाऊंगी अम्मा! तुम्हारे साथ ही खाऊंगी, तब तक पहले आंगन बुहार लूं.’

‘कूड़ा है का?’ अम्मा ने तनिक गर्दन उठा कर देखा ‘हां है तो. चाहो तो बुहार लो.‘

आंगन विराट था. उसमें कहीं बर्तन बिखरे थे, कहीं कपड़े फैले थे, कहीं टूटे-फूटे उपले पड़े थे, कहीं सूखी लकडि़यां बिखरी थीं. पारो ने पहले उन सबकी अलग-अलग ढेरियां कीं फिर झाड़ू लगाई.

‘सो गईं अम्मा?’

‘ना, सोई नहीं. ऐसे ही झपकी आती रहती हैं सारे दिन. रातभर तो खांसी जगाया करती है बिटिया.’

‘बर्तनों को मक्खियां लग रही हैं. मांज-धो कर रख दूं अम्मा?’

‘अरी, मेरे पास रुपया-पैसा कुछ नहीं है. काहे के लिए मांजेगी? जब हाथ-पैर में तनिक जान लगेगी आप ही मांज-धो लूंगी.‘

‘पैसा-रुपया नहीं चाहिए अम्मा! हो सके तो दो निवाले दे देना. मैं रोज तुम्हारी सेवा कर जाया करूंगी. तुम बोलो तो यहीं पड़ी रहूं तुम्हारे पैरों के पास. जमीन पर.’

‘ना रे ना पगलिया! खुद मरेगी, हमें भी मरवाएगी. जा मांज ले बरतन मांजने हैं तो, तब रोटी खा लेंगे.’

पारो ने रगड़-रगड़ कर बर्तन चमकाए. हैंडपंप चला-चलाकर उन्हें धोया और झव्वे में भरकर धूप में रख दिया.

अम्मा उठ कर खटिया पर बैठी. बर्तन देख मुस्कराई ‘हमसे तो दम नहीं लगता. तुमने बढि़या चमका दिए.’

‘रोज चमका दूंगी अम्मा.’ पारो आश्वासन चाहती थी.

बुढि़या ने खटिया तले हाथ डाला. डलिया उठाकर खटिया पर रखी. ऊपर से ढकी परात उठी तो पारो के मुंह में पानी भर आया. बुढि़या ने एक रोटी पर तनिक-सी चटनी और साग रख बाकी डलिया पारो की ओर सरका दी. पारो ने भी संकोच में एक रोटी पर ही साग-चटनी रख कर ले ली.

भूखे पर दया करके अम्मा ने एक रोटी में ही ‘पेट भर गया’ ‘पेट भर गया’ का नारा बुलंद कर दिया. पारो को बड़ी राहत मिली.

‘चटाई बिछा कर सो लो.’ अम्मा ने कहा और पारो ने तुरंत आदेश का पालन किया. तीन घंटे बाद उसकी नींद टूटी. अम्मा बिटिया-बिटिया गुहार रही थी. हाथ में चाय के गिलास थे.

‘लेओ, चाय पियो.’

‘हमसे कह देतीं अम्मा! काहे परेशान हुई चाय बनाने के लिए?’

‘अरे तुम क्या हमारी बहुरिया हो जो तुमसे कहते!’

पारो हिल गई. चुपचाप चाय पी. टोहती रही कि बुढि़या कुछ बोले तो मन का भेद मिले पर चाय का साथ केवल चुप्पी ने ही दिया.

‘अम्मा साबुन दे दो तो ये कपड़े धो डालूं.’ आंगन वाली कपड़ों की ढेरी की ओर इशारा कर पारो बोली.

अम्मा ने बिना कुछ कहे साबुन दे दिया. पारो ने बिना कुछ कहे हैंडपंप चला-चला कर सारे कपड़े धो डाले. एक-एक कपड़ा झटककर रस्सी पर फैलाया और साबुन लौटाने अम्मा के पास आई. अम्मा ने साबुन वापस उसकी ही हथेली पर रख कर कहा ‘ले जा. अपने कपड़े भी तो धोने चाहिए.’

पारो से कुछ कहते न बना. उसके कपड़ो के एक-एक रेशे पर मैल की दस-दस पर्तें थीं.

‘रोज सुबह आ जाऊं अम्मा?’ उसने पूछा तो जवाब मिला ‘जल्दी न आना. आज ही की बेला आना.’ बात पारो की समझ में आ गई कि बेटा-बहू जब काम पर जा चुकेंगे तब ही आना.

रात को उसने पड़ोसी के नल से पानी चुराया और अपनी मेहनत से कमाए साबुन से अपने कपड़े धोए. एक नहीं अनेक बार वह गर्दन टूटी सुराही और प्लास्टिक की बोतल को भर-भर कर लाई. सारा पानी काला हुआ पर कपड़ों का मुंह उजला न हो पाया. हार कर उसने उन्हें चांदनी में सुखाने डाल दिया और सड़े-गले चीथड़े लपेट कर लेट गई. परिश्रम काफी किया था इसलिए लेटते ही नींद आ गई.

नींद के एक छोर पर पहुंच कर पारो फिर चौंक कर उठी. एक कड़क आवाज थी ‘जो करे, सो भरे!’

जिसे वह झड़ा हुअा मर्द समझती थी उसकी इतनी कड़क आवाज!

बात-बात पर बगलें झांकने वाला वह बछड़ा! और इतना सख्त?

कहां होगा देवदास? कहां होंगे उसके बच्चे? भीतर मातृत्व कुलबुलाया. पारो उसकी गर्दन पर चढ़ बैठी.

यहां अपनी जान संभालना मुश्किल है, किसके बच्चे! किसके कच्चे!

फिर उसने रात के धोए कपड़ों को रेशा-रेशा टटोला. कुछ सूखे थे, कुछ अधसूखे. झटकार-झटकार वह उन्हें सुखाने लगी.

अगले दिन अम्मा उसे देखते ही मुस्कराई ‘सही समय पर आई हो, लो चाय पिओ.’

चाय के साथ लइया के दो लड्डू भी पारो को मिले. उसमें नई स्फूर्ति का संचार हुआ.

‘अम्मा तुम्हारे बाल सुलझा दूं?’ कह देने के बाद पारो के पैरों तले की जमीन खिसक गई. यह क्या कर बैठी?

बाल सुलझाने का मतलब देर तक पास बैठना. बैठना यानी बतियाना. तब छुपेगी कैसे? क्या कहेगी? पता नहीं बुढि़या पहचान रही है या नहीं. ऊंचा बोलने की ताकत बुढि़या में है नहीं. उससे दूर-दूर रहते काम करती तो वह चुप बैठी-लेटी रह जाती, अपना दिन निकल जाता.

तब तक तेल की शीशी उसके हाथ में पकड़ा दी गई थी.

‘तुम खटिया पर बैठ कर तेल डालो. हम नीचे बैठती हैं.’

पारो ने खूब मेहनत से बालों को तेल पिलाया और पूरे समय अम्मा के स्वास्थ्य के बारे में ही बात करती रही. गांव से दूर छोटे-से परिवार के बीच बड़े फैले काम-काज के साथ अम्मा बेचारी को कोई श्रोता ही कहां मिल पाता था! तो वह अपनी तकलीफें ही सुनाती रही.

‘लो अम्मा, अब तुम लेट जाओ बैठे-बैठे थक गई होगी. मैं तुम्हारी देह की भी मालिश कर दूं.’

‘अरी, काहे आदत बिगाड़ रही है! चल अच्छा, तनिक दाब दे! हाथ-पैर बैठे-बैठे ही पिराने लगे है.’

पारो ने अम्मा के हाथ-पैर दाबे साथ-साथ खेती का हाल-हवाल लेती रही. अच्छे दिन रहते जिसने कभी खेती की तरफ झांका भी नहीं, अनाज संभालना तक बूढ़ी-बीमार सास का काम हुआ करता था, बुरे वक्त में वही पारो दो रोटी के लिए बीमारी के साथ-साथ खेती की भी बातें सुन रही थी. उसे न तो गुस्सा आ रहा था, न ही चिड़चिड़ाहट हो रही थी. बस, एक ही भाव बाकी था कि कैसे भी एक समय के निवालों का भरोसा बना रहे.

आंगन में बर्तन थे, कपड़े थे. पारो ने सब मांजे-धोये. झाड़ू लगाया, रोटी खाई. मुंह बंधे एक बड़े-से झोले की ओर इशारा करके अम्मा ने कहा ‘बिटिया वो चाउर साफ करके उस डोल में भर दो. हमें साफ दिखायी नहीं देता.’

पारो चावल साफ करते-करते मजूर, मजूरी और उनकी जरूरतों पर बात करती रही. इतना उसे समझ में आ चुका था कि अम्मा को बातों में जिधर ढालो उधर ही ढल जाती है. जी को ढाढस बंधा कि ऐसे ही निभ जाएगी.

विदा होती पारो को एक पोटली सौंपी गई. सेर भर सत्तू हाथ आ गया था तो अगले दिन पारो अपने निवास-स्थल से बाहर निकली ही नहीं.

बहुत दिनों तक सत्तू, लइया, भुने चने, चिउड़ा, गुड़ और तेल-साबुन जैसी चीजें तेजी से निपटते देख घर की बहू को कुछ शक हुआ. उसने सास के पीछे जासूस लगाए.

बच्चों ने बड़ी मुश्तैदी से जासूसी की.

रिपोर्ट सुनकर अम्मा का बेटा ठहाका मारकर हंसा ‘वाह री अम्मा! पर जैसे पारो के दिन फिरे, वैसे सबके फिरें!‘

अशुभ की आशंका से बहू की आखें फैल गईं.

‘झट कान पकड़ो अपने. किस कुटनी का भला चाह रहे हो! भोली अम्मा हमारी जीती रहें, बनी रहें.’

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