पाठकों, मैं वह हरिशंकर नहीं हूं, जो व्यंग्य वगैरह लिखा करता था. मेरे नाम, काम, धाम सब बदल गए हैं. मैं राजनीति में शिफ्ट हो गया हूं. बिहार में घूम रहा हूं और मध्यावधि चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहा हूं.
अब मेरा नाम है- बाबू हरिशंकर नारायण प्रसाद सिंह याद रखियेगा- नहि ना भूलियेगा हंसियेगा नहीं. हम नया आदमी है न. अभी सुद्ध भासा सीख रहे हैं. जैसा बनता है न, वैसा कोहते हैं.
मैं बिहार की जनता की पुकार पर ही बिहार आया हूं. जनता की पुकार राजनीतिज्ञों को कैसे सुनाई पड़ जाती है, यह एक रहस्य है धंधे का, नहीं बताऊंगा. जनता की पुकार कभी-कभी मेमने की पुकार जैसी होती है. वह पुकारता है मां को और आ जाता है भेड़िया. मेमना चुप रहे तो भी कभी भेड़िया पहुंचकर कहता है-तूने मुझे पुकारा था. मेमना कहता है मैंने तो मुंह ही नहीं खोला, भेड़िया कहता है तो मैंने तेरे हृदय की पुकार सुनी होगी. बिहार की जनता कह सकती है हमने तुम्हें नहीं पुकारा. हमें तुम्हारे द्वारा अपना उद्धार नहीं करवाना. तुम क्यों हमारा भला करने पर उतारू हो?
मैं कहूंगा मैंने दूर मध्य प्रदेश में तुम्हारे हृदय की पुकार सुन ली थी. वहां मध्यावधि चुनाव नहीं हो रहे हैं इसलिए वहां की जनता की सेवा नहीं कर सकता और बिना सेवा किए जीवित नहीं रह सकता. तुम राजी नहीं होओगे तो बलात सेवा कर लूंगा. सेवा का बलात्कार! समझे?
अकेला मैं नहीं, भगवान श्रीकृष्ण भी बिहार की जनता का उद्धार करने आ पहुंचे हैं. बिहार की बाढ़, सूखा और महामारी सी पीडि़त जनता! अकाल से पीडि़त जनता! एक दिन मेरी कृष्ण भगवान से भेंट हो गई. मैंने पहचान लिया, वही मोर मुकुट, पीतांबर और मुरली! मैंने कहा, ‘भगवान कृष्ण हैं न.’ वे बोले, हां वहीं हूं पर मेरा नाम अब भगवान बाबू कृष्णनारायण प्रसाद सिंह हो गया है. कृष्ण बाबू भी कह सकते हैं.
मैंने कहा, भगवान क्या गोरक्षा आंदोलन का नेतृत्व करने पधारे हैं? चुनाव आ रहा है, तो गोरक्षा होगी ही. आप गोरक्षा आंदोलन के जरिए पाॅलिटिक्स में घुस जाएंगे. कृष्ण ने कहा, नहीं उस हेतु नहीं आया. गोरक्षा आंदोलन आम चुनाव के काम का है. मध्यावधि छोटे चुनाव में तो मूषक रक्षा आंदोलन से भी काम चल जाएगा. मूषक रक्षा में गणेश जी की रुचि हो सकती है, अपनी नहीं.
मैंने कहा, तो फिर आपको रामसेवक यादव ने बुलाया होगा यादवों के वोट संसोपा को दिलवाने के लिए. कृष्ण खीज पडे़. बोले मुझे भी तो बताने दो. मैं बिहार की जनता की पुकार पर आया हूं.
मैंने कहा, आपको भ्रम हो गया, भगवन. वे तो कृष्णवल्लभ सहाय के समर्थक थे, जो उन्हें टिकट देने के लिए ऐसी जोर की आवाज लगा रहे थे कि दिल्ली में कांग्रेस हाईकमान को सुनाई पड़ जाए. वे कृष्णवल्लभ बाबू का नाम ले रहे थे, आप समझे जनता आपको पुकार रही है. कृष्ण ने कहा, नहीं मैंने खुद सुना, जनता कह रही थी, हे भगवान अब तो तेरा ही सहारा है. तू ही उद्धार कर सकता है. इसी पुकार को सुनकर मैं यहां आ गया.
ऐसा हो सकता है. बात यह है कि चौथे चुनाव के बाद सिर्फ भगवान की सत्ता ही स्थिर है. बिहार के मुसीबतजदा लोग पटना में एक सरकार से अपनी कहते, तब तक दूसरी सरकार आ जाती. हो सकता है, उन्होंने ईश्वर की एक मात्र सरकार से गुहार की हो.
मैंने कहा, ठीक किया जो आप आ गए. अब इरादा क्या करने का है?
उन्होंने कहा, मेरा तो घोषित कार्यक्रम है, त्रिसूची साधुओं का परित्राण, दुष्कर्मियों का नाश और धर्म की संस्थापना.
मैंने पूछा, कोई आर्थिक कार्यक्रम वगैरह?
वे बोले, नहीं बस वही त्रिसूची कार्यक्रम है.
मैंने पूछा यहां राजनीतिज्ञों में कोई साधु मिले?
एक भी नहीं.
और असाधु?
एक भी नहीं. हर एक अपने को साधु और दूसरों को असाधु कहता है. किसका नाश कर दूं समझ में नहीं आता?
इसी वक्त मुझे ख्याल आया कि इनके हाथ में सुदर्शन चक्र तो है नहीं नाश कैसे करेंगे. मैंने पूछा तो कृष्ण ने बताया, चक्र घर में रखा है क्योंकि उसका लाइसेंस नहीं है. फिर इधर अभी से धारा 144 लगी हुई है.
मैंने उन्हें समझाया, भगवान अगर सुदर्शन चक्र का लाइसेंस मिल जाए तो भी किसी को मारने पर दफा 302 में फंस जाएंगे.
कृष्ण पसोपेश में थे. कहने लगे फिर धर्म की संस्थापना कैसे होगी?
मैंने कहा, धर्म की संस्थापना तो सांप्रदायिक दंगों से हो रही है. आप एक हड्डी का टुकड़ा उठाकर मंदिर में डाल दीजिए और हिंदू धर्म के नाम पर दंगा करवा दीजिए. धर्म का उपयोग तो अब दंगा करने के लिए ही रह गया है. आप के विचार काफी पुराने पड़ गए हैं. हम लोग तो दुष्कर्मियों का परित्राण करने के लिए यह व्यवस्था चला रहे हैं. सबसे असुरक्षित तो साधु ही हैं.
भगवान कृष्ण को मैंने समझाया, आप संसदीय लोकतंत्र में घुसे बिना जन का उद्धार नहीं कर सकते. आप चुनाव लडि़ए और इस राज्य के मुख्यमंत्री बन जाइए. रुक्मिणी जी को बुला लीजिए. जिस टूर्नामेंट का आप उद्घाटन करेंगे, उसमें वे पुरस्कार वितरण करेंगी. घर के ही एक जोड़ी से कर कमलों में दोनों का काम हो जाएंगे.
बड़ी मुश्किल से उनके सामंती संस्कारों के गले में लोकतंत्र उतरा. इससे ज्यादा आसानी से तो दरभंगा नरेश बाबू कामाख्या नारायण सिंह लोकतंत्री हो गए थे. कृष्ण को चुनाव के मैदान में उतारने में मेरा स्वार्थ था. राजनीति में नया-नया आया हूं. पहले किसी बड़ी हस्ती का चमचा बनना जरूरी है. दादा को चमचा चाहिए और चमचे को दादा. दादा मुख्यमंत्री, तो चमचा गृहमंत्री. मैंने सोचा, लोग शंकराचार्य को अपनी तरफ ले रहे हैं, मैं साक्षात भगवान कृष्ण के साथ हो जाऊं.
हम लोगों ने तय किया कि पहले अपने पक्ष में जनमत बनाएं और फिर राजनीतिक पार्टियों से तालमेल बिठाएं. हम लोगों से मिलने निकल पडे़. मैं तो चमचा था. भगवान का परिचय देकर चुप हो जाता. जिन्होंने बहस कर करके अर्जुन को अनचाहे लड़वा दिया था, वे तर्क से लोगों को ठीक कर देंगे- ऐसा मुझे विश्वास था. पर धीरे-धीरे मेरी चिंता बढ़ने लगी. कृष्ण की बात जम नही रही थी. कुछ राजनीति करने वालों से बातें हुईं. कृष्ण ने बताया कि चुनाव लड़ रहा हूं.
वे बोले हां, हां आप क्यों न लडि़येगा. आप भगवान हैं. आपका नाम है. आपका भजन होता है. आपका आरती होता है. आपका कथा होता है. आपका फोटू बिकता है. आप नहीं लडि़एगा तो कौन लडे़गा, आप यादव हैं न?
कृष्ण ने कहा, मैं ईश्वर हूं. मेरी कोई जाति नहीं है.
उन्होंने कहा देखिए न, इधर भगवान होने से तो काम नहीं न चलेगा. आपको कोई वोट नहीं देगा. जात नहीं रखिएगा तो कैसे जीतिएगा?
जाति के इस चक्कर से हम परेशान हो उठे भूमिहार, कायस्थ, क्षत्रिय, यादव होने के बाद ही कोई कांग्रेसी, समाजवादी या साम्यवादी हो सकता है. कृष्ण को पहले यादव होना पडे़गा, फिर चाहे वे मार्क्सवादी हो जाएं.
कृष्ण इस जातिवाद से तंग आ गए. कहने लगे, ये सब पिछडे़ लोग हैं. चलो विश्वविद्यालय चलें. हमें प्रबुद्ध लोगों का समर्थन लेकर इस जातिवाद की जडें़ काट देनी चाहिए.
विश्वविद्यालय में राजनीति के प्रोफेसर से हम बातें कर रहे थे. उन्होंने साफ कह दिया, मैं कायस्थ होने के नाते कायस्थों का ही समर्थन करूंगा.
कृष्ण ने कहा, आप विद्वान होकर भी इतने संकीर्ण हैं?
प्रोफसर ने समझाया, देखिए न, विद्या से मनुष्य अपने सच्चे रूप को पहचानता है. हमने विद्या प्राप्त की, तो हम पहचान गए कि हम कायस्थ हैं.
कृष्ण घबड़ाकर एक पेड़ की छांह में लेट गए. कहने लगे, सोचते हैं लौट जाएं. जहां भगवान को भगवान होने के कारण एक भी वोट न मिले, वहां अपने राजनीति नहीं बनेगी.