अगर आप शरीर दान करने जा रहे हैं तो छुट्टी के दिन मरना मना है…

‘आंखें कचरे में फेंक दीं. इसमें कौन-सी चौंकाने वाली बात है? आप नेत्रदान की बात कर रहे हैं, जीआरएमसी में देहदान की भी कोई कद्र नहीं.’ ऐसा बोलते हुए अनिल शर्मा के चेहरे पर एक दर्दभरी मुस्कान उभर आती है. ग्वालियर के गोविंदपुरी इलाके के निवासी अनिल शर्मा के पिता स्वर्गीय लक्ष्मीनारायण शर्मा ने अपने जीते जी ही अपनी देहदान करने का फैसला लिया था. देहदान करने वाली ये बात बताते हुए अनिल शर्मा से हमने जानना चाहा कि क्या उन्हें भी लगता है कि उनके पिता की भी आंखें कचरे में फेंकी दी गईं होंगी? इस सवाल के जवाब में उन्होंने हमें जो बताया वह वाकई चौंकाने वाला और जीआरएमसी प्रबंधन की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगाने वाला भी था.

वह कहते हैं, ‘निधन से साल-दो साल पहले ही बाबूजी ने यह सोचकर अपना शरीर जीआरएमसी को दान कर दिया था कि उनका शव मेडिकल छात्र-छात्राओं के शोध करने और सीखने के काम में आएगा. उन्होंने सोचा था कि उनकी आंखें किसी का जहां रोशन कर सकेंगी.’ दुखी होते हुए वह आगे कहते हैं, ‘18 जून 2013 को पिताजी का निधन हुआ. वह छुट्टी का दिन था. हमने जयारोग्य अस्पताल से फोन पर संपर्क किया. जवाब मिला कि आज छुट्टी का दिन है, घर पर ही शव किसी फ्रीजर में रखवा दो, कल ले जाएंगे.’ आखिर यहां-वहां से दबाव बनाने के बाद वे राजी तो हुए. फिर अस्पताल का स्टाफ हमें पुलिस थाने तो कभी किसी दूसरे विभाग से सर्टिफिकेट ले आने के लिए भेजता रहा. दुख के समय में हम इस विभाग से उस विभाग के चक्कर लगा रहे थे और शव घर पर पड़ा था. ये सब करते-करते ही एक दिन बीत गया. अगले दिन अस्पताल का स्टाफ शव लेने के लिए घर आया. अस्पताल पहुंचने पर पिताजी का शव लावारिस शवों के साथ रखा जाने लगा. हमने ऐतराज किया तो किसी तरह उनके पार्थिव शरीर को ठीक तरीके से रखा गया.’

गिलास से एक घूंट पानी पीते हुए वे कटाक्ष करते हुए कहते हैं, ‘अगर आप शरीर दान करने जा रहे हैं तो छुट्टी के दिन मरना मना है. कम से कम जयाराेग्य अस्पताल के मामले में तो यही कहा जा सकता है. उन लोगों के अंदर का इंसान मर चुका है. वे शव की बेकद्री कर सकते हैं तो कचरे में आंखें फेंकना कौन सी बड़ी बात है? कम से कम मेरे लिए तो इसमें चौंकने जैसा कुछ भी नहीं. हां, बस ये लगता है कि अगर अस्पताल का स्टाफ आंखें फेंक दे रहा हैं तो शव का क्या करता होगा, ये एक बड़ा सवाल है.’ वे आगे बताते हैं, ‘जब शव दान किया था तब खूब जिल्लत झेलनी पड़ी. लोगों ने हमसे सवाल किए, क्या पैसे नहीं हैं दाह-संस्कार के? हमारे समाज ने ये कहकर हमसे दूरी बना ली कि हमारे यहां दाह-संस्कार नहीं हुआ. हम ब्राह्मण नहीं हैं. आज इस मामले के आने के बाद उन्होंने फिर से हमारा उपहास बनाना शुरू कर दिया है. ऐसे में इस तरह के धर्मार्थ और पुण्य के कामों को करने के लिए कोई कैसे आएगा. जयारोग्य अस्पताल में जो कुछ भी हुआ वह निंदनीय है. इस तरह की घटनाएं डॉक्टर और उसके पेशे काे ठेस पहुंचाती हैं. हमारे समाज में डॉक्टर को भगवान का दर्जा दिया गया है. इस घटना के जिम्मेदारों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए.’