गांधी और आंधी के बीच

फोटोः विकास कुमार

जिन लोगों को शिकायत थी कि भारतीय राजनीति कांग्रेस, बीजेपी और कई क्षत्रप दलों के बनाए हुए यथास्थितिवाद के दलदल में धंस गई है और उसमें कोई प्रेरणा-उत्तेजना नहीं बची है, उन्हें आम आदमी पार्टी को धन्यवाद देना चाहिए कि उसने बने-बनाए समीकरण तोड़-फोड़ कर एक अनिश्चित और उत्तेजक राजनीतिक माहौल बना दिया है. 2014 के लोकसभा चुनाव अचानक इसलिए दिलचस्प हो उठे हैं कि राजनीति के आकाश में अब एक नया गुब्बारा है- जिसके बारे में किसी को नहीं पता कि वह फूट जाएगा कि फैल जाएगा. 2014 को अपने लिए एक ऐतिहासिक राजनीतिक अवसर की तरह देख रही बीजेपी अचानक मायूस है क्योंकि उसे यह डर सताने लगा है कि भारतीय लोकतंत्र के सौरमंडल में बाहर से दाखिल हुआ ‘आप’ नाम का यह नया ग्रह कहीं उसके भावी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ग्रह-दशा न बदल डाले.

भारतीय राजनीति पर करीबी नजर रखने वालों के लिए दरअसल सबसे दिलचस्प सवाल यही है- क्या ‘आप’ का उभार बीजेपी और मोदी की धार को कुंद कर देगा? अगर पार्टी ने लोकसभा की 50 सीटों पर भी असर डाला तो इसका सीधा नुकसान बीजेपी को होगा, क्योंकि ये वही सीटें होंगी जो बीजेपी कांग्रेस से छीनने का मंसूबा पाले बैठी है. वस्तुतः कांग्रेस को लेकर पैदा हुई जो मध्यवर्गीय हताशा पहले बीजेपी और नरेंद्र मोदी में एक विकल्प देखती थी, वह अब आप की तरफ मुड़ती दिख रही है. इससे यह बात महसूस की जा सकती है कि बीजेपी और मोदी जिस व्यापक जनसमर्थन की उम्मीद और दावेदारी कर रहे हैं, वह दरअसल उनका कमाया हुआ नहीं, कांग्रेस का गंवाया हुआ है और इस जनसमर्थन का एक और दावेदार आते मोदी का हिस्सा और किस्सा दोनों कमजोर पड़े हैं.

लेकिन आप का जादू क्या है जो उसे भारतीय राजनीति की नई उम्मीद की तरह देखा जा रहा है? एक स्तर पर आप सादगी, ईमानदारी और त्याग के उसी गांधीवादी आदर्श को पुनर्जीवित करने की कोशिश में है जो आजादी की लड़ाई और गांधी के निधन के बाद भारत ने खो दिया था. यह अनायास नहीं है कि अरविंद केजरीवाल ने अपनी पार्टी के गठन की घोषणा के लिए दो अक्टूबर का दिन चुना, गांधी के हिंद स्वराज की तरह स्वराज के नाम से एक किताब लिख डाली और झाड़ू जैसा चुनावी निशान तय किया जो गांधी के हरिजनोद्धार कार्यक्रम की याद दिलाता है. इत्तिफाक से इन दिनों वे ईश्वर की बात भी करने लगे हैं. लेकिन आंधी होने और गांधी होने में फर्क है. गांधी का रास्ता जितनी निष्ठा और ईमानदारी की मांग करता है, उससे कहीं ज्यादा इस ठोस समझ की कि आपको निहायत मानवीय कसौटियों पर राष्ट्र, धर्म, न्याय, बराबरी के मतलब समझने होंगे और अपने को कोई छूट नहीं देनी होगी. तीन साल असहयोग आंदोलन चलाकर गांधी ने उसे बस इसलिए वापस ले लिया कि चौरीचौरा जैसे कांड के लिए उनके राजनीतिक विश्वासों में कोई जगह नहीं थी. गांधी को मालूम था कि मसीहा बनने वालों के इम्तिहान बेहद कड़े होते हैं.

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