भुला दिया गया ‘होलोकास्ट’

वर्ष 1943-44 में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा था. इस अकाल में करीब 40 लाख लोगों की मौत हो गई थी.
वर्ष 1943-44 में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा था. इस अकाल में करीब 40 लाख लोगों की मौत हो गई थी.

20वीं सदी के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप में घटी सबसे भयानक त्रासदी क्या थी, इस सवाल के जवाब में ज्यादातर यही कहेंगे कि भारत का विभाजन जिसने करीब 10 लाख लोगों की बलि ले ली. लेकिन इससे चार साल पहले घटी एक त्रासदी कहीं बड़ी और भयानक थी. 1943-44 में बंगाल में जो भीषण अकाल पड़ा वह करीब 40 लाख लोगों की जिंदगी लील गया था. मौतों का यह आंकड़ा विभाजन की तुलना में चार गुना बड़ा है. यह प्राकृतिक आपदा नहीं थी बल्कि ब्रिटिश सरकार द्वारा पैदा किया गया एक कृत्रिम अकाल था. इतनी बड़ी आपदा होने के बावजूद भारत के इतिहास और वर्तमान ने इस बड़ी हद तक भुला ही दिया है.

इस अकाल की सबसे असाधारण बात है इसकी अवधि. वह समय दूसरे विश्व युद्ध का भी था जो अपने चरम पर था. जर्मन सेना पूरे यूरोप को रौंद रही थी. यहूदियों, स्लाव और रोमा लोगों को चुन-चुनकर निशाना बनाया जा रहा था. इस दौरान एडोल्फ हिटलर और उसके साथी नाजियों ने 60 लाख यहूदियों की हत्या की. इस नरसंहार को सारी दुनिया आज होलोकास्ट के नाम से जानती है. 60 लाख लोगों की हत्या करने में हिटलर को 12 साल लगे थे, लेकिन अंग्रेजों ने एक साल से महज कुछ अधिक समय में 40 लाख भारतीयों को मार डाला.

इस विषय पर लिखते रहे आस्ट्रेलिया के वैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. गिडोन पोल्या का मानना है कि बंगाल का अकाल ‘मानवनिर्मित होलोकास्ट’ है क्योंकि इसके लिए सीधे तौर पर तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल की नीतियां जिम्मेदार थीं. 1942 में बंगाल में अनाज की पैदावार बहुत अच्छी हुई थी, लेकिन अंग्रेजों ने व्यावसायिक मुनाफे के लिए भारी मात्रा में अनाज भारत से ब्रिटेन भेजना शुरू कर दिया. इसकी वजह से उन इलाकों में अन्न की भारी कमी पैदा हो गई जो आज के पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार और बांग्लादेश में आते हैं.

लेखिका मधुश्री मुखर्जी ने उस अकाल से बच निकले कुछ लोगों को खोजने में कामयाबी हासिल की.  अपनी किताब चर्चिल्स सीक्रेट वार (चर्चिल का गुप्त युद्ध) शीर्षक में वह लिखती हैं, ‘मां-बाप ने अपने भूखे बच्चों को नदियों और कुंओं में फेंक दिया. कई लोगों ने ट्रेन के सामने कूदकर  जान दे दी. भूखे लोग चावल के मांड़ के लिए गिड़गिड़ाते. बच्चे पत्तियां और घास खाते. लोग इतने कमजोर हो चुके थे कि उनमें अपने प्रियजनों का अंतिम संस्कार करने तक की ताकत नहीं बची थी.’

इस अकाल को देख चुके एक बुजुर्ग ने मुखर्जी को बताया, ‘बंगाल के गांवों में लाशों के ढेर लगे रहते थे जिन्हें कुत्तों और सियारों के झुंड नोचते.’ इस अकाल से वही आदमी बचे जो रोजगार की तलाश में कलकत्ता चले आए थे  या वे महिलाएं जिन्होंने परिवार को पालने के लिए मजबूरी में वेश्यावृत्ति करनी शुरू कर दी. मुखर्जी लिखती हैं, ‘महिलाएं हत्यारी बन गईं और गांव की लड़कियां वेश्याएं. उनके पिता अपनी ही बेटियों के दलाल बन गए.’

मणि भौमिक मशहूर संस्थान आईआईटी से पीएचडी करने वाले पहले शख्स हैं और उन्हें इसलिए भी जाना जाता है कि उनकी खोज ने लेसिक आई सर्जरी की राह आसान की. उनकी यादों में यह अकाल दर्ज है. भौमिक की दादी की भूख से मौत हो गई थी क्योंकि उनके हिस्से जो थोड़ा बहुत खाना आता था, उसका भी एक हिस्सा वे अपने पोते को देती थीं.

सन 1943 तक भूख के शिकार लोगों की बाढ़ कलकत्ता पहुंचने लगी थी. शहर की सड़कों पर उनकी मौत हो रही थी. पंडित जवाहरलाल नेहरू का कहना था, ‘इस विनाशकारी परिदृश्य में भरे-पूरे गोरे-चिट्टे ब्रिटिश सैनिकों की मौजूदगी ने भारत में अंग्रेजी राज के खात्मे की दिशा में आखिरी धक्का मारने का काम किया.’

चर्चिल इस अकाल को बहुत आसानी से टाल सकते थे. महज कुछ जहाजों में अनाज भेजकर भारतीयों की बहुत बड़ी मदद की जा सकती थी, लेकिन ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने किसी की नहीं सुनी. न अपने दो वॉयसरायों की और न ही अपने भारत सचिव की. यहां तक कि चर्चिल ने अमेरिकी राष्ट्रपति तक की अपील को ठुकरा दिया. जापानी सेना के साथ मिलकर मित्र राष्ट्रों के खिलाफ लड़ रहे सुभाषचंद्र बोस ने म्यांमार से चावल भेजने की पेशकश की थी लेकिन ब्रिटिश शासन ने यह खबर तक दबा दी. चर्चिल ने बेहद क्रूर तरीके से अनाज को ब्रिटिश सैनिकों और ग्रीस के नागरिकों के इस्तेमाल के लिए भिजवा दिया. उनका कहना था कि बंगालियों को तो पहले से ही खाना पूरा नहीं पड़ रहा, इसलिए उनकी भुखमरी ज्यादा गंभीर विषय नहीं है.

भारत और बर्मा (तत्कालीन म्यामार) के सचिव लियोपोल्ड अमेरी ने घोर उपनिवेशवादी होने के बावजूद चर्चिल के ‘हिटलर जैसे रवैये’ की आलोचना की. अमेरी और वॉयसराय आर्किबाल्ड वॉवेल ने चर्चिल से अनुरोध किया कि भारत के लिए तत्काल अनाज भेजा जाए. इस पर चर्चिल ने एक टेलीग्राम भेजकर पूछा जिसका भाव यह था कि इतनी भुखमरी है तो गांधी अब तक क्यों नहीं मरे?

वॉवेल ने लंदन को सूचना भेजी थी, ‘यह अकाल ब्रिटिश शासन के अधीन आन पड़ी सबसे बड़ी आपदाओं में से एक है.’ उन्होंने लिखा, ‘जब भी हॉलैंड (अब नीदरलैंड्स) को अनाज की जरूरत होती है तो जहाज हमेशा उपलब्ध होते हैं लेकिन जब हम अनाज भारत लाने के लिए जहाज की मांग करते हैं तो हमें एकदम अलग उत्तर मिलता है.’ उधर, चर्चिल की सफाई यह थी कि आपातकालीन आपूर्ति के लिए ब्रिटेन के पास जहाज नहीं थे. आज भी उनका परिवार और उनके समर्थक यही दलील देते हैं. लेकिन मुखर्जी ने ऐसे दस्तावेज उजागर किए हैं जो चर्चिल के दावे को चुनौती देते हैं. उनके द्वारा खोजे गए आधिकारिक दस्तावेजों के मुताबिक ऑस्ट्रेलिया से अनाज लेकर जा रहे जहाज भारत के पास से ही होकर गुजरे थे.

भारत के प्रति चर्चिल की दुश्मनी कोई नई बात नहीं थी. वॉर कैबिनेट की एक बैठक में उन्होंने अकाल के लिए भारतीयों को ही दोषी ठहराते हुए कहा था, ‘वे खरगोशों की तरह बच्चे पैदा करते हैं.’ भारतीयों के प्रति उनके रवैये को इस वाक्य से समझा जा सकता है जो उन्होंने अमेरी से कहा था, ‘मुझे भारतीयों से नफरत है. वे पाशविक धर्म वाले पाशविक लोग हैं.’ एक अन्य मौके पर उन्होंने जोर देकर कहा कि भारतीय जर्मनों के बाद दुनिया के सबसे पाशविक लोग हैं.

मुखर्जी के मुताबिक, ‘भारत के प्रति चर्चिल का रवैया बहुत अतिवादी था और वे भारतीयों से नफरत करते थे. इसकी मुख्य वजह यह थी कि उनको पता लग चुका था कि भारत को लंबे समय तक गुलाम बनाकर नहीं रखा जा सकता.’  ऑनलाइन समाचार ब्लॉग हफिंगटन पोस्ट में प्रकाशित अपने एक लेख में वे लिखती हैं, ‘चर्चिल ने गेहूं के बारे में कहा कि वह इतनी कीमती चीज है कि उसे गैर श्वेत लोगों पर खर्च नहीं किया जा सकता, उन लोगों की बात तो छोड़ ही दी जाए जो ब्रिटिश साम्राज्य से आजादी की मांग कर रहे हैं.’

अक्टूबर 1943 में जब अकाल अपने चरम पर था, चर्चिल ने वॉवेल की नियुक्ति के अवसर पर आयोजित एक भव्य समारोह में कहा, ‘जब हम बीते सालों की ओर नजर डालते हैं, तो हमारी दृष्टि दुनिया के उस इलाके की ओर जाती है जहां पिछली तीन पीढ़ियों से कोई जंग नहीं हुई. वहां अकाल बीती बात हो गया….समय बीतने के साथ यह कालखंड भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल कहा जाएगा. ब्रिटिशों ने उन्हें शांति और व्यवस्था मुहैया कराई, गरीबों को न्याय मिला और वहां के लोगों को बाहरी खतरों से सुरक्षित किया गया.’ साफ है कि चर्चिल केवल नस्लवादी ही नहीं बल्कि झूठे भी थे.

होलोकास्ट का इतिहास
अकाल पीड़ित बंगाल के प्रति चर्चिल की नीति, भारत के प्रति ब्रिटेन के पुराने आचरण से कतई अलग नहीं थी. माइक डेविस अपनी किताब लेट विक्टोरियन होलोकास्ट में बताते हैं कि ब्रिटिश शासन के 120 सालों में यहां 31 गंभीर अकाल पड़े जबकि ब्रिटिश शासन के पहले 2000 सालों में इनकी संख्या बमुश्किल 17 थी.

अपनी इस किताब में डेविस उन अकालों की दास्तान पेश करते हैं जिनमें करीब 2.9 करोड़ भारतीयों को अपनी जान गंवानी पड़ी. उनका मानना है कि ब्रिटिश नीति ने उन लोगों की हत्या की. 1896 में जब सूखे ने दक्षिण के पठार के किसानों की कमर तोड़ी तो देश में चावल और गेहूं का भंडार पर्याप्त से भी ज्यादा था. लेकिन तत्कालीन वॉयसराय रॉबर्ट बुलेवर लिटन ने जोर देकर कहा कि इंग्लैंड को होने वाले निर्यात में कोई कमी नहीं की जाएगी.

सन 1877 और 1898 में जब अकाल अपने चरम पर था तो अनाज कारोबारियों ने रिकॉर्ड मात्रा में अनाज का निर्यात किया. जब लोग भूख से मरने लगे तो सरकारी अधिकारियों को आदेश दिया गया कि राहत कार्यों को हर संभव तरीके से हतोत्साहित किया जाए. अधिकांश जिलों में जिस राहत कार्य को मंजूरी दी गई वह था कठिन शारीरिक श्रम और उसके बदले अनाज. भुखमरी से जूझ रहे लोगों के लिए यह काम करना संभव ही नहीं था. इन श्रमिक शिविरों में रहने वाले लोगों को उससे भी कम भोजन मिलता था जितना कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाजी यातना शिविर में रहने वाले यहूदियों को मिलता था.

लाखों लोगों की मौत के बावजूद लिटन ने मद्रास इलाके में किसानों की दिक्कतों को दूर करने की हर कोशिश की भरपूर अनदेखी की. वह भारत की महारानी के रूप में  रानी विक्टोरिया की ताजपोशी की तैयारियों में लगा रहा. इस उत्सव में 68,000 माननीय अतिथियों के लिए सप्ताह भर लंबे भोज का आयोजन किया गया जहां महारानी ने देश के लिए ‘खुशहाली, समृद्धि और कल्याण का वादा किया.’ सन 1901 में द लैंसेट पत्रिका ने अनुमान लगाया था कि 1890 के दशक में पश्चिमी भारत में अकाल की वजह से तकरीबन 1.9 करोड़ भारतीयों की मौत हुई थी. मौत का आंकड़ा इतना ज्यादा इसलिए था क्योंकि ब्रिटिश शासन ने राहत का कोई इंतजाम नहीं किया.

ऐसे में आश्चर्य नहीं कि हिटलर की पसंदीदा फिल्म ‘द लाइव्स ऑफ ए बंगाल लांसर’ थी. इस फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे मुठ्ठीभर ब्रिटिश पूरे उपमहाद्वीप को अपने अधीन कर लेते हैं. हिटलर ने तत्कालीन ब्रिटिश विदेश सचिव एडवर्ड वुड से कहा था कि वह उसकी पसंदीदा फिल्मों में से एक है क्योंकि ‘वह दिखाती है कि एक श्रेष्ठ नस्ल को किस तरह व्यवहार करना चाहिए.’ नाजी सेनाओं के लिए भी इस फिल्म को देखना अनिवार्य किया गया था.

अपराध और उसके परिणाम
हालांकि ब्रिटेन कई देशों से माफी मांग चुका है. उदाहरण के लिए उसने केन्या से माऊ माऊ नरसंहार के लिए माफी मांगी, लेकिन भारत के इस नरसंहार की बात न वह करता है और न ही भारत खुद. इजरायल कभी भी होलोकास्ट को भूल नहीं सकता, न ही वह दूसरों को इसे भूलने देगा. कम से कम जर्मनी को तो कतई नहीं. जर्मनी निरंतर लाखों डॉलर की मदद और हथियारों के रूप में इजरायल को सहायता देता रहता है. अार्मीनिया भी प्रथम विश्व युद्ध के दौरान तुर्की द्वारा अपने 18 लाख नागरिकों की हत्या को नहीं भुला सकता. पोलैंड के लोग भी जोसेफ स्टालिन द्वारा किए गए कैटीन हत्याकांड को भूल नहीं सकते. चीन द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नानकिंग में जापानियों द्वारा 40,000 लोगों की हत्या और बलात्कार के मामले में स्पष्ट क्षमा याचना और मुआवजा चाहता है. यूक्रेन का उदाहरण भी है जो स्टालिन की आर्थिक नीतियों के कारण बनी अकाल की स्थिति को नरसंहार की संज्ञा देता है जबकि ऐसा था नहीं. उन्होंने इसे होलोडोमोर का नाम दिया है.

लेकिन भारत प्रायश्चित तो छोड़िए माफी की मांग करने तक को तैयार नहीं. क्या हमें लगता है कि साम्राज्यवाद के खात्मे के कारण पहले से ही अवसादग्रस्त इंग्लैंड को और परेशान क्या करना? या फिर भारत का अंग्रेजी बोलने वाला बुर्जुआ वर्ग खुद को अभी भी अंग्रेजों का आभारी मानता है? या फिर हम अपनी ऐतिहासिक गलतियां दोहराने को अभिशप्त देश हैं? शायद हममें क्षमाभाव बहुत ज्यादा है. लेकिन क्षमा करने और भूल जाने में अंतर होता है और भारतीय भूल जाने के दोषी हैं. यह उन लाखों भारतीयों की स्मृतियों का अपमान है जिन्होंने कृत्रिम अकाल के चलते अपनी जान गंवा दी.

भारतीयों के प्रति ब्रिटेन का रवैय्या तब और  हैरान करता है जब हम मित्र देशों के युद्ध अभियान में भारत का योगदान देखते हैं. 1943 तक 25 लाख से अधिक भारतीय सैनिक यूरोप, अफ्रीका और दक्षिणपूर्वी एशिया में मित्र देशों की सेना के साथ मिलकर लड़ रहे थे. देश भर से इकट्ठा किए गए संसाधन जैसे  हथियार और कई तरह का कच्चा माल भारत से यूरोप ले जाया जाता था जिसमें ब्रिटेन के पल्ले से कुछ नहीं जाता था.

दरअसल देखा जाए तो ब्रिटेन पर भारत का इतना कर्ज है कि उसकी अनदेखी दोनों में से कोई देश नहीं कर सकता. कैंब्रिज विश्वविद्यालय के इतिहासकार टिम हार्पर और क्रिस्टोफर बेली कहते हैं, ‘सन 1945 की जीत को भारतीय सैनिकों, श्रमिकों और कारोबारियों ने संभव बनाया. इसकी कीमत उन्हें भारत की जल्द आजादी के रूप में मिली.’

करीब 250 साल के उपनिवेशकाल में भारत को जिस कदर लूटा गया, उसकी भरपाई करने लायक धन पूरे यूरोप के पास आज भी नहीं है. और पैसे की बात तो छोड़ ही दीजिए, आचरण की गरिमा भी एक चीज होती है. क्या ब्रिटेन बंगाल में हुई उन करोड़ों मौतों के लिए माफी मांगेगा? या फिर चर्चिल की तरह वह भी इसी धोखे में रहना चाहता है कि अंग्रेजों का शासन भारत का ‘स्वर्ण काल’ था.