निजी चैनलों के सार्वजनिक हित और उससे जुड़ी प्राथमिकताओं को नजरंदाज़ करने और मनोरंजन के नाम पर सस्ते-फूहड़-फिल्मी मनोरंजन को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति भी किसी से छुपी नहीं है. वे लोगों के वास्तविक मुद्दों के बजाय छिछले, सनसनीखेज और हल्के मुद्दों को बड़ा बनाकर उछालने में लगे रहते हैं. यह भी कि निजी चैनल अधिक से अधिक दर्शक यानी टीआरपी जुटाने के लिए किसी भी स्तर तक जा सकते हैं क्योंकि टीआरपी से ही उनकी विज्ञापन आय और मुनाफा जुड़े हुए हैं. निजी चैनलों की यह और ऐसी ही अनेकों आलोचनाएं हैं जो बिलकुल वाज़िब हैं. इस बात के लिए इन चैनलों की खूब लानत-मलामत भी होती है.
लेकिन सवाल यह है कि जनता के पैसे से चलने वाले दूरदर्शन, लोकसभा और राज्यसभा चैनलों का क्या हाल है? इन्हें लोक प्रसारक यानी जनता का प्रसारण माना जाता है. उनसे उम्मीद की जाती है कि सार्वजनिक धन से चलने वाले ये लोक प्रसारक खासकर दूरदर्शन और आकाशवाणी निजी चैनलों के सस्ते मनोरंजन और सतही/सनसनीखेज सूचनाओं का लोगों को विकल्प पेश करेंगे. लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि प्रसार भारती (दूरदर्शन और आकाशवाणी) जिसका सालाना बजट लगभग 2800 करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है, उनके कामकाज और प्रदर्शन पर बहुत कम चर्चा होती है.
यह सवाल जायज है कि जनता की गाढ़ी कमाई के 1850 करोड़ रुपये सालाना खर्च करने वाले दूरदर्शन का हाल क्या है? बिजनेस अखबार ‘इकनामिक टाइम्स’ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, हर साल बजट में वृद्धि के बावजूद दूरदर्शन के चैनल दर्शकों की पसंद में काफी पीछे हैं. हाल में गठित ब्रॉडकास्ट ऑडियेंस रिसर्च काउंसिल (बीएआरसी-बार्क) की टेलीविजन रेटिंग के अनुसार, 15 मनोरंजन चैनलों की सूची में दूरदर्शन 13वें स्थान, 13 खेल चैनलों में डीडी-स्पोर्ट्स 10वें स्थान, 14 न्यूज चैनलों में डीडी-न्यूज 8वें स्थान और 11 सांस्कृतिक चैनलों में डीडी-भारती 10वें स्थान पर हैं. यहां तक कि हाल में शुरू हुआ किसान चैनल अपनी श्रेणी के 11 चैनलों में 9वें स्थान पर है. यही हाल दूरदर्शन के भाषाई-क्षेत्रीय चैनलों का भी है जो अपनी-अपनी श्रेणियों में लोकप्रियता के मामले में बहुत पीछे हैं.
यह ठीक है कि लोक प्रसारणकर्ता की गुणवत्ता को टीआरपी की ‘लोकप्रियता’ के मानदंडों पर नहीं मापा जाना चाहिए. लेकिन सवाल यह है कि क्या दूरदर्शन एक लोक प्रसारणकर्ता के बतौर गुणवत्ता के उन मानदंडों पर खरा उतरता है जो एक लोक प्रसारक से अपेक्षा की जाती है? असल में, एक स्वायत्त प्रसार भारती के तहत दूरदर्शन और आकाशवाणी से यह अपेक्षा थी कि वे व्यावसायिक दबावों से दूर और देश के सभी वर्गों-समुदायों-समूहों की सूचना, शिक्षा और मनोरंजन संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए काम करेंगे. वे भारत जैसे विकासशील देश और समाज की बुनियादी जरूरतों को ध्यान में रखेंगे और एक ऐसे लोक प्रसारक के रूप में काम करेंगे जिसमें देश और भारतीय समाज की विविधता और बहुलता अपने श्रेष्ठतम सृजनात्मक रूप में दिखाई देगी.
उनके साथ यह उम्मीद भी जुड़ी हुई थी कि वह वास्तव में ‘लोगों का, लोगों के लिए और लोगों के द्वारा’ चलनेवाला ऐसा प्रसारक होगा जो सामाजिक लाभ के लिए काम करेगा. लेकिन प्रसार भारती के पिछले 19 सालों के अनुभव एक स्वप्न भंग की त्रासद दास्तां हैं. हालांकि प्रसार भारती का दावा है कि वह भारत का लोक प्रसारक है और इस कारण ‘देश की आवाज’ है. लेकिन सच यह है कि वह ‘देश की आवाज’ बनने में नाकाम रहा है. कानूनी तौर पर स्वायत्तता मिलने के बावजूद वह व्यावहारिक तौर पर अब भी एक सरकारी विभाग की ही तरह काम कर रहा है जहां नीति निर्माण से लेकर दैनिक प्रबंधन और संचालन में नौकरशाही हावी है. इस कारण उसकी साख में कोई खास सुधार नहीं हुआ है बल्कि दिन पर दिन उसमें गिरावट ही आई है.
हैरानी की बात नहीं है कि सरकार चाहे जिस भी पार्टी, रंग, झंडे और गठबंधन की रही हो लेकिन दूरदर्शन और आकाशवाणी की स्थिति कार्यक्रमों की गुणवत्ता, सृजनात्मकता और स्वायत्तता के मामले में स्थिति लगातार बदतर ही हुई है. हालांकि यह भी सच है कि इन डेढ़ दशकों में प्रसार भारती का संरचनागत विस्तार हुआ है. दूरदर्शन के चैनल लगभग सभी प्रमुख भाषाओं और राज्यों में उपलब्ध हैं, खेल-कला/संस्कृति और समाचार के लिए अलग से चैनल हैं और एफएम प्रसारण के जरिये आकाशवाणी ने भी श्रोताओं के बीच कुछ हद तक वापसी की है. यह भी सच है कि निजी चैनलों की अति व्यावसायिक, महानगर केंद्रित और मुंबईया सिनेमा के फॉर्मूलों पर आधारित मनोरंजन कार्यक्रमों, सनसनीखेज और समाचारों के नामपर तमाशा करने में माहिर निजी समाचार चैनलों से उब रहे बहुतेरे दर्शकों को दूरदर्शन के चैनल ज्यादा बेहतर नजर आने लगे हैं.
लेकिन प्रसार भारती के सामने खुद को एक बेहतर और आदर्श ‘लोक प्रसारक’ और वास्तविक अर्थों में ‘देश की आवाज’ बनाने की जितनी बड़ी चुनौती है, उसके मुकाबले इस क्रमिक सुधार से बहुत उम्मीद नहीं जगती है. यही नहीं, प्रसार भारती में हाल के सुधारों की दिशा उसे निजीकरण और व्यवसायीकरण की ओर ले जाती दिख रही है. प्रसार भारती पर अपने संसाधन जुटाने का दबाव बढ़ता जा रहा है और इसके कारण विज्ञापन आय पर बढ़ती निर्भरता उसे निजी चैनलों के साथ अंधी प्रतियोगिता में उतरने और उनकी सस्ती अनुकृति बनने के लिए मजबूर कर रही है. हालांकि दूरदर्शन के व्यवसायीकरण की यह प्रक्रिया 80 के दशक में ही शुरू हो गई थी लेकिन नब्बे के दशक में निजी प्रसारकों के आने के बाद इसे और गति मिली.
इस कारण आज दूरदर्शन और निजी चैनलों में कोई बुनियादी फर्क कर पाना मुश्किल है. कहने की जरूरत नहीं है कि व्यावसायिकता और लोक प्रसारण साथ नहीं चल सकते हैं. दुनिया भर में लोक प्रसारण सेवाओं के अनुभवों से साफ है कि लोक प्रसारण के उच्चतर मानदंडों पर खरा उतरने के लिए उसका संकीर्ण व्यावसायिक दबावों से मुक्त होना अनिवार्य है. इसकी वजह यह है कि प्रसारण का व्यावसायिक मॉडल मुख्यतः विज्ञापनों पर निर्भर है और विज्ञापनदाता की दिलचस्पी नागरिक में नहीं, उपभोक्ता में है. उस उपभोक्ता में जिसके पास क्रय शक्ति है और जो उत्पादों/सेवाओं पर खर्च करने के लिए इच्छुक भी है. इस कारण वह ऐसे दर्शक और श्रोता खोजता है जिन्हें आसानी से उपभोक्ता में बदला जा सके. इसके लिए वह ऐसे कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करता है जो इसके उद्देश्यों के अनुकूल हों.
एक मायने में, कॉरपोरेट जन माध्यम अपने पाठकों और दर्शकों को एक सक्रिय नागरिक के बजाय निष्क्रिय उपभोक्ता भर मानकर चलते हैं और उनके साथ उसी तरह का व्यवहार करते हैं. इस कारण लोकतंत्र की बुनियादी जरूरत विचारों की विविधता और बहुलता के लिए कॉरपोरेट जन माध्यमों में जगह दिन पर दिन सिकुड़ती जा रही है. दूसरी ओर, जन माध्यमों के कंटेंट में भी आम लोगों और उनके सरोकारों, जरूरतों और इच्छाओं के लिए जगह कम होती जा रही है. लेकिन कॉरपोरेट जन माध्यमों के इस बुनियादी चरित्र और उद्देश्य को लेकर लंबे अरसे से सवाल उठते रहे हैं और चिंता जाहिर की जाती रही है.