‘23 साल का वह क्रांतिकारी इतना बड़ा हो गया है कि उस पर कोई पगड़ी फिट नहीं हो सकती’

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भगत सिंह पर दावेदारी कोई नई बात नहीं है. यह काफी समय से जारी है. खास तौर पर जब से भगत सिंह की जन्म शताब्दी आई. जन्म शताब्दी वर्ष यानी 2007 में, पूरे वर्ष भगत सिंह के सिर पर पगड़ी पहनाने का प्रयास हुआ. पहले कभी-कभार हुआ करता था, फिर खुलेआम होने लगा. इसमें जाने-अनजाने वे लोग भी शामिल हुए जो भगत सिंह को क्रांतिकारी चेतना के वाहक और पूरे क्रांतिकारी आंदोलन के प्रवक्ता के रूप में देखते हैं. ये सब इसलिए ताकि भगत सिंह को जाति और धर्म के खांचे में धकेल दिया जाए ताकि उनका जो पैनापन है, जो विचार उनके पास हैं, पूरे क्रांतिकारी आंदोलन में भगत सिंह की जो छवि उभरती है उसे खत्म किया जा सके.

जब कट्टरपंथी लोग भगत सिंह पर दावेदारी करते हैं तो भगत सिंह समेत पूरी क्रांतिकारी चेतना का नुकसान होता है. एक उदाहरण देता हूं. करीब दो साल पहले मेरे पास बरेली से एक पूर्व मंत्री का फोन आया, ‘दिल्ली विश्वविद्यालय के हरेंद्र श्रीवास्तव हैं, जिन्होंने सावरकर पर पीएचडी की है, उनका व्याख्यान चल रहा है. आप जरूर आइए.’ हम गए तो नहीं लेकिन जो रिपोर्ट आई उसमें हरेंद्र श्रीवास्तव ने कहा, ‘भगत सिंह जब पांच वर्ष के थे तब उन्हें गांव के विद्यालय में दाखिला कराने के लिए ले जाया गया. वहां उनसे दाखिले का फॉर्म भरवाया गया जिसमें मां के नाम के खाने में उन्होंने स्वयं ही अपनीे पांच मांओं के नाम दर्ज किए- धरती माता, भारत माता, गंगा माता, गौ माता और अपनी माता विद्यावती.’ अब बताइए इस पर आप क्या कहेंगे कि भगत सिंह जन्म से ही आरएसएस की दीक्षा में दीक्षित थे और पहले दर्जे में जाने से पहले ही इतने पढ़े-लिखे थे कि मां के नाम के खाने में अपने हाथ से पांच नाम अंकित कर सकें? उनके व्याख्यान की भरी सभा में कोई यह भी पूछने की हिमाकत नहीं कर सका कि पांच वर्ष की उम्र होने पर 1912 में जब भगत सिंह को विद्यालय में दाखिल कराने के लिए ले जाया गया, तब दाखिले के लिए न तो फॉर्म होते थे और न ही मां के नाम की कोई जगह उन दिनों निर्धारित हुई थी. मां के नाम का कॉलम हमारे बच्चों के समय आया. दुष्यंत कुमार का वह शेर है कि ‘यहां पर सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं, खुदा जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा.’ उस सभा में विद्वान, लेखक, छात्र, अध्यापक, पत्रकार सब रहे होंगे पर किसी ने सवाल नहीं किया.

भगत सिंह के नाम पर तमाम झूठ फैलाया जा रहा है. भाजपा ने भगत सिंह के भतीजे यादवेंद्र सिंह संधू के मुंह से कहलवाया कि भगत सिंह आस्तिक थे. वे कहते हैं कि भगत सिंह की डायरी में दो शेर लिखे हुए हैं जिसमें एक शेर में परवरदिगार शब्द आया है इसलिए भगत सिंह आस्तिक हैं. इस तरह की हास्यास्पद बातें लगातार फैलाई जा रही हैं

इस तरह भगत सिंह के नाम पर तमाम झूठ फैलाया जा रहा है. अब से तीन-चार पहले भाजपा भगत सिंह के भतीजे यादवेंद्र सिंह संधू को लिए घूम रही थी और कई जगह उनके मुंह से कहलवाया कि भगत सिंह आस्तिक थे. जबकि भगत सिंह का पर्चा ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ कितने वैज्ञानिक ढंग से लिखा गया है. वे कहते हैं कि भगत सिंह की डायरी में दो शेर लिखे हुए हैं जिसमें एक शेर में परवरदिगार शब्द आया है इसलिए भगत सिंह आस्तिक हैं. इस तरह की हास्यास्पद बातें लगातार फैलाई जा रही हैं.

भगत सिंह को इस तरह एक शब्द पकड़कर नहीं समझा जा सकता. भगत सिंह को देखना होगा तो भगत सिंह के विकास के साथ देखना पड़ेगा. भगत सिंह आर्यसमाजी परिवार में पैदा होते हैं, फिर अराजकतावादी होते हैं, फिर राष्ट्रवादी होते हैं. उनका जो रूपांतरण होता है वह बहुत कम समय में हुआ बहुत गजब का रूपांतरण है. जो लोग यह मानते हैं कि भगत सिंह अकेले ऐसे थे, मैं मानता हूं कि 70 साल लंबा क्रांतिकारी आंदोलन विकसित होकर, अपने पूर्ण विकास के बाद भगत सिंह के रूप में बोलता है. भगत सिंह के पहले जो जमीन बनाई है, वे अशफाक उल्ला खां ने बनाई है. जब वो अपनी डायरी में मजदूरों का पक्ष लेते हैं, किसानों का पक्ष लेते हैं, उनकी ताकत को पहचानते हैं और वे खुलकर कहते हैं कि इन विचारों के लिए मुझे कम्युनिस्ट कहा जाए तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है. यह भी विकास है कि पहले उनकी पार्टी का नाम हिंदुस्तान प्रजातंत्र था, जो बाद में हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र रखा जाता है. जिस समय तक कांग्रेस पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव तक पारित नहीं कर पाई थी, तब वे हिंदुस्तानी प्रजातंत्र की बात कर रहे थे.

भगत सिंह और आंबेडकर को अपनाने की कोशिश में संघ परिवार के लोग खुद भ्रमित हैं. संघ भले कितना कहता रहे कि हम एक सांस्कृतिक संगठन हैं, अंतत: वह पूरी तरह से एक राजनीतिक संगठन है और किसी भी हद तक उतर सकता है, भले ही महापुरुषों के विचारों की हत्या करनी पड़े. अब ये सारे लोग आंबेडकर को भी अपनाने की कोशिश कर रहे हैं. अरविंद केजरीवाल भी आंबेडकर को अपनाने की कोशिश में हैं. अब पंजाब का चुनाव यह सब करने पर मजबूर कर रहा है. भगत सिंह को पगड़ी पहनाकर सिख बना देने का क्या मतलब है? आप भगत सिंह को पगड़ी क्यों पहना रहे हैं? जिस व्यक्ति ने खुद कहा हो कि अभी तो मैंने केवल बाल कटवाए हैं, मैं धर्मनिरपेक्ष होने और दिखने के लिए अपने शरीर से सिखी का एक-एक नक्श मिटा देना चाहता हूं, आप उसके सिर पर फिर पगड़ी रख रहे हैं. आप यही तो बताना चाह रहे हैं कि भगत सिंह इसलिए बहादुर थे कि सिख थे. तब आप मेरे सवाल का जवाब दीजिए कि क्या राम प्रसाद बिस्मिल इसलिए बहादुर थे कि ब्राह्मण थे, रोशन सिंह इसलिए बहादुर थे कि ठाकुर थे, अशफाक उल्ला इसलिए बहादुर थे कि पठान थे? अगर इस बात का जवाब हां में दे देंगे तो हम मान लेंगे कि भगत सिंह सिख थे इसलिए बहादुर थे. आप कितना भी प्रयास कर लें भगत सिंह के सिर पर पगड़ी रखने का, लेकिन 23 साल का वह नौजवान क्रांतिकारी इतना बड़ा हो गया है कि उस पर कोई पगड़ी अब फिट नहीं हो सकती. यह सब तो चुनावी हथकंडे हैं कि भगत सिंह को सिख बना दो तो वहां से वोट मिल जाए, आंबेडकर को अपना लो तो दलित जातियों का वोट मिल जाए.

यह प्रगतिशील तबके की विफलता है कि आज भगत सिंह पर वही लोग दावा कर रहे हैं जिनके विरोध में भगत सिंह खड़े थे. एक अहम बात यह है कि अगर हम अपने प्रगतिशील नायकों को छोड़ते चले जाएंगे तो उनको कोई न कोई अपना ही लेगा. मेरे ख्याल से वामपंथी पार्टियों और प्रगतिशील लोगों का पतन है कि वह भगत सिंह के जन्मदिन पर पंजाब में लंगर का आयोजन करती है. यह भगत सिंह की चेतना का अपमान है.

हमारा मानना है कि भगत सिंह अकेले नहीं थे. आप देखिए कि भगत सिंह के नाम से जो दस्तावेज प्रकाशित हैं, उसमें बहुत सारे दूसरे साथियों के भी दस्तावेज हैं. उन्हें भगत सिंह के नाम पर प्रकाशित कर दिया जाता है. सब कुछ भगत सिंह के खाते में डालकर उन्हें इतना ऊंचा बना दिया है कि हम उन्हंे देख न सकें, छू न सकें. भगत सिंह ने जो भी काम किए, सांडर्स को मारा या असेंबली में बम फेंका, वह अकेले नहीं किया. संयुक्त रूप से किया. दूसरे, क्रांतिकारी आंदोलन के ज्यादा महत्वपूर्ण दस्तावेज भगवती चरण वोहरा के लिखे हुए हैं. सर्वाधिक महत्वपूर्ण दस्तावेज उनके लिखे हुए हैं तो सब सिर्फ भगत सिंह के खाते में क्यों डाला जा रहा है?

कितने लोगों ने भगवती चरण वोहरा, विनय कुमार सिन्हा, जयदेव कपूर को याद किया? आज भगत सिंह की बात करने वाले, चाहे वे प्रगतिशील हों, वामपंथी या दक्षिणपंथी, कल तक भगत सिंह के जो साथी जीवित थे वे किस तरीके से मर रहे थे, किस तरह से उपेक्षित जीवन जी रहे थे, उनकी तरफ आंख उठाकर इन लोगों ने देखा तक नहीं

दूसरा सवाल यह भी है कि कितने लोगों ने भगत सिंह के अलावा भगवती चरण वोहरा को याद किया. कितने लोगों ने विनय कुमार सिन्हा को याद किया? कितने लोगों ने जयदेव कपूर को याद किया? आज भगत सिंह की बात करने वाले, वे प्रगतिशील हों, वामपंथी या दक्षिणपंथी, कल तक भगत सिंह के जो साथी जीवित थे वे किस तरीके से मर रहे थे, किस तरह से उपेक्षित जीवन जी रहे थे, उनकी तरफ आंख उठाकर इन लोगों ने देखा तक नहीं. केवल भगत सिंह को याद करना और उनका बिल्ला लगाना प्रगतिशील क्रांतिकारी आंदोलन का ही अपमान है.

उस समय भगत सिंह से वामपंथियों का कोई वास्ता नहीं था. उनके मरने के बाद उनको पूरी तरह भुला दिया गया. अभी कुछ समय पहले जयदेव कपूर मरे हैं. मैंने उनकी जीवनी पूरी की है. आज भी मुझे ध्यान आता है कि एक बार उन्होंने मुझे पत्र लिखकर बुलाया. वे अपने घर में न होकर अपने दूसरे बेटे के घर में थे. चलने से पहले मुझसे बड़ी कातर निगाहों से बोले कि मुझे तीन दिन से खाना नहीं मिला है. भगत सिंह से कम योगदान नहीं है बटुकेश्वर दत्त का. कोई फांसी चढ़ गया और किसी ने कारागार के भीतर जिंदगी जी, जो ज्यादा कष्टदायी थी. वही बटुकेश्वर दत्त, जिन्हें अपने गुजारे के लिए डबल रोटी की फैक्टरी में मैदा सप्लाई करना पड़ता था. बटुकेश्वर दत्त के हाथ में बड़े-बड़े बाल थे. उनके हाथों के बाल झुलस गए थे भट्ठी की आंच से. वे मैदे की बोरियां खींचकर ले जाते थे. इतने बड़े क्रांतिकारी से हमने क्या काम लिया? दो सेर आटा और लकड़ियों के जुगाड़ के लिए बटुकेश्वर पटना की सड़कों पर जर्जर साइकिल पर निकलते थे. किसी ने दो पल रुककर नहीं देखा कि यह व्यक्ति बटुकेश्वर दत्त है, जिसने उस समय अंतरराष्ट्रीय ख्याति पाई थी. आज उसी पटना की सड़क पर आमिर खान खड़े होते हैं तो पटना में ट्रैफिक रुक जाता है उनको देखने के लिए. बटुकेश्वर को किसी ने नहीं देखा.

1925 में बने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का तो आजादी की लड़ाई में कोई भी योगदान नहीं है. हमारा सवाल उनसे है जो भगत सिंह के करीब हैं और वैचारिक रूप से उनके निकट हैं, उनकी संघ के बजाय ज्यादा जिम्मेदारी है, उनसे ज्यादा सवाल हैं. उन्होंने इन क्रांतिकारियों के लिए क्या किया? किसी से पूछिए कि डॉ. गया प्रसाद वह क्रांतिकारी थे जिनकी जेल के भीतर सर्वाधिक पिटाई होती थी. जेल अधिकारी गुस्से में उनको मारते थे जो थोड़े मजबूत किस्म के होते थे. वे छोटे कद के, थोड़ा स्थूल शरीर के थे. ये था कि पिटाई से मरेंगे नहीं. वे काला पानी भी गए. इतने सीधे-सादे व्यक्ति डॉ. गया प्रसाद कानपुर के निकट जगदीशपुर गांव में कब मरे, किसी को नहीं पता. किसी प्रगतिशील संगठन  किसी राजनीतिक या किसी वामपंथी पार्टी ने इन लोगों के मरने पर एक शोकसभा तक नहीं की. इसलिए ये ज्यादा जिम्मेदार हैं.

जिन लोगों ने आजादी के लिए इतनी कुर्बानियां दीं, वे क्या सोचते हुए मरे होंगे? वे जिस अभाव में जिए, उनके घरवाले क्या सोचते होंगे? जयदेव कपूर या बटुकेश्वर दत्त बनकर कौन मरना चाहेगा इस देश में? भगत सिंह के आंदोलन में शामिल होने के समय वामपंथी पार्टी बन चुकी थी. बावजूद इसके भगत सिंह ने पार्टी से कोई संबंध नहीं रखा. समानांतर कार्रवाइयां चलती थीं. इन क्रांतिकारियों का मानना था कि जेल जाकर हमारा कार्य समाप्त नहीं हो गया है. बल्कि उनका कहना था कि जब हम जेल में आ गए तो हमारे हथियार दूसरे हो गए हैं. हमें जेल के भीतर भी शांत नहीं बैठना है. अनशन को गांधीवादियों का हथियार माना जाता है. गांधी सहित किसी गांधीवादी ने कभी अनशन करते हुए जान नहीं दी लेकिन अनशन करके जान देने वालों की लंबी सूची क्रांतिकारियों की है. भगत सिंह के पास अनशन का लंबा रिकॉर्ड है. भगत जब फांसी चढ़े तब उनका सबसे बड़ा सरोकार अहिंसा था. पूरे क्रांतिकारी आंदोलन पर जो आतंक का आरोप लगता था, उस घेरे से आंदोलन को निकालने का काम भगत सिंह ने किया.

भगत कभी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं बने. यह अलग बात है कि बाकी  कुछ साथी बाद में जेल में रहने के दौरान चिंतन-मनन के आधार पर वामपंथ की ओर झुके और बाहर आकर पार्टी जॉइन की. शिव वर्मा की बहुत महत्वपूर्ण कृति है ‘संस्मृतियां’. सीपीएम ने बहुत वर्षों तक उन्हें अपने शहीद साथियों पर लिखने की अनुमति नहीं दी. यह कम्युनिस्ट पार्टियों का दोष है. यह रवैया है इनका. बहुत जद्दोजहद के बाद उन्हें किताब लिखने की अनुमति मिली.

अब देखिए कि भगत सिंह की विचारधारा और उनके सपनों पर कोई बात नहीं करता. अगर शशि थरूर ने कन्हैया को भगत सिंह बता दिया, तो इससे पहले भी कितने ऐसे प्रसंग आए होंगे जब किसी को भगत सिंह कहा गया होगा. अभी पिछले अगस्त में मैंने एक लेख लिखा. 9 अगस्त ‘काकोरी दिवस’ से करीब एक महीने पहले संजय गुप्ता नाम के एक व्यक्ति का मेरे पास फोन आया कि वे इस तिथि को शाहजहांपुर में ‘काकोरी शहीद दिवस’ मनाना चाहते हैं. उन्होंने काकोरी शहीदों के लिए शासन से की जाने वाली मांगों की चर्चा की और मुझसे कार्यक्रम में शामिल होने को कहा. आयोजन से सप्ताह भर पहले उन्होंने मेरे भाई के जरिए पत्रक भेजे. उसमें रामप्रसाद बिस्मिल का जो चित्र छापा गया था उसमें उन्हें भगत सिंह वाला हैट और भगत सिंह की लंबे काॅलर वाली कमीज पहनाई गई थी. पूछने पर उस व्यक्ति ने बताया कि इसी हैट को लगाकर बिस्मिल डकैतियां डालने जाते थे और अंतिम समय बिस्मिल अपना यही हैट भगत सिंह को दे गए थे. अब कोई पूछे कि हैट लगाकर डकैती डालने वाली बात कितनी विश्वसनीय है. मैंने कहा कि यह चित्र तो मैंने पहली बार देखा है. 1925 में बिस्मिल जेल चले गए थे और तब तक भगत सिंह परिदृश्य में कहीं नहीं थे, भगत सिंह से उनकी कोई मुलाकात नहीं हुई. संजय गुप्ता के पास इस तर्क का कोई उत्तर नहीं था और न ही उन बातों का जिन्हें अपने दो-तीन पत्रकों में उन्होंने छापा था. मजेदार यह था कि उन्होंने ‘सरफरोशी की तमन्ना’ और ‘मिट गया जब मिटने वाला’ के अलावा फिल्म ‘उमराव जान’ में शहरयार की मशहूर रचना ‘दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए’ को भी रामप्रसाद बिस्मिल की लिखी कविता बताया है. जबकि ‘सरफरोशी की तमन्ना’ शीर्षक गजल बिस्मिल अजीमाबादी की और ‘मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या’ दिल शाहजहांपुरी की रचना है.

उन्होंने यह झूठ भी गढ़ा कि लखनऊ जेल से अदालत जाते समय बसंत पंचमी के दिन बिस्मिल और दूसरे क्रांतिकारी साथी उनके कहने से गले में पीले रूमाल और सिर पर पीली टोपी पहन कर गए थे और उसी दिन के लिए बिस्मिल ने अपने साथियों के कहने पर ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ की रचना की. यह पीले रूमाल की बात उस बात की नकल में गढ़ी गई है कि लेनिन दिवस पर भगत सिंह जेल में लाल रूमाल बांधकर गए थे. अपने पत्रक में उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री को सशस्त्र क्रांति का सैनिक बताया और यह भी लिखा कि रामप्रसाद बिस्मिल के डेथ वारंट में स्पष्ट लिखा गया था- टू बी हैंग्ड टिल डेथ, क्योंकि अंग्रेज यह बात भली-भांति जानते थे कि रामप्रसाद बिस्मिल जेल में प्रतिदिन योगाभ्यास करते हैं अतः एक झटके में उनके प्राण निकलने वाले नहीं. इसके पीछे पूरा संघ परिवार है. उस पर्चे में इतना झूठ छापा गया. हमने उनसे पूछा कि क्या अशफाक के बारे में यही नहीं लिखा गया था. उसी केस के रोशन सिंह के बारे में नहीं लिखा गया था? राजेंद्र नाथ लाहिड़ी के बारे में नहीं लिखा गया था? या इससे पहले और वारंट में यही नहीं लिखा गया? अपने इसी कुतर्क के आधार पर उन्होंने शाहजहांपुर में एक ‘राम प्रसाद बिस्मिल योग-आयुर्वेद संस्थान’ खोलने की मांग प्रस्तुत करने के साथ ही 50 हजार गायों की एक गौशाला बनाए जाने का भी प्रस्ताव किया.

तो मैं कहना चाहता हूं कि यह षड्यंत्र कोई नया नहीं है. अब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा है. वर्ष 1997 में प्रवीण प्रकाशन, नई दिल्ली से काकोरी कांड के शहीद राम प्रसाद बिस्मिल की रचनाओं का संचयन ‘सरफरोशी की तमन्ना’ शीर्षक से पांच खंडों में प्रकाशित हुआ. इसका संकलन, शोध एवं संपादन मदनलाल वर्मा ‘क्रान्त’ ने किया था और प्रस्तावना ‘आशीर्वचन’ के रूप में प्रो. राजेन्द्र सिंह उर्फ रज्जू भइया, सरसंघचालक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने लिखी. जबकि उन दिनों मन्मथनाथ गुप्त, विष्णु शरण दुबलिश, रामकृष्ण खत्री, प्रेमकिशन खन्ना और शिव वर्मा सरीखे बिस्मिल के क्रांतिकारी साथी जीवित थे पर इनमें से किसी को भी संपादक ने अपनी पुस्तक की भूमिका लिखने के योग्य न समझा. संपादक ने यह भी लिखा कि हमें बिस्मिल की कुछ रचनाएं अधूरी मिलीं, जो पूरी कर दीं. पता नहीं उसे यह अधिकार किसने दे दिया. अब यह नहीं समझ में आ रहा है कि उन रचनाओं में कितना बिस्मिल का है और कितना इन्होंने पूरा कर दिया है.

इसी किताब का रहस्य यह है कि संपादक लिखते हैं, ‘आज बिस्मिल की कौम से वाकिफ लोगों की एक अच्छी-खासी जमात हमारे मुल्क में खड़ी है. यह दीगर बात है कि अभी उस जमात का जमाना नहीं आया. शायद आने वाले कल में उन्हें कोई पहचानने वाला हो, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों में बिस्मिल की रूह की झलक आपको मिल सकती है.’

संपादक महोदय एक जगह और लिखते हैं जो और हैरत में डालने वाला है, ‘मेरा जन्म बिस्मिल की मृत्यु के ठीक बीस वर्ष बाद 20 दिसंबर 47 को शाहजहांपुर में हुआ, तो क्या उनकी (बिस्मिल की) आत्मा पूरे बीस वर्ष तक भटकती रही. इसका उत्तर कोई त्रिकालदर्शी ही दे सकता है. बहरहाल मेरी पीठ पर अभी भी नीला निशान है. लोग कहते हैं कि यह निशान तो उसी बच्चे का होता है जिसका पुनर्जन्म हुआ हो.’ अर्थात स्पष्ट है कि इस पुस्तक के संपादक के रूप में बिस्मिल का पुनर्जन्म हुआ है और ऐसी स्थिति में शहादत से पहले बिस्मिल की अधूरी रही रचनाओं को पूर्ण करने का दायित्व उन्हें स्वतः ही हासिल हो जाता है. पूरी पुस्तक अवैज्ञानिक तर्कों से भरी है जिसमें वे कभी गणेश शंकर विद्यार्थी को वकील लिखते हैं तो कहीं किसी दूसरे की रचना को रामप्रसाद बिस्मिल की बताकर उसका उल्लेख करने से नहीं हिचकते. इन हरकतों से, क्रांतिकारियों के बारे में ऐसा गप्प फैलाने से ऐतिहासिक दस्तावेजों की असली पहचान खो जाएगी.

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)