‘गांधी’ जो नाव डुबोए…

हालांकि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र नेता और कांग्रेस से जुड़े रमेश यादव इससे इनकार करते हैं. वे कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के कार्यकर्ता अपने शीर्ष स्तर के नेताओं से नहीं मिल पाते हैं. हर पार्टी में कार्यकर्ताओं के साथ संवाद की एक प्रक्रिया होती है और यह प्रक्रिया एक दिन में नहीं निर्मित होती है. आप दिल्ली में रहने वाले किसी भी शीर्ष नेता से वक्त लेकर मुलाकात कर सकते हैं और यह बेहद आसान है. मैं इलाहाबाद में रहता हूं और कांग्रेस के किसी भी नेता से दिल्ली में वक्त लेकर मिल सकता हूं और मिलता रहा हूं. कांग्रेस का संगठन बहुत बड़ा है. इतना बड़ा संगठन होने पर तमाम कमियां होती रहती हैं लेकिन संवादहीनता का जो आरोप लगाया जा रहा है वह गलत है. दरअसल ऐसे विधायक जो दूसरी पार्टियों से डील कर चुके होते हैं वो ऐसे बेबुनियाद आरोप लगाकर पार्टी को बदनाम करने की कोशिश करते हैं.’

इसके अलावा कांग्रेस और उसके नेताओं पर भ्रष्टाचार के मामले किसी से छिपे नहीं हैं. यूपीए के दूसरे कार्यकाल के दौरान भ्रष्टाचार के मामलों की कतार लग गई थी. कांग्रेस सत्ता से दो साल से दूर है लेकिन आज भी भ्रष्टाचार का मसला उसका पीछा नहीं छोड़ रहा है. अगस्ता वेस्टलैंड के मामले पर एक बार वह फिर बैकफुट पर है.

वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी कहते हैं, ‘कांग्रेस निश्चित तौर पर इस समय बेहाल स्थिति में है. भ्रष्टाचार के आरोप उसके ऊपर साबित हो या न हो लेकिन इसका संदेह ही उसे राजनीतिक रूप से नुकसान पहुंचाने के लिए पर्याप्त है. भाजपा इस समय सरकार में है. उसके पास मशीनरी है. संघ जैसा राष्ट्रव्यापी संगठन उसके पास है. वह संगठित और सुव्यवस्थित तरीके से कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने का काम करेगी. भाजपा यह चाहेगी कि अगस्ता वेस्टलैंड मामले में जल्दी कुछ परिणाम न आए ताकि वह कांग्रेस को लंबे समय तक नुकसान पहुंचाती रहे. सोनिया गांधी का इटली से कनेक्शन भी कांग्रेस के लिए नुकसानदेह साबित हो रहा है. मजेदार यह है कि इटली का जो कनेक्शन भाजपा के लिए हानिकारक होना चाहिए वह उल्टा हो रहा है. मतलब मुसोलिनी के फासीवाद से भाजपा और संघ के जुड़ाव की कोई चर्चा नहीं है. भाजपा की भी समझ में आ रहा है कि उन्हें भ्रष्टाचार का मामला धर्म और राष्ट्र के मसले से ज्यादा फायदा दे रहा है, इसलिए वह इस आरोप को बरकरार रखना चाह रही है.’

वैसे भी जहां तक बात भ्रष्टाचार की है तो कांग्रेस हमेशा नुकसान की स्थिति में रहती है. अब अगस्ता का मामला ले लीजिए. कानूनी तौर पर इसमें सोनिया गांधी का नाम कहीं नहीं है लेकिनराजनीतिक तौर पर इसका फायदा भाजपा उठा रही है. अब कांग्रेस भले ही कहे कि इसमें सोनिया शामिल नहीं हैं पर भाजपा यह समझा रही है कि इटली की अदालत ने सोनिया गांधी का नाम लिया है. इससे पहले बोफोर्स जैसा मामला हो गया है तो जनता आसानी से यह बात मान लेती है.

जानकार कहते हैं कि अगस्ता वेस्टलैंड का मामला भाजपा अब तीन साल तक चलाएगी. 2010 में कॉमनवेल्थ घोटाले का खुलासा हुआ था और उस समय कहा जा रहा था कि भाजपा 2014 तक इसे कैसे चलाएगी. लेकिन बाद में टूजी, कोल, रेलवे भर्ती, जमीन के घोटाले आते रहे और मामला लोकसभा चुनाव तक पहुंच गया. मजेदार यह है कि आज जब कांग्रेस विपक्ष में है तब भी घोटाला करने का आरोप उसी पर लग रहा है. जाने-अनजाने कांग्रेस की छवि भ्रष्टाचार करने वाली पार्टी की बन गई है. अब जैसे रॉबर्ट वाड्रा का मामला है. उनके खिलाफ कोई केस अभी तक फाइल नहीं हुआ है लेकिन आरोप लगता रहता है कि उन्हें कम दामों पर जमीन दी गई. हालांकि भ्रष्टाचार के मसले पर पुराने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को कोई खास फर्क नहीं पड़ रहा है. वह इसे सिर्फ कांग्रेस को बदनाम करने वाली साजिश के रूप में देखते हैं.

अमेठी के रहने वाले रिटायर्ड शिक्षक और कांग्रेस के कार्यकर्ता राम पियारे कहते हैं, ‘राजनीतिक रूप से भ्रष्टाचार जनता के लिए इतना बड़ा मुद्दा नहीं है. सभी को पता है कि ऐसे आरोप सिर्फ वोट लेने-देने के लिए लगाए जाते हैं. जनता अब समझ चुकी है कि भ्रष्टाचार का पाखंड करके भाजपा ने सत्ता तो हथिया ली लेकिन उसे सिर्फ बेवकूफ बनाया गया है. पिछले दो सालों में किसी भी कांग्रेसी नेता के ऊपर मुकदमा नहीं दायर किया गया है. जितने भी मामले चल रहे हैं वे पूर्व की कांग्रेस सरकार द्वारा ही दायर किए गए थे. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस सिर्फ भाजपा का पाखंड तोड़ पाने में असफल रही है. भले ही आज कांग्रेस को भ्रष्टाचार करने वाली पार्टी कहा जा रहा है लेकिन यह सच नहीं है. देश भर में हम जैसे गांधीवादी कार्यकर्ता और नेता भी इसी पार्टी से जुड़े हुए हैं. जो लोग कांग्रेस के कुछ भ्रष्ट लोगों के चलते पूरी पार्टी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा रहे हैं वे लोग इतिहास नहीं जानते. कांग्रेस एक संगठन नहीं, बल्कि सोच है जो हमारे दिल में है. दिमाग में है. यह भाईचारे, प्रेम, धर्मनिरपेक्षता, विकास और सबको साथ लेकर चलने की सोच है.’

Photo : Tehelka Archive
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कांग्रेस पार्टी भाजपा का पाखंड तोड़ पाने में असफल रही है. शायद इसी सोच के चलते हाल में उसने चुनावों का मैनेजमेंट करने वाले प्रशांत किशोर की सेवाएं ली हैं. हालांकि कांग्रेस एक ऐसी पार्टी  है जिसके पास पूरे देश भर में संगठन है. भले ही वह जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हो. आपको देश के हर हिस्से में कांग्रेस के लोग मिल जाएंगे. कई दशकों तक कांग्रेस ने देश पर राज किया है. ऐसी पार्टी द्वारा प्रशांत किशोर की सेवाएं लिए जाने को राजनीतिक विश्लेषक अलग-अलग नजरिये से देख रहे हैं. उनका कहना है कि प्रशांत किशोर आइडियोलॉजिकल व्यक्ति नहीं बल्कि मैनेजर हैं. वे मोदी, नीतीश के लिए काम कर चुके हैं अब वे कांग्रेस के लिए काम करेंगे. कल हो सकता है वे फिर मोदी के लिए काम करें. दूसरी बात हमें यह देखनी है कि प्रशांत किशोर करते क्या हैं. वह जो काम कर रहे हैं वह तो कायदे से पार्टी कार्यकर्ता का है. अब अगर पेड वर्कर लेकर आप काम करेंगे तो ऐसे कार्यकर्ताओं पर बुरा असर भी पड़ेगा जो आपके लिए मुफ्त में काम करते रहे हैं. इसके अलावा वे नारे दे सकते हैं, बैनर बना सकते हैं, सोशल मीडिया कैंपेन चला सकते हैं, लेकिन राजनीतिक रूप से लोगों को जोड़ने का काम तो पार्टी को ही करना होगा. अगर प्रशांत किशोर यह भी करेंगे तो यह लोकतंत्र के लिए तो खतरनाक है ही कांग्रेस के लिए बहुत बुरा है.

‘कांग्रेसी नेता आपस में मजाक करते हैं कि बीजेपी के मंत्री हमें सत्ता में लाने के लिए बहुत मेहनत कर रहे हैं. भाजपा इसलिए हाथ पर हाथ रखकर बैठी थी कि कांग्रेस उसके लिए सत्ता का रास्ता खोल देगी. कांग्रेस इसलिए हाथ पर हाथ रखे बैठी है कि भाजपा उसके लिए सत्ता का रास्ता खोल देगी. तो हमारे यहां ये विपक्ष की भूमिका हैे. कम्युनिस्ट पार्टियों की हालत खस्ता है. जो क्षेत्रीय शक्तियां हैं, उनकी केंद्र में कोई दावेदारी नहीं है’

पत्रकार अरुण त्रिपाठी कहते हैं, ‘प्रशांत किशोर की सेवाएं लेने में बुराई नहीं है लेकिन कार्यकर्ताओं को जोड़ने का काम हमेशा पार्टी का नेतृत्व करता है. अभी भारत में जनता पार्टियों को वोट करती है. आप जुमले गढ़कर, बैनर-पोस्टर लगाकर कितने लोगों को अपने साथ जोड़ पाएंगे यह देखने वाली बात होगी. उत्तर प्रदेश चुनाव में कांग्रेस के इस प्रयोग का भी खुलासा हो जाएगा.’

वैसे भी राजनीति में सफलता बहुत मायने रखती है. राहुल गांधी अपनी छवि को बदलने के लिए तमाम प्रयोग पहले भी कर चुके हैं. ऐसे में उनकी टीम द्वारा उन्हें यह सुझाव दिया गया है कि एक बार जो प्रयोग सफल रहा है उसको आजमाकर देखा जाए तो वे प्रशांत किशोर की शरण में आ गए हैं. उन्हें लगता है कि अगर वे एक बार सफल हो गए तो तमाम आरोप जो उन पर लग रहे हैं उनसे उन्हें निजात मिल जाएगी. पार्टी में भी उनके कद को लेकर सवाल उठना बंद हो जाएगा. हालांकि प्रशांत किशोर जो काम अब पैसा लेकर करेंगे ऐसे कैंपेन की अगुआई कांग्रेस के कई नेता जैसे दिपेंदर हुड्डा, संदीप दीक्षित आदि और कार्यकर्ता बिना पैसे लेकर कर रहे थे. इस बात से पार्टी के नेताओं में असंतोष भी फैलेगा और उनमें अपने कद को लेकर असुरक्षा की भावना भी विकसित होगी.

हालांकि कांग्रेस के नेता इसे मानने से इनकार करते हैं. नसीब सिंह कहते हैं, ‘प्रशांत किशोर जी का अलग रोल है. अब जमाना बदला है. ऐसे में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल मीडिया और दूसरे अन्य माध्यम ज्यादा प्रभावी रोल अदा कर रहे हैं. इन्हें मैनेज करने में पार्टी की मदद करने के लिए उन्हें लाया गया है. ऐसा नहीं है कि पार्टी में उनको जगह दी जा रही है. वे सिर्फ सहायक की भूमिका में हैं. उत्तर प्रदेश में हमारी स्थिति थोड़ी खराब थी ऐसे में उनकी सेवाएं लेकर हम खुद को बेहतर बनाएंगे.’ तो बेनी प्रसाद वर्मा कहते हैं, ‘प्रशांत किशोर से अभी हमारी मुलाकात नहीं हुई है. सुना है कि उसने नीतीश और मोदी की बढ़िया पब्लिसिटी की है. अब उसके आने के बाद से उत्तर प्रदेश में हर दिन हमारी कोई न कोई खबर होती है. यह बढ़िया बात है.’

कांग्रेस पार्टी पिछले दो साल से विपक्ष में है. विश्लेषक इस दौरान भी उसकी भूमिका को लेकर सवाल उठाते हैं. पिछले साल सोनिया गांधी पार्टी के सवालों को लेकर दो बार सड़कों पर भी उतरीं. इससे पार्टी कार्यकर्ता का मनोबल बढ़ा, पर इतना पर्याप्त नहीं था. हाल ही में वे अगस्ता वेस्टलैंड के मुद्दे पर जंतर-मंतर पर थीं लेकिन यह अटैक से ज्यादा बचाव का मामला था. लोकसभा चुनावों में हार के बाद लंबे अज्ञातवास से वापस आए राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की आक्रामकता पिछले साल संसद के मानसून और शीत सत्र में दिखाई पड़ी. पार्टी ने छापामार रणनीति का भी सहारा लिया पर यह भी सड़कों पर नजर नहीं आया. कांग्रेस की विपक्ष की भूमिका और विपक्ष की पूरी राजनीति पर राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे कुछ सवाल खड़े करते हैं. वे कहते हैं, ‘मेरा मानना है कि भारतीय लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि विपक्ष की भूमिका कैसे निभाई जाए, ये लोग बिल्कुल भूल गए हैं. भाजपा दस साल तक विपक्ष में थी. विपक्ष के तौर पर उसकी भूमिका ठीक नहीं थी. उसके नेताओं पर आरोप लगते थे कि वे सोनिया गांधी की पे-रोल पर हैं. जो लोग दस साल तक विपक्ष के नेता की भूमिका में रहे, उनमें से कोई ऐसा नहीं निकला जो प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बन सके. जो केंद्र में विपक्ष की भूमिका में नहीं था, जो गुजरात में सत्ता में था, उसको प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया. उस समय विपक्ष के नेता सुषमा स्वराज और अरुण जेटली थे. प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार तो इनके बीच से आना चाहिए था. यही एक अपने आप में सबसे बड़ी आलोचना है कि भाजपा ने विपक्ष की भूमिका कितने खराब तरीके से निभाई. कांग्रेस की विफलताओं की वजह से भाजपा को बहुमत प्राप्त हो गया. दूसरे, क्षेत्रीय शक्तियों की कमजोरी से. भाजपा ने तो कोई ऐसा काम नहीं किया. चुनाव अच्छी तरह लड़ा, यह सही बात है, लेकिन दस साल तक कोई ऐसा उल्लेखनीय काम नहीं किया जो विपक्ष में रहकर करना चाहिए था. अब यही कांग्रेस कर रही है. कांग्रेसी नेता आपस में मजाक करते हैं कि बीजेपी के मंत्री हमें सत्ता में लाने के लिए बहुत मेहनत कर रहे हैं. भाजपा इसलिए हाथ पर हाथ रखकर बैठी थी कि कांग्रेस उसके लिए सत्ता का रास्ता खोल देगी. कांग्रेस इसलिए हाथ पर हाथ रखे बैठी है कि भाजपा उसके लिए सत्ता का रास्ता खोल देगी. तो हमारे यहां ये विपक्ष की भूमिका है. कम्युनिस्ट पार्टियों की हालत खस्ता है. जो क्षेत्रीय शक्तियां हैं उनकी केंद्र में कोई दावेदारी नहीं है. विपक्ष की भूमिका निभाने वाली जो आम आदमी पार्टी है, वह भी छोटी पार्टी है, छोटे स्टेट में आधी-अधूरी सरकार है. वह कुछ आवाज उठाती रहती है. दरअसल विपक्ष की राजनीति हो नहीं रही है.’

Photo : Tehelka Archive
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वहीं विपक्षी दलों को एकजुट करके नेतृत्व करने में भी कांग्रेस कई बार असफल दिखाई देती है. जदयू, राजद से गठजोड़, उत्तर प्रदेश में साथी दल की तलाश, बंगाल में वाम दलों का सहारा या फिर संसद में विभिन्न दलों को साथ लेकर चलने की कवायद इसी का परिणाम है. कांग्रेस को यह लग रहा है कि वह अभी भाजपा का सीधा मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है. कांग्रेस के लिए फायदेमंद बात यह है कि अभी तमाम क्षेत्रीय दलों की सहानुभूति उसके साथ है. डीएमके, राजद, जदयू, रालोद, बसपा, वाम दल अभी उसके साथ खड़े नजर आ जाते हैं. जानकारों का मानना है कि कांग्रेस को उत्थान के लिए क्षेत्रीय दलों का सहारा लेना पड़ेगा. कांग्रेस को एकला चलने का सिद्धांत छोड़ना पड़ेगा. उसके लिए नुकसानदेह बात यह है कि तमाम कोशिशों के बावजूद राहुल गांधी अभी कांग्रेस का नेता नहीं बन पा रहे हैं. अभी सारा दारोमदार सोनिया गांधी पर है. वही पार्टी को अपने तरीके से आगे बढ़ा रही हैं.

हालांकि राशिद किदवई इसे दूसरे तरीके से देखते हैं. वे कहते हैं, ‘कांग्रेस के पास विभिन्न मुद्दों को लेकर स्पष्टता का अभाव है. अभी वह यह नहीं समझ पा रही है कि उसे धर्मनिरपेक्ष पार्टी रहना है कि उसका झुकाव हिंदुओं या मुसलमानों की तरफ रहे. भाजपा और संघ इस मामले में बाजी मार जाते हैं. उनका एजेंडा स्पष्ट है. भले ही वह सही या गलत हो. ऐसा आप राजनीतिक दलों के साथ गठजोड़ को लेकर भी देख सकते हैं. कांग्रेस बंगाल में वाम दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है, तो केरल में उन्हीं के खिलाफ मैदान में है. अब यह गठजोड़ किस बुनियाद पर किया गया है. यह समझ में नहीं आता है. यह कार्यकर्ताओं के लिए भ्रम की स्थिति पैदा करता है.’

‘अभी इस पार्टी की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि अगर यहां कुछ गलत भी हो रहा है तो हमारे सामने ऐसा कोई नेता नहीं है जिसके सामने अपनी बात कह सकें और सुधार की उम्मीद कर सकें. पार्टी का शीर्ष नेतृत्व एक आत्मकेंद्रित और चाटुकार तंत्र के नियंत्रण में है. कोई भी अगर इस तंत्र को चुनौती देने की कोशिश करता है तो सब मिलकर उसको निपटा देते हैं’

हालांकि कांग्रेस के साथ परेशानियां और भी हैं. दिल्ली के एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता का कहना है, ‘अभी इस पार्टी की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि अगर यहां कुछ गलत भी हो रहा है तो हमारे सामने ऐसा कोई नेता नहीं है जिसके सामने अपनी बात कह सकें और सुधार की उम्मीद कर सकें. पार्टी का शीर्ष नेतृत्व एक आत्मकेंद्रित और चाटुकार तंत्र के नियंत्रण में हैं. कोई भी अगर इस तंत्र को चुनौती देने की कोशिश करता है तो सब मिलकर उसको निपटा देते हैं. यह सिलसिला लंबे समय से चल रहा है. इस कारण कोई सही बात करने की हिम्मत ही नहीं कर पाता है. इस सबका परिणाम यह हुआ है कि आत्मकेंद्रित, आत्मसंतुष्ट, दंभी और चाटुकार नेताओं का अखाड़ा बन गई है. यही कारण है कि पार्टी अपने पतन के शीर्ष पर है.’

हालांकि वक्त बुरा हो तो कई चुनौतियां सामने खड़ी हो जाती है. कांग्रेस के साथ भी कुछ ऐसा हो रहा है. हालांकि पार्टी के भीतर बदलाव के लिए अब भी वक्त है. कई राज्यों में चुनाव होने हैं जहां बेहतर करके कांग्रेस भाजपा का खेल बिगाड़ सकती है. देश में अगले साल हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा विधानसभाओं के चुनाव होंगे. कांग्रेस को पंजाब में कुछ उम्मीद हो सकती है. पर सफलता तभी मानी जाएगी जब वहां उसकी सरकार बने. राजनीतिक प्रभाव के लिहाज से उत्तर प्रदेश और गुजरात के चुनाव ज्यादा महत्वपूर्ण होंगे. कांग्रेस ने यहां के लिए तैयारियां भी शुरू कर दी हैं. परिणाम अगर उसके पक्ष में रहे तो निस्संदेह 2019 के लोकसभा चुनावों की तस्वीर दूसरी होगी. इसके अलावा 2017 में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के चुनाव भी होंगे. इन चुनावों से कांग्रेस के रसूख का पता लगेगा. राज्यसभा में कांग्रेस की बढ़त धीरे-धीरे कम होती जाएगी. अभी तक कांग्रेसी राजनीति का बड़ा सहारा यह सदन है. अगले लोकसभा चुनाव के ठीक पहले 2018 में जिन राज्यों के चुनाव होंगे वे माहौल बनाएंगे. छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस और भाजपा की सीधी टक्कर है. यहां कांग्रेस की असली परीक्षा होगी. कर्नाटक में प्रतिष्ठा की लड़ाई होगी, क्योंकि यही एक बड़ा राज्य अभी कांग्रेस शासित है. दरअसल कांग्रेस को अगर सफल होना है तो इन राज्यों पर अभी से ध्यान देना होगा. अरुण त्रिपाठी कहते हैं, ‘कांग्रेस को पुनरोदय के लिए कोई बहुत बड़ा काम नहीं करना है. उसे बस आगामी तीन सालों में होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों पर ध्यान देना है. इन राज्यों में यदि वह बेहतर प्रदर्शन करती है तो यह प्रदर्शन उसके लिए ताकत के टैबलेट का काम करेगा. अगर ऐसे ढेर सारे टैबलेट कांग्रेस ने जुटा लिए तो 2019 की तस्वीर दूसरी होगी.’