इस समय पटेल आंदोलन क्यों शुरू हुआ? क्या ये सच में पटेलों के लिए आरक्षण पाने की मुहिम है या ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) आरक्षण को खत्म करने की साजिश? शुक्र है अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति तक फिलहाल इस आंदोलन की आंच नहीं पहुंची. क्या यह आंदोलन नरेंद्र मोदी को मजबूत करने की लिए है, जिन्होंने आम चुनावों में पिछड़ी जाति का वोट बटोरने के चक्कर में खुद को पिछड़ी जाति का घोषित कर दिया था और जिसकी वजह से वे चुनकर आए? वैसे भी इस बार तो भाजपा की जगह उन्हें ही चुना गया है. या कहीं ये इसलिए तो नहीं किया जा रहा कि मोदी की नाव को झटका देकर यह देखा जाए कि पटेल, जाट, गुर्जर जैसी पिछड़ी जातियों की पकड़ केंद्र सरकार में मजबूत होती है या नहीं. हालांकि सवाल ये भी उठता है कि क्या ये जातियां वाकई में इतनी मजबूत हैं कि ब्राह्मण और बनियों को चुनौती दे सकें, जो वास्तव में केंद्र सरकार को चला रहे हैं और जिनकी वजह से मोदी मजबूत प्रधानमंत्री नजर आते हैं? इस तरह के कुछ सवाल हैं, जिनकी पूछताछ करने के साथ इनके संभावित जवाबों को जनता के सामने रखने की जरूरत है.
भाजपा के प्रबल समर्थकों में वे लोग भी शामिल हैं, जो आरक्षण का समर्थन करने वालों के खिलाफ हैं. साथ ही वे भी, जो ‘सनातन वर्ण धर्म’ (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) के समर्थक हैं. इस प्रकार इन प्रबल समर्थकों में ब्राह्मण, बनिया, राजपूत और शूद्र वर्ग की उच्च जातियों जैसे पटेल, जाट और मराठा शामिल हैं, जो लोकसभा चुनावों के समय जोश में थे और जिन्हें यह समझाया गया था कि अगर मोदी की सरकार केंद्र में आई तो ओबीसी आरक्षण पर फिर से विचार किया जाएगा.
हमें यह तथ्य भी नहीं भूलना चाहिए कि सोशल मीडिया पर ‘टीम मोदी’ (उस समय यह ‘टीम इंडिया’ नहीं थी) के लोगों को लामबंद करने की रणनीति में उच्च वर्ग के युवाओं की संख्या ज्यादा थी, जो आरक्षण के खिलाफ थे. अब ये युवा खुद को ठगा-सा महसूस कर रहे हैं. उन्हें लगता हैं कि मोदी की जीत उनकी वजह से ही हुई है, लेकिन जीत के बाद उनकी सरकार आरक्षण के मुद्दे की समीक्षा की तरफ ध्यान ही नहीं दे रही है.
मोदी ने जब खुद को पिछड़ी जाति का बताया था तब उनका यह बयान हैरान कर देने वाला था क्योंकि जब तक वे गुजरात के मुख्यमंत्री रहे तब तक उन्होंने इसे तुरुप के पत्ते की तरह छिपाकर रखा. उन्हें इस बात का अंदाजा था कि पटेल और ऊंची जाति वाले दूसरे गुजराती लोग ओबीसी और अल्पसंख्यकों (मुस्लिम या दलित ईसाइयों) के आरक्षण के खिलाफ हैं. हालांकि 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान उत्तर प्रदेश और बिहार का चुनावी मैदान अलग था. इन राज्यों में जब तक अन्य पिछड़ा वर्ग के सत्तारूढ़ नेताओं से तालमेल बैठाकर ओबीसी वोट को अपने पक्ष में नहीं किया जाता तब तक मोदी यहां ज्यादा सीटें नहीं जीत सकते थे. यूपी और बिहार में अच्छी खासी संख्या में सीटें जीतने के बाद मोदी अब न तो ओबीसी आरक्षण के खिलाफ जा सकते हैं और न सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय किए गए 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था को खत्म कर सकते हैं. न ही वे आरक्षण की सीमा को भारत की शूद्र जाति के उच्च वर्ग तक बढ़ा सकते हैं, जो एक समय में मंडल कमीशन को तरजीह देने की बजाय क्षत्रियों के साथ होने को तरजीह देते थे.
इन सभी जातियों ने अपने नाम के साथ पटेल, चौधरी, रेड्डी और राव जैसे उपनाम लगाने शुरू कर दिए. ऐतिहासिक रूप से क्षत्रिय होने के क्रम में (हिंदुत्व के प्रभाव में) ऐसा किया गया था. ऐसा इसलिए क्योंकि आजादी के बाद से यह एक तरह का चलन बन गया था. दूसरे शब्दों में कहें, जिसे मैंने अपनी किताब ‘वाय आई एम नॉट अ हिंदू’ में भी बताया है कि अनुसूचित जाति और जनजाति से घृणा के कारण शुरुआत में वे ‘नए-क्षत्रिय’ (नियो-क्षत्रिय) बन गए. इसके बाद अब इन लोगों ने अन्य पिछड़ा वर्ग के खिलाफ भी घृणा विकसित करनी शुरू कर दी हैं, जो केंद्रीय और राज्य सेवा में शामिल हो रहे हैं. हालांकि अंग्रेजी सीखने और भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में जाने के मामले में ये समुदाय ब्राह्मण, बनिया और क्षत्रिय युवाओं से तगड़ा मुकाबला नहीं कर सका है. इसका परिणाम यह हुआ कि अब हम देख सकते हैं कि गुजरात केंद्रित केंद्र सरकार में ब्राह्मण और बनिया ज्यादा दिखाई देते हैं, लेकिन पटेल मुश्किल से नजर आते हैं. पटेल सोचते हैं कि ‘गुजरात’ का मतलब ‘वे खुद’ हैं और ‘वे खुद’ ही ‘गुजरात’ हैं. हालांकि भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में उनकी मौजूदगी लगभग शून्य है. अब उन्हें महसूस हुआ है कि गुजरात में उनका पाटीदारी जीवन या यूरोप और अमेरिका में उनका औद्योगिक स्वामित्व भारतीय नौकरशाही तंत्र में ज्यादा प्रासंगिक नहीं रह गए हैं. मुझे नहीं लगता है कि भारत में पटेल समुदाय में से अंग्रेजी में बोलने वाला कोई प्रबुद्ध राजनयिक होगा. भारत की शूद्र जाति के उच्च वर्ग में यही वास्तविक समस्या है.