नई दास्तान, नया दास्तानगो!

दास्तानगो; नई दास्तान सुनाते हिमांशु वाजपेयी (बाएं), अंकित चड्ढा (दाएं)
दास्तानगो; नई दास्तान सुनाते हिमांशु वाजपेयी (बाएं), अंकित चड्ढा (दाएं)

महमूद फारूकी और उनके साथियों की तकरीबन दस साल की मेहनत और कोशिशें रंग लाईं हैं. सुखद है कि दास्तानगोई जैसी विलुप्त हो चुकी मध्यकालीन कला एक नए कलेवर के साथ जी उठी है. अब दास्तानें सिर्फ तिलिस्म और अय्यारी तक सीमित नहीं हैं बल्कि विनायक सेन की गिरफ्तारी, मुल्क का बंटवारा, मोबाइल की अहमियत और मंटो की मंटोइयत जैसे बेशुमार नए एवं समसामयिक विषय दास्तानों को एकदम नयी और अनोखी शक्ल दे रहे हैं. सुनने वाले नए और पुराने के इस अद्भुत मेल को न सिर्फ पसंद कर रहे हैं बल्कि ये दास्तानें उनके मन में एक खलबली पैदा करके इन विषयों पर उनकी सोच को भी विस्तार दे रहीं हैं. दास्तानों की इस फेहरिस्त में एक बिल्कुल नई और अद्भुत दास्तान की बढ़ोत्तरी हो गई है. ये दास्तान है उर्दू के मशहूर शायर मजाज़ लखनवी की जि़ंदगी और शायरी पर आधारित दास्तान- ‘दास्तान-ए-आवारगी’. महमूद फारूकी के निर्देशन में इसे तैयार किया है दास्तानगो-युगल अंकित चड्ढा और हिमांशु वाजपेयी ने. हिमांशु के रूप में इस दास्तान से दास्तानगोई टीम में एक नया दास्तानगो भी जुड़ गया है. गौरतलब है कि वे उस लखनऊ के पहले आधुनिक दास्तानगो हैं, जो पुराने दौर में दास्तानगोई के बेमिसाल उस्तादों का शहर था.

बीते अक्टूबर में जब लखनऊ में दास्तान-ए-आवारगी का प्रीमियर शो हुआ तो ये शाम यादगार बन गई. आयोजन लखनवी युवाओं के एक समूह ‘बेवजह’ की तरफ से किया गया था जो युवाओं को कला-साहित्य से जोड़ने को लेकर काम करता है. मजाज़ के जन्मदिन की पूर्वसंध्या पर, मजाज़ की दास्तान सुनने के लिए उनके शहर का संत गाडगे सभागार खचाखच भरा हुआ था और हर उम्र के लगभग सात सौ लोग एक घंटे तक जैसे किसी तिलिस्म में बांध दिए गए थे. तिलिस्म जिसका नाम था मजाज़. जिसके पाश में दर्शक मंत्रमुग्ध थे, आश्चर्यचकित थे, बेपनाह लुत्फ उठा रहे थे, वाह-वाह, क्या बात है, क्या कहने… जैसी दाद दे रहे थे, आनंदविभोर होकर ताली बजाते थे (जबकि दास्तानगोयों ने दास्तान शुरू करने से पहले उनसे आग्रह किया था कि वे ताली न बजाएं, ज़बानी तौर पर दाद दें) झूम रहे थे, हंस रहे थे और आखिर तक पहुंचते-पहुंचते रोने लगे थे. दास्तान खत्म हुई तो सभागार में मौजूद हर शख्स खड़ा होकर ताली बजा रहा था और इसके बाद मजाज़ के बेहद करीबी रहे प्रो. शारिब रूदौलवी ने मंच पर आकर जो प्रतिक्रिया दी उसने दास्तान-ए-आवारगी के प्रीमियर शो की कामयाबी पर मुहर लगा दी. शारिब रूदौलवी ने नम आंखों के साथ मुस्कुराते हुए कहा- ‘ये विशाल सभागार जो सामान्य आयोजनों में आधा भी नहीं भर पाता, अगर मजाज़ के नाम पर पूरा भरा हुआ है, यहां तक कि बहुत से लोग खड़े होकर दास्तान सुन रहे थे, ये बताता है कि लखनऊ मजाज़ से कितनी मोहब्बत करता है. अंकित और हिमांशु ने आज जो कमाल किया है उसे हाॅल में मौजूद हर शख्स लंबे वक्त तक याद रखेगा. अगर मुझे मालूम होता कि यहां ऐसा कुछ होने वाला है तो मैं अपनी तरफ से दोनों के लिए कोई तोहफा ज़रूर लाता.’

अंकित चड्ढा पुराने दास्तानगो हैं, वे इस बार भी हमेशा की तरह सहज थे वहीं हिमांशु वाजपेयी की ये पहली ही परफॉर्मेंस थी, इसके बावजूद ऐसा नहीं लगा कि वे पहली बार दास्तान सुना रहे हैं. हालांकि अंकित जैसी सहजता पाने के लिए उन्हें काफी मेहनत करनी होगी. बहरहाल दोनों की जोड़ी ने मिलकर दर्शकों पर खूब जादू चलाया. अपने पहले शो के बारे में बात करते हुए हिमांशु ने कहा- ‘मुझे थोड़ा डर लग रहा था कि जाने क्या होगा लेकिन अंकित ने सब संभाल लिया. मुझे खुशी है कि लोगों ने इसे बहुत पसंद किया. पहले ही शो की हमें तीन सौ के करीब लिखित प्रतिक्रियाएं मिलीं हैं जिनमें शो को पसंद करते हुए इसे दोबारा किए जाने का निवेदन किया गया है. सुनने वालों के साथ-साथ मुझे भी इसके दोबारा होने का इंतज़ार है.’ शो में मजाज़ के रिश्तेदारों और करीबियों के अलावा उनके पैतृक निवास रूदौली से भी कई लोग तशरीफ लाए थे. मजाज़ की भतीजी जऱीना भट्टी ने दास्तान के बारे में बात करते हुए कहा- ‘स्क्रिप्ट बहुत कसी हुई थी और परफॉर्मेंस भी बेहद शानदार थी. यकीनन इस पर बहुत मेहनत की गई होगी. हालांकि कुछ एक जगह पर नाटकीयता थोड़ी और होनी चाहिए थी ऐसा मुझे लगता है. पर आखिरकार ये पहला शो था. मेरी ख्वाहिश है कि ये दास्तान अलग-अलग जगह पर ज्यादा से ज्यादा बार हो ताकि लोग मजाज़ को जान सकें.’

गौरतलब है कि असरार उल हक उर्फ मजाज़ लखनवी उर्दू के सबसे चहेते शायरों में से एक हैं, जिनकी अपार लोकप्रियता एक अफसाना बन चुकी है. उनकी शायरी रूमान और इंकलाब का खूबसूरत संगम है. उनके लतीफे उनकी बेमिसाल हाजिर जवाबी का सबूत हैं. 1911 में उत्तर प्रदेश के रूदौली कस्बे में जन्मे मजाज़ अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के दिल की धड़कन थे. लेकिन एएमयू से ग्रेजुएट होने के बाद जब वे नौकरी करने दिल्ली गए तो रोजगार और इश्क़ की नाकामी ने उन्हें इस कदर तोड़ दिया कि उनकी जि़ंदगी शराब में डूबकर रह गई. तमाम कोशिशों के बावजूद वह इससे उबर नहीं पाए और दिसंबर 1955 में मजाज़ नाम की इस ख़ूबसूरत कहानी का बेहद दर्दनाक अंत हुआ. मजाज़ को सिर्फ 44 साल की जि़ंदगी मिली लेकिन इतनी कम उम्र में भी वे उर्दू को आवारा, ख्वाब-ए-सहर, शिकवा-ए-मुख्तसर, रात और रेल, नौजवान ख़ातून से और ऐतराफ जैसी यादगार नज़्में दे गए. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का तराना मजाज़ का ही लिखा हुआ है. फिल्मी गीतकार जावेद अख़्तर जो कि मजाज़ के भांजे हैं ऑटोग्राफ देते हुए अपना शेर न लिखकर हमेशा मजाज़ का ही ये शेर लिखते हैं- ‘उनका करम है उनकी मोहब्बत/ क्या मेरे नग़मे क्या मेरी हस्ती.’ कहा जाता है कि उर्दू के तमाम शायरों में सबसे ज्यादा शायराना और ड्रामाई जि़ंदगी मजाज़ को ही मिली.

मजाज़ को सिर्फ 44 साल की जि़ंदगी मिली लेकिन इतनी कम उम्र में भी वे उर्दू को आवारा, ख्वाब-ए-सहर, शिकवा-ए-मुख्तसर, रात और रेल, नौजवान ख़ातून से और ऐतराफ जैसी यादगार नज़्में दे गए

मजाज़ की जि़ंदगी का हर वाकया अपने आप में एक मुकम्मल दास्तान लगता है, ऐसे में उनकी पूरी जि़ंदगी और शायरी को घंटे-भर की एक दास्तान में समा देना बेहद मुश्किल काम था. लेकिन महमूद फारूकी के मार्गदर्शन में अंकित और हिमांशु ने ये काम बखूबी किया है. दास्तान में मजाज़ के पैदा होने से लेकर उनके इंतकाल तक की हर महत्वपूर्ण घटना को शायरी और लतीफों के साथ बेहद संवेदनशील तरीके से बयान किया गया है. इसी का कमाल है कि दास्तान दर्शकों को हंसने, दाद देने, रोने के लिए मजबूर कर देती है. इस चुनौती के बारे में बात करते हुए हिमांशु वाजपेयी तहलका से कहते हैं- ‘जब आप मजाज़ जैसी किसी शख्सियत पर दास्तान तैयार कर रहे होते हैं तो सबसे बड़ी चुनौती यही होती है कि क्या रखा जाए और क्या छोड़ा जाए. फिर मेरा मजाज़ से जो ज़ाती रिश्ता है उसकी वजह से मेरे लिए तो ये काम आम आदमी से हज़ार गुना ज़्यादा कठिन है. लेकिन अंकित ने इस मुश्किल से उबरने का एक बेहद कारगर तरीका सुझाया. उन्होंने कहा कि सामान्यत: हम उन्हीं अशआर और लतीफों को रखेगें जो नैरेटिव में फिट बैठते हों और अनिवार्य हों. क्योंकि आखिरकार हम एक कहानी सुना रहे हैं. फिर हमने ईमानदारी से व्यक्तिगत पसंद नापसंद से ऊपर उठकर सिर्फ कहानी की पसंद-नापसंद के आधार पर चीज़ों का चुनाव किया. यहां तक कि अपनी ही लिखी दास्तान में मैं मजाज़ की उस नज्म (नज्रे दिल) को शामिल नहीं कर पाया जो मुझे सबसे ज़्यादा पसंद है.’ इस तरह अंकित और हिमांशु ने इस दास्तान का नैरेटिव लिखा और फिर उस्ताद महमूद फारूक़ी ने इसमें ज़रूरी सुधार किए और महत्वपूर्ण जोड़-घटाव किए. इसके बाद दिल्ली में अपने घर पर रिहर्सल भी करवाईं.

मजाज़ पर दास्तान करने का विचार कहां से आया और ये आगे कैसे बढ़ा, इस बारे में अंकित चड्ढा कहते हैं- ‘2012 में लखनऊ में हमने सआदत हसन मंटो की दास्तान मंटोइयत का शो किया था जो काफी सफल रहा था. तब हिमांशु ने मुझे ये सुझाव दिया था कि मजाज़ पर भी एक दास्तान की जा सकती है, जो बहुत पसंद की जाएगी. मजाज़ हिमांशु के सबसे पसंदीदा शायर हैं, मैंने उनसे कहा कि आप मेरे साथ मिलकर ये दास्तान तैयार कीजिए और बतौर दास्तानगो इसे परफॉर्म कीजिए. इसके बाद रिसर्च शुरू हुई. मजाज़ पर लिखा गया हर अहम लेख, चुटकुला और किताब जुटाई गई और फिर उसमें से सामग्री का चुनाव किया गया.’ इस तरह ये दास्तान लिखी गई. दास्तान लिखे जाने के बाद उसकी परफॉर्मेंस भी एक बड़ी चुनौती थी. क्योंकि हिमांशु वाजपेयी का प्रोफेशनल दास्तानगोई के लिए तैयार होना अभी बाकी था. ये काम मुश्किल था क्योंकि वह पत्रकारिता की पृष्ठभूमि से आते थे और उन्होंने जीवन में कभी विधिवत थिएटर वगैरह नहीं किया था.

मुश्किल ये भी थी कि अंकित दिल्ली में रहते हैं और हिमांशु वर्धा में, लेकिन इसके बावजूद इन दो गहरे दोस्तों ने ठान लिया था कि मजाज़ के लिए ये लोग एक जोड़ी की तरह दास्तानगोई करने उतरेंगे. इसीलिए हिमांशु ने दिल्ली में महमूद फारूकी के निर्देशन में दास्तानगोई की वर्कशॉप में शिरकत की और इस कला की बारीकियां सीखीं. महमूद ये वर्कशॉप नए लोगों को दास्तानगोई से जोड़ने के लिए ही आयोजित करते हैं. इसके बाद अंकित ने हिमांशु को स्काइप के जरिए जम के रिहर्सल करवाई और दास्तानगोई के लिए पूरी तरह तैयार कर दिया. इसी प्रक्रिया में एक-दो बार हिमांशु वर्धा से दिल्ली भी गए. फिर तय हुआ कि दास्तान-ए-आवारगी का सबसे पहला शो मजाज़ के शहर लखनऊ में होगा और मजाज़ के जन्मदिन पर होगा. इस तरह अंतत: एक नई दास्तान और एक नए दास्तानगो का जन्म हुआ जो कि शहर-ए-दास्तां लखनऊ का पहला आधुनिक दास्तानगो है. हिमांशु के बारे में बात करते हुए महमूद फारूकी कहते हैं- ‘बहुत खुशी की बात है कि नए लोग दास्तानगोई से जुड़ रहे हैं और सब बहुत अच्छा कर रहे हैं. हिमांशु में काफी पोटेंशियल है. वह उर्दू अदब और दास्तानगोई से मोहब्बत करते हैं. मजाज़ की दास्तान का आइडिया भी उनका और अंकित का था.’

महमूद पिछले दस सालों से अपने साथियों के साथ दास्तानगोई को लोगों के बीच ले जाने के लिए काम कर रहे हैं और इसमें कामयाब भी हुए हैं. ये कहना गलत नहीं होगा कि उन्होंने ही इस मर चुकी कला को फिर से जीवित किया है और लोकप्रिय बनाया है. ये काम महमूद ने मशहूर उर्दू आलोचक शम्सुररहमान फारूकी के प्रेरित करने पर किया. शम्सुररहमान फारूकी का दास्तानों पर बहुत काम है.  उन्होंने नवल किशोर प्रेस से छपी दास्तान-ए-अमीर हमज़ा की कई अप्राप्य जि़ल्दों को फिर से खोज निकाला है. उन्होंने ही महमूद फारूकी को दास्तानगोई की कला और इसके सुनहरे इतिहास से परिचित करवाया और कहा कि अच्छा होगा अगर वे लोगों को दास्तान सुनाएं और इस ख़त्म हो चुकी कला को फिर से उनके बीच ले जाएं. इसके बाद महमूद ने दास्तानगोई पर गंभीरता से काम करना शुरू किया और 2005 में आधुनिक दास्तानगोई की पहली महफिल दिल्ली में सजी. इस तरह तकरीबन अस्सी साल बाद प्रोफेशनल दास्तानगोई फिर लोगों के सामने पेश हुई और इसे बहुत पसंद किया गया. इसके बाद से दास्तानगोई की लोकप्रियता लगातार बढ़ती गई है. वक्त के साथ-साथ इसमें नए लोग और नए विषय भी जुड़ते जा रहे हैं. आज उस्ताद महमूद फारूकी और दानिश हुसैन के अलावा अंकित चड्ढा, नदीम शाह, दारैन शाहिदी, मनु सिकंदर, पूनम और फौजिया जैसे कई दूसरे लोग भी दास्तान सुना रहे हैं साथ ही कई लोग दास्तानगो बनने की तैयारी कर रहे हैं. हालात बताते हैं कि दास्तानगोई का सुनहरा दौर फिर से लौट रहा है.

दास्तानगोई की शुरुआत हिन्दुस्तान में अकबर के काल से हुई. सबसे पहले इस फन को दिल्ली के आस-पास के लोगों ने नवाज़ा. लेकिन इस कला को उसका असल मक़ाम उन्नीसवीं सदी में लखनऊ में मिला

गौरतलब है कि 1928 में देश के अंतिम बड़े दास्तानगो मीर बाकर अली देहलवी की मौत के साथ ही ये कला दुनिया से उठ गई थी. जबकि एक ज़माने में इसका डंका बजता था. दास्तानगोई की शुरुआत हिन्दुस्तान में अकबर के काल से हुई. सबसे पहले इस फन को दिल्ली के आस-पास के लोगों ने नवाज़ा. लेकिन इस कला को उसका असल मक़ाम उन्नीसवीं सदी में लखनऊ में मिला. लखनऊ में पहली बार दास्तानगोई का भारतीयकरण हुआ और उसे देशज रंग मिला. इतना ही नहीं लखनऊ से ही दास्तानगोई को तिलिस्म और अय्यारी के रूप में वो दो मौलिक चीज़ें मिलीं जो दास्तानगोई की लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण बनीं. लखनऊ आने से पहले तक दास्तान में सिर्फ रज़्म यानी युद्ध और बज़्म यानी महफिल का ही जि़क्र होता था. लखनऊ में ही दास्तान-ए-अमीर हमज़ा को उसका सबसे लोकप्रिय हिस्सा तिलिस्म-ए-होशरूबा मिला. लेकिन दास्तानगोई को लेकर लखनऊ में सबसे बड़ा काम ये हुआ कि यहां की नवल किशोर प्रेस ने लखनऊ के मशहूर दास्तानगो मोहम्मद हुसैन जाह, अहमद हुसैन कमर, अंबा प्रसाद रसा, शेख तसद्दुक हुसैन वगैरह को नौकरी पर रखा और उनसे दास्तानें लिखवाकर छापीं. अमीर हमज़ा की दास्तान जो कि सदियों से वाचिक परंपरा के ज़रिए आगे बढ़ रही थी, पहली बार छपे हुए रूप में कागज़ पर महफूज़ हुई. ये दास्तानें 1881 से 1910 के बीच लगातार छपती रहीं. इनके कुल 46 खण्ड प्रकाशित हुए और हर खण्ड में तकरीबन एक हज़ार पन्ने थे. अगर आज महमूद और उनके साथी लोगों को दोबारा दास्तान-ए-हमज़ा से रूबरू करवा पा रहे हैं तो ये काम नवल किशोर प्रेस की वजह से ही मुमकिन हुआ. क्योंकि अगर ये दास्तानें छपी नहीं होतीं तो मीर बाकर अली के साथ दास्तानगोई ही नहीं, दास्तानें भी दुनिया से चली गईं होतीं. लेकिन दास्तानगोई की विधा में ऐसे तमाम कीर्तिमान स्थापित करने के बावजूद 1920 के बाद लखनऊ में ये विधा लगभग खत्म हो गई. एक-एक करके सारे उस्ताद दास्तानगो दुनिया से कूच कर गए और नई पीढ़ी ने इसमें रूचि लेना बंद कर दिया.

अब जबकि तकरीबन सौ साल बाद लखनऊ को फिर से एक नया दास्तानगो मिला है तो उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में और भी लखनवी इससे जुड़ेंगे और लखनऊ को एक बार फिर शहर-ए-दास्तां कहा जाएगा.