अभिशप्त आदिवासी

फोटोः तहलका आका्इव
फोटोः तहलका आका्इव

31 अगस्त 2010 को संसद में एक यादगार दृश्य पैदा हो गया था. उस दिन अरुण जेटली ने राष्ट्रमंडल खेलों से संबंधित परियोजनाओं को पूरा करने के लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के लिए निर्धारित फंड के कथित इस्तेमाल पर तत्कालीन यूपीए सरकार को घेरने की कोशिश की थी.

जेटली तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदंबरम से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की सरकार द्वारा राष्ट्रमंडल खेलों से संबधित परियोजनाओं के लिए इस फंड के कथित इस्तेमाल पर सवाल उठा रहे थे.

जेटली उस समय राज्यसभा में विपक्ष के नेता थे. उन्होंने कहा था, ‘महज इसलिए कि दिल्ली में रहनेवाले कुछ लोग, जिनका संबंध अनुसूचित जाति से है, राष्ट्रमंडल खेल देखने जाएंगे, आप यह नहीं कह सकते कि अनुसूचित जातियों के लिए तय फंड से स्टेडियम बनाए जाने चाहिए. राष्ट्रमंडल खेल ऐसी परियोजना नहीं है जो अनुसूचित जातियों को प्रत्यक्ष रूप से या परोक्ष तौर पर या दूर-दूर से भी फायदा पहुंचाती हो.’

उस समय हर राजनीतिक दल ने जेटली की बात से सहमति जताई थी. उन्होंने कहा, ‘जब एयर इंडिया कोई विमान उड़ाता है, तो किसी भी जाति या नस्ल का व्यक्ति उसमें यात्रा कर सकता है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अनुसूचित जातियों के कल्याण के लिए निर्धारित फंड का ऐसी परियोजना में इस्तेमाल कर लिया जाए और सरकार कहे कि ये परियोजनाएं उनको फायदा पहुंचाती हैं. इन पैसों का इस्तेमाल कमजोर वर्गों की मदद के लिए उन क्षेत्रों में किया जाना चाहिए जहां इनकी बड़ी जनसंख्या बसती है.’

जेटली राजनीतिक तौर पर सही हो सकते हैं, विशेषकर जब बात वंचित वर्गों के लिए बजटीय आवंटन की हो. इसे ट्राइबल सब-प्लान (टीएसपी) और शिड्यूल्ड कास्ट्स सब-प्लान (एससीएसपी) भी कहा जाता है. यह आदिवासियों व दलितों के कल्याण और उनकी आर्थिक व सामाजिक बेहतरी के लिए होता है. इसमें इस बात पर जोर दिया जाता है कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारें कुल जनसंख्या में एससी और एसटी के अनुपात के आधार पर उनके लिए बजटीय आवंटन करें. उदाहरण के तौर पर, साल 2011 की जनगणना के हिसाब से दलितों और आदिवासियों को सेंट्रल प्लान बजट की राशि का क्रमशः 16.6 फीसदी और 8.6 फीसदी आवंटित होना चाहिए. इसी तरह सभी राज्य सरकारों को अपनी जनसंख्या में इनकी संख्या के आधार पर अपने प्लान बजट में इन वर्गों के लिए राशि आवंटित करनी होती है.

लेकिन जब बात व्यवहार की आती है तो भारत का राजनीतिक वर्ग और यहां की नौकरशाही इस उचित बात को दरकिनार कर देती है और देश के इन सबसे गरीब वर्गों को उनके फंड के हक से वंचित करने और उनके लिए तय फंड के कहीं और इस्तेमाल में लग जाती है. दरअसल यह हमारी व्यवस्था में मौजूद भेदभाव ही है, जिसने यह सुनिश्चित किया है कि ये वर्ग वंचित बने रहें.

यह बात गौर करने लायक है कि इन वर्गों के लिए तय फंड पर कुछ साल पहले सवाल उठानेवाले जेटली ने पिछले आम बजट में क्या किया. आम बजट 2014-15 में जेटली ने दलितों को 47,260 करोड़ रुपयों से वंचित किया, जबकि इसमें आदिवासियों को 25,490 करोड़ रुपयों से वंचित किया गया. हालांकि, जेटली ऐसा करनेवाले पहले या अकेले वित्तमंत्री नहीं हैं. भारत में आम बजटों का इतिहास उठाकर देखें तो हर बार इन वर्गों को उस फंड से वंचित किया गया है, जिसके वे हकदार थे.

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झारखंड

nवित्त वर्ष 2014-15 में बिल्डिंग एंड कंस््ट्रक्शन डिपार्टमेंट ने टीएसपी के तहत 97.75 करोड़ रुपये आवंटित किए. इसमें से 50 करोड़ रुपये का इस्तेमाल सर्किट हाउस बनाने में और 25 करोड़ रुपये का इस्तेमाल न्यायालय भवन बनाने में किया गया.

nवित्त वर्ष 2013-14 में 12 करोड़ रुपये में से 7 करोड़ रुपये का इस्तेमाल एक ट्रेनर एयरक्राफ्ट और एक मोटर ग्लाइडर की खरीदारी में किया गया, जबकि देवघर सहित विभिन्न जिला मुख्यालयों में रनवे निर्माण और विस्तार के लिए 4.82 करोड़ रुपये खर्च किए गए.

nटीएसपी के तहत गृह विभाग को 32.64 करोड़ रुपए आवंटित किए गए, जिनमें से एक करोड़ रुपये का इस्तेमाल जेल कर्मचारियों के आवास के निर्माण के लिए किया गया.

nवित्त वर्ष 2011-12 में 1.83 करोड़ रुपये का इस्तेमाल निर्माण गतिविधियों के लिए किया गया, जिसमें सीएम हाउस में एक हैलीपैड का निर्माण शामिल है.

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दलित और आदिवासी समूहों के प्रमुख संगठन नेशनल कोएलीशन फॉर एससीएसपी-टीएसपी लेजिस्लेशन ने बजट के दस्तावेजों और सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए पिछले दिनों यह गणना की कि सातवीं से लेकर 12वीं पंचवर्षीय योजना (साल 2014-15 तक) के बीच आम बजट में दलितों और जनजातियों को कितने फंड से वंचित किया गया है. आंकड़ा देखकर आप चौंक जाएंगे- 5,27,723.72 करोड़ रुपये!

आइए इसी बात को दूसरे तरीके से समझते हैं. तकरीबन 30 सालों की इस अवधि के दौरान आम बजटों में इनके लिए 8,75,380.36 करोड़ रुपए आवंटित किए जाने चाहिए थे, लेकिन इनके लिए केवल 3,47,656.64 करोड़ रुपए ही आवंटित किए गए. इसका मतलब यह हुआ कि समाज के इन वंचित वर्गों को कायदे से जितनी राशि का आवंटन किया जाना चाहिए था, उसका सिर्फ 60 फीसदी तक ही आवंटित किया गया.

पूर्व केंद्रीय सचिव पीएस कृष्णन, जिन्होंने शुरुआती वर्षों में टीएसपी और एससीएसपी की नींव रखने में अहम भूमिका निभाई, कहते हैं, ‘राजनीतिक नेतृत्व और असंवेदनशील नौकरशाही संविधान के उन आधारभूत सिद्धांतों को ध्वस्त कर रही हैं, जिनके आधार पर टीएसपी और एससीएसपी का ढांचा बनाया गया है. आवंटन के अनुमानित और काल्पनिक आंकड़े देकर इनको वैधता का जामा पहनाया गया है और इसे महत्वहीन बनाया गया है. लिहाजा यह पूरी प्रक्रिया महज अंकगणितीय कवायद बनकर रह गई है. इसका आदिवासियों और दलितों के विकास के लिए जरूरी उपायों से कोई नाता नहीं है. केंद्र और राज्य सरकारें अनुसूचित जातियों और जनजातियों की आर्थिक स्वतंत्रता और शैक्षिक समानता के अहम आयामों को भुला बैठी हैं.’ (नोउशनल एलोकेशन वह आवंटन है जो केवल कागज पर है, जहां जरूरी बजट का जिक्र तो होता है, लेकिन उसका समुदायों के लाभ के लिए उपयोग नहीं होता).

ऐसे में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को संस्थागत रूप से वंचित किए जाने की प्रक्रिया में इनको फंड से वंचित करना और इनके लिए आवंटित फंड का दूसरी जगह इस्तेमाल करना एक घातक संयोग बन जाता है. यह व्यवस्थित भेदभाव किस तरह काम करता है, इसे समझने का सबसे बेहतर तरीका यह है कि पिछली सरकारों के योजनागत व्यय से संबंधित दस्तावेजों की बारीकी से जांच की जाय.

इस काम की शुरुआत केंद्रीय और पूर्वी राज्यों से की जा सकती है जहां संवैधानिक और सरकारी संस्थाओं ने यह बार-बार कहा है कि अन्याय और गरीबी ने वामपंथी अतिवाद के लिए उर्वरा भूमि तैयार की है.

झारखंड

झारखंड सरकार के योजनागत व्यय के विस्तृत अध्ययन से पता चलता है कि टीसपी फंड के करोड़ों रुपयों का इस्तेमाल दो वीआईपी जहाजों (एक ट्रेनर एयरक्राफ्ट और एक मोटर ग्लाइडर) की खरीद, हजारीबाग, पलामू, धनबाद, दुमका और गिरिडीह में झारखंड फ्लाइंग इंस्टीट्यूट के बुनियादी ढांचे के विकास, कई जिला मुख्यालयों में रनवे के निर्माण और विस्तार, न्यायालय परिसर में न्यायालय भवन, आवासीय भवन, पुलिस बैरक के निर्माण और न्यायालय से संबंधित अन्य निर्माण कार्यों, रांका में एडिशनल कमांडेंट भवन/ एसडीओ भवन, महुआटांड में डिप्टी एसपी भवन, माननीय मंत्रियों के लिए आवासीय भवन, एमएलए आवास/ वरिष्ठ अधिकारियों के आवास, रांची में मुख्यमंत्री आवास/ ऑफिसर्स क्वार्टर में हैलीपैड के निर्माण, रांची और खूंटी के कलेक्ट्रेट के भवन के निर्माण और अन्य कार्यों, माननीय न्यायाधीशों के लिए आठ घरों, माननीय मंत्रियों के लिए आवासीय भवन, खूंटी में एमएलए आवास/ बंगले के निर्माण सहित कई अन्य कामों पर हुआ है.

 

फोटोः तहलका आका्इव
फोटोः तहलका आका्इव

मध्य प्रदेश
मध्य प्रदेश सरकार के वित्तीय वर्ष 2014-15 के बजट के विश्लेषण से भी एससीएसपी और टीएसपी के अन्य कामों के लिए इस्तेमाल की बात पता चलती है. इस फंड को राजमार्गों और पुलों सहित बुनियादी ढांचे से संबंधित बड़ी परियोजनाओं में इस्तेमाल किया गया है. इसके अलावा इसे झीलों और तालाबों के सुंदरीकरण, एनिमल इंजेक्शंस, सिंथेटिक हॉकी टर्फ बनाने, स्टेट इंडस्ट्रियल प्रोटेक्शन फोर्स के गठन के लिए इस्तेमाल किया गया है. और तो और इस फंड को सिंहस्थ मेला, जिसे उज्जैन कुंभ मेला के नाम से जाना जाता है, के लिए भी खर्च किया गया है. सामाजिक दृष्टि से देखें, तो यह मेला अछूत प्रथा को बढ़ावा देने के लिए कुख्यात है. इसके अतिरिक्त एससीएसपी और टीएसपी के फंड का उपयोग गौसेवकों को भत्ता देने के लिए भी किया गया है, जो संघ परिवार की परियोजना है.

छत्तीसगढ़

यही हाल मध्य प्रदेश के पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ का भी है. अगर हम वित्त वर्ष 2014-15 के छत्तीसगढ़ के बजट पर नजर डालें, तो पता चलता है कि यहां टीएसपी और एससीएसपी फंड को अन्य कामों के अलावा ‘स्पेशल पुलिस’ और ‘पुलिस’ के लिए इस्तेमाल किया गया. एससीएसपी से 3.03 करोड़ रुपये पुलिस विभाग को दे दिए गए.

 

राजनीतिक नेतृत्व और असंवेदनशील नौकरशाही उन आधारभूत सिद्धांतों को ध्वस्त कर रही हैं जिनके ऊपर टीएसपी और एससीएसपी का ढांचा बनाया गया

ओडीसा
ओडीसा के विश्लेषण में साफ हुआ कि टीएसपी और एससीएसपी फंड का इस्तेमाल पुलिस और अन्य बलों के आधुनिकीकरण, जेलों और पुलिस बैरकों के निर्माण, ओडीसा स्टेट पुलिस हाउसिंग एंड वेलफेयर कॉरपोरेशन के जरिए पुलिस के लिए आवासीय भवनों के निर्माण के लिए किया गया.

गुजरात

कई सालों से देश का आदर्श राज्य माने जा रहे गुजरात ने भी व्यवस्थित तरीके से एससीएसपी और टीएसपी फंड को अन्य मदों में इस्तेमाल किया है. इस फंड का इस्तेमाल मुख्यतः बुनियादी ढांचा क्षेत्र की बड़ी परियोजनाओं और अहम सिंचाई परियोजनाओं में किया गया है, जो काफी हद तक अमीर किसानों को फायदा पहुंचाते हैं. गुजरात की भूमिहीन जनसंख्या में बड़ी संख्या दलितों की है. साल 2012-13 में इस फंड का इस्तेमाल स्वामी विवेकानंद की 150वी जयंती मनाने के लिए किया गया. अंबेडकर जयंती मनाने पर दलितों के खिलाफ हिंसा के देशभर में कई मामलों के मद्देनजर देखें, तो अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए तय फंड का ऐसा इस्तेमाल वाकई रोचक है.

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली

जब बात फंड के दूसरी जगह इस्तेमाल की आती है, तो इस मामले में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का अपना अलग ही इतिहास है- राष्ट्रमंडल खेलों के लिए फ्लाईओवर और हाईवे बनाने के लिए इस फंड के कुख्यात और विवादित इस्तेमाल से लेकर दीवाली की मिठाइयां बांटने जैसे काम इस फंड के जरिए हुए.

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आंध्र प्रदेश
दलित और आदिवासी समूहों द्वारा प्रभावी राजनीतिक ध्रुवीकरण के फलस्वरूप आंध्र प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने दिसंबर 2012 में एससीएसपी एंड एसटीपी सब-प्लान एक्ट लागू किया. अपनी तरह के इस पहले अधिनियम की कई सीमाएं हैं, लेकिन अनुसूचित जातियों और जनजातियों के विकास के लिए बनाए जानेवाले कानूनों के इतिहास के शुरुआती कदम के रूप में इस अधिनियम का स्वागत किया गया.

हालांकि इस अधिनियम के लागू होने से पहले आंध्र प्रदेश में भी उनके हक के फंड से उन्हें वंचित किए जाने और फंड का दूसरे मदों में इस्तेमाल करने का लंबा इतिहास रहा है. साल 2010-11 में इनके फंड का इस्तेमाल रिंग रोड परियोजनाओं, कॉलेज अध्यापकों को वेतन देने और मंडल मुख्यालयों में वीडियो कांफ्रेंसिंग की सुविधा स्थापित करने आदि के लिए किया गया. साल 2011-12 में उनके लिए आवंटित फंड का उपयोग प्रिंट मीडिया में सरकारी विज्ञापन देने और आंध्र प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम (एपीएसआरटीसी) को मदद करने के लिए किया गया. साल 2012-13 में इस फंड का इस्तेमाल हुसैन सागर झील, कैचमेंट एरिया इम्प्रूवमेंट प्रोजेक्ट और हैदराबाद मेट्रो रेल परियोजना के लिए किया गया.

बिहार

केंद्र और राज्य की विभिन्न परियोजनाओं में कभी-कभी अनुसूचित जातियों और जनजातियों के कल्याण के लिए आधिकारिक रूप से फंड अलग रख दिया जाता है. लेकिन व्यवस्था में मौजूद असंतुलित शक्ति संबंध और संरचनात्मक कारक इस लाभ को उन लोगों तक पहुंचने से रोकते हैं, जिनके लिए इन्हें रखा गया होता है. बिहार के जहानाबाद जिले के मखदूमपुर प्रखंड में एससीएसपी फंड से पांच सड़कों के निर्माण के बारे में प्रयास ग्रामीण विकास समिति का हालिया अध्ययन इस बात का जीवंत उदाहरण है. दरअसल इस परियोजना के जरिए दलित बस्तियों को मुख्य सड़कों से जोड़ा जाना था, लेकिन अधिकांश मामलों में सड़क को दलित बस्तियों से एक या दो किलोमीटर पहले वहीं तक रोक दिया गया जहां अन्य हिंदू जातियां रहती हैं. इस तरह उस जातीय जनसंख्या को इससे लाभ मिला जिसका वहां पर दबदबा है और दलित अभी भी कच्ची सड़कों का इस्तेमाल कर रहे हैं. बिहार में अछूत प्रथा के कई ऐसे उदाहरण भी देखे गए हैं जिनमें दलितों को उन सड़कों पर चलने से रोका गया है, जिनका सवर्ण इस्तेमाल करते हैं.

नेशनल कोएलीशन ऑफ दलित ह्यूमन राइट्स (एनसीडीएचआर) की नेशनल कोऑर्डिनेटर बीना जे पल्लिकल पूछती हैं, ‘क्या यह अजीब नहीं है कि आदिवासियों और दलितों के लिए आवंटित पैसों का इस्तेमाल राज्य की दमनकारी शक्तियों जैसे पुलिस बल को मजबूत करने में किया जाता है? क्या वे लोग उन पैसों के इस्तेमाल के जरिए सताए या मारे नहीं जाते, जो दरअसल उन्हीं के लिए आवंटित किए गए होते हैं? क्यों इन पैसों का इस्तेमाल उनके लिए रोजगार के मौके बनाने में नहीं किया जाता?’

इनके लिए आवंटित पैसों का दूसरी जगह इस्तेमाल किए जाने और जेलों में कैदियों की संख्या के बीच एक सीधा संबंध भी दिख रहा है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ओर से हाल ही में जारी किए आंकड़ों के मुताबिक 53 फीसदी भारतीय कैदी दलित, आदिवासी और मुस्लिम हैं, जबकि देश की कुल जनसंख्या में इनकी संख्या इससे कम है.

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गुजरात

nवित्त वर्ष 2012-13 में 37.02 करोड़ रुपये जवाहर लाल नेहरू नेशनल अर्बन रिन्यूअल मिशन (जेएनएनयूआरएम) को इन्््फ्रास्ट्रक्चर और गवर्नेंस के लिए दे दिए गए.

nइसके अलावा 115 करोड़ रुपये स्वर्ण जयंती मुख्य मंत्री शहरी विकास योजना के तहत निगमों को सहायता अनुदान के तौर पर दे दिए गए.

nस्वर्णिम गुजरात के उद्देश्य हासिल करने और आदर्श कस्बे बनाने के लिए नगरपालिकाओं को मदद के तौर पर 124.27 करोड़ रुपये दे दिए गए.

nशेयर कैपिटल कंट्रिब्यूशन के तौर पर सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड की ओर 700 करोड़ रुपए बढ़ा दिए गए.

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