रिपोर्टें बताती हैं कि विदेशों से सबसे ज्यादा चंदा जिन भारतीय संगठनों को मिलता है उनमें अंतरराष्ट्रीय आर्थिक अनुसंधान परिषद (आईसीआरआईईआर) पहले स्थान पर है. इसे 2007 से 2012 तक एशियायी विकास बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और सासाकावा पीस फाउंडेशन जैसे संगठनों से 11.5 करोड़ रुपये मिले. इसके अलावा कई दूसरे थिंक टैंकों को भी विदेशों से डोनेशन मिलता है. ये अपनी-अपनी विचारधारा में अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन सरकार की कार्रवाई से एक बात साफ है कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या उससे संबद्ध किसी संगठन के प्रति ऐसी कार्रवाई नहीं कर सकती जबकि इनमें से भी बहुतों को विदेशों से भारी पैसा मिलता है.
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ी दानदाता संस्थाओं में फोर्ड फाउंडेशन, गूगल फाउंडेशन, इंटरनेशनल डेवलपमेंट रिसर्च सेंटर, हेवलेट फाउंडेशन, इकॉनॉमिक एंड सोशल रिसर्च काउंसिल आदि हैं. आज से लगभग तीन दशक पहले तक विदेशी चंदा गरीबी उन्मूलन या झुग्गी-झोपड़ी विकास के कामों के लिए मिलता था. लेकिन आज इसका दायरा बहुत विस्तृत हो गया है. अब इसमें राष्ट्रीय विकास परियोजनाओं से जुड़े काम जैसे- बांध या परमाणु ऊर्जा परियोजनाएं भी शामिल हैं. थिंक टैंकों या सरकारी संगठनों के बारे में एक बात यह भी कही जा सकती है कि वे भले यह आरोप लगाते रहे हैं कि सरकार का काम पारदर्शी नहीं है लेकिन इनके बारे में भी लगभग यही बात कही जा सकती है.
ब्राजील के प्रसिद्ध समाजशास्त्री और बुद्धिजीवी जेम्स पेत्रास ने विकासशील देशों में काम कर रहे गैरसरकारी संगठनों का काफी अध्ययन किया है. उनके मुताबिक ये लोकप्रिय सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों पर सवार होकर अपना प्रभाव बढ़ाते हैं और उन आंदोलनों को जमीनी स्तर पर फैलने से रोकते हैं. इन संगठनों का मकसद अपनी पहुंच उन क्षेत्रों तक बढ़ाने की होती है जहां पहले से उग्र सुधारवादी आंदोलन चल रहे हैं. इन देशों में ऐसे सैकड़ों विवादित संगठन हैं जो विदेशी चंदे पर चल रहे हैं और अपना प्रभाव बढ़ाकर जनोन्मुखी परियोजनाओं को रोकने का काम कर रहे हैं. ये अपनी संबंधित सरकारों के हितों में यथास्थिति बनाए रखने के लिए काम करते हैं. आमतौर पर राजनीतिक प्रतिष्ठान परंपरागत वामपंथी विधारधारा से थोड़ा अलग जाकर जनता के बीच काम करने वाले संगठनों को माओवादी या वामपंथी उग्रवादी करार दे देते हैं. इसी लीक पर चलते हुए मीडिया भी जनता के बीच चल रहे असली आंदोलन को दबा देती है.
एक उदाहरण हमारे पड़ोसी बांग्लादेश से है. वहां लगभग ढाई दशक पहले एक सामाजिक कार्यकर्ता और पेशे से डॉक्टर जफारुल्लाह चौधरी ने राष्ट्रीय दवा नीति का खाका तैयार किया था. इसका मकसद था कि गरीब से गरीब व्यक्ति को भी जरूरी दवाएं आसानी से मिल सकें. लेकिन जल्दी ही उनको निशाना बनाया जाने लगा. उनके खिलाफ कई केस शुरू हो गए. आखिर में इस नीति को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. इस सबके पीछे बहुराष्ट्रीय कंपनियां और विदेशी डोनेशन से चलने वाले गैरसरकारी संगठन ही थे. विकासशील देशों में ऐसे उदाहरणों की भरमार है जहां जनोन्मुखी कार्यक्रमों या आंदोलनों को विदेशी चंदा पाने वाले संगठनों ने अपनी-अपनी संबंधित सरकारों के इशारों पर खत्म कर दिया. हालांकि सभी संगठनों को एक ही नजर से देखना पक्षपाती रवैया होगा. ऐसा ही कुछ इस समय मोदी सरकार और आईबी कर रहे हैं. कई सामाजिक क्षेत्रों में बदलाव लाने में इन संगठनों ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. ऐसे में इन संगठनों पर कार्रवाई के लिए अतिरिक्त सतर्कता बरतना जरूरी है. हम इस तथ्य से भी इनकार नहीं कर सकते कि जमीनी स्तर पर सामाजिक बदलाव लाने की दिशा में सरकार और कॉर्पोरेट क्षेत्र की भूमिका ऐसी नहीं रही है जिसे आदर्श कहा जा सके. फिर हमारे यहां रतन टाटा और अजीम प्रेमजी जैसे लोग भी संख्या में इतने नहीं हैं कि दहाई का आंकड़ा पा सके. विदेशी चंदे से चलने वाली एनजीओ पर एकतरफा प्रतिबंध काफी नुकसानदेह साबित हो सकता है क्योंकि हमारे यहां इस खाई को पाटने के लिए चंदा देने वाले भारतीयों की संख्या इतनी ज्यादा नहीं है.
जहां तक एनजीओ की बात है, चाहे वे विदेशी चंदे से चलते हो या नहीं, उन्हें इस बहस की दिशा खुद तय करनी होगी. सरकार इस दिशा में अपना पक्ष अपने हिसाब से रख सकती है जिसके जवाब में गैरसरकारी संगठनों को अपनी बात कहने के लिए उतनी ही मजबूती से आगे आना होगा.