कभी रवीश कुमार मत बनना

Ravish Kumar-webअपने आप को नौजवानों की आंखों में चमकते देखना किसे नहीं अच्छा लगता होगा. कोई आप से मिलकर इतना हैरान हो जाए कि उसे सबकुछ सपने जैसा लगने लगे तो आप भी मान लेंगे कि मुझे भी अच्छा लगता होगा. कोई सेल्फी खींचा रहा है कोई ऑटोग्राफ ले रहा है. लेकिन जैसे-जैसे मैं इन हैरत भरी निगाहों की हकीकत से वाकिफ होता जा रहा हूं, वैसे-वैसे मेरी खुशी कम होती जा रही है. मैं सुन्न हो जाता हूं. चुपचाप आपके बीच खड़ा रहता हूं और दुल्हन की तरह हर निगाह से देखे जाने की बेबसी को झेलता रहता हूं. एक डर-सा लगता है. चूंकि आप इसे अतिविनम्रता न समझ लें इसलिए एक मिनट के लिए मान लेता हूं कि मुझे बहुत अच्छा लगता है. मेरे लिए यह भी मानना आसान नहीं है लेकिन यह इसलिए जरूरी हो जाता है कि आप फिर मानने लगते हैं कि हर कोई इसी दिन के लिए तो जीता है. उसका नाम हो जाए. अगर सामान्य लोग ऐसा बर्ताव करें तो मुझे खास फर्क नहीं पड़ता. मैं उनकी इनायत समझ कर स्वीकार कर लेता हूं लेकिन पत्रकारिता का कोई छात्र इस हैरत से लबालब होकर मुझसे मिलने आए तो मुझे लगता है कि उनसे साफ-साफ बात करनी चाहिए.

मुझे यह तो अच्छा लगता है कि पत्रकारिता की पढ़ाई पढ़ने वाले तेईस-चौबीस साल के नौजवानों के चेहरे पर अब भी वही आदर्श और जुनून दिखता है. मुझसे मिलने वाले छात्रों में यह ललक देखकर दिल भर जाता है. सचमुच प्यार आता है. अच्छा लगता है कि तमाम निराशाओं के बाद भी आने वाले के पास उम्मीदों की कोई कमी नहीं है. उनके सवालों में यह सवाल जरूर होता है कि आप कितने दबाव में काम करते हैं. सवाल पूछने के लिए दबाव होता है या नहीं. रिपोर्टिंग कैसे बेहतर करें. आपका सारा शो देखते हैं. मेरे घर में सब प्राइम टाइम देखते हैं. मेरी मां तो आपकी फैन है. दीदी के ससुराल में भी सारे लोग देखते हैं. आप फिर कब रवीश की रिपोर्ट करेंगे. सर, क्या हम चुनाव की रिपोर्टिंग में आपके साथ चल सकते हैं. हमने आपकी रिपोर्ट पर प्रोजेक्ट किया है.

दोस्तों, ईमानदारी से कह रहा हूं, आपकी बातें लिखते हुए आंखें भर आईं हैं. पर आपकी बातों से मुझे जो अपने बारे में पता चलता है वो बहुत कम होता है. इस कारण मैं भी आपके बारे में कम जान पाता हूं लेकिन जो पता चलता है उसके कारण लौटकर दुखी हो जाता हूं. मुझे नहीं मालूम कि पत्रकारिता की दुकानों में क्या पढ़ाया जाता है और क्या सपने बेचे जाते हैं क्योंकि मुझे पत्रकारिता के किसी स्कूल में जाने का मन नहीं करता. जब विपरीत स्थिति आएगी तो चला जाऊंगा क्योंकि मेहनताना तो सबको चाहिए लेकिन जब तक अनुकूल परिस्थिति है मेरा जी नहीं करता कि वहां जाकर मैं खुद भी आप जैसे नौजवानों के सपनों का कारण बन जाऊं. इसलिए दोस्तों साफ-साफ कहने की अनुमति दीजिए. आपमें से ज्यादातर को पत्रकारिता की पढ़ाई के नाम पर उल्लू बनाया जा रहा है. मुझे नहीं लगता कि दस-बीस शिक्षकों को छोड़कर हमारे देश में पत्रकारिता पढ़ाने वाले योग्य शिक्षक हैं. हमें समझना चाहिए कि पत्रकारिता की पढ़ाई और शाम को डेस्क पर बैठकर दस पंक्ति की खबर लिख देना एक नहीं है. पत्रकारिता की पढ़ाई का अस्सी फीसदी हिस्सा अकादमिक होना चाहिए. कुछ शिक्षकों ने व्यक्तिगत दिलचस्पी लेकर इस क्षेत्र में अपने आपको बेहतर जरूर किया है लेकिन उन तक कितने छात्रों की पहुंच हैं. इन दो-चार शिक्षकों में से आधे से ज्यादा के पास अच्छी और पक्की नौकरी नहीं है.

जिन लोगों को पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए नौकरी मिली है वो हमारे ही पेशे से गए हुए लोग हैं. जो नौकरी करते हुए डिग्री ले लेते हैं और नेट करने के बाद कहीं लग जाते हैं. इनमें से ज्यादतर वे लोग होते हैं जो पेशे में खराब होते हैं, किसी वजह से चटकर अपने राजनीतिक और जातिगत टाइप के संपर्कों का इस्तेमाल कर लेक्चरर बन जाते हैं. कुछ इस संयोग से भी बन जाते हैं कि संस्थान को कोई दूसरा नहीं मिला. कुछ उम्र के कारण पत्रकारिता में बेजरूरी कर दिए जाते हैं तो अपनी इस डिग्री को झाड़पोंछ कर क्लास में आ जाते हैं. इनमें से कुछ लगन से पढ़ाते हुए अच्छे शिक्षक भी बन जाते हैं लेकिन इस कुछ का प्रतिशत इतना कम है कि उनके आधार पर आपके भविष्य की बात नहीं की जा सकती.

मैं यह जानते हुए कि हमारे पेशे में अनेक खराबियां हैं, कहना चाहता हूं कि ऐसे संस्थानों और शिक्षकों से पढ़कर आप कभी पत्रकार नहीं बन सकते हैं. भारत में पत्रकारिता को ढंग से पढ़ाने और प्रशिक्षण देने के लिए कुछ सेंटर जरूर विकसित हुए हैं लेकिन ज्यादातर इसके नाम पर दुकान ही हैं. जहां किसी कैमरामैन या किसी एंकर को लेक्चर के लिए बुला लिया जाता है और वो अपना निजी अनुभव सुनाकर चला जाता है. मैं कई अच्छे शिक्षकों को जानता हूं जिनके पास नौकरी नहीं है. वे बहुत मन से पढ़ाते हैं और पढ़ाने के लिए खूब पढ़ते हैं. जो शिक्षक अपने जीवन का बंदोबस्त करने के तनावों से गुजर रहा है वो  आपकी उम्मीदों को खाद-पानी कैसे देगा. सोचिए उनकी ये हालत है तो आपकी क्या होगी. इसलिए बहुत सोच-समझकर पत्रकारिता पढ़ने का फैसला कीजिएगा. इंटर्नशिप के नाम पर जो गोरखधंधा चल रहा है वो आप जानते ही होंगे. मुझे ज््यादा नहीं कहना है. सारी बगावत मैं ही क्यों करूं. कुछ समझौते मुझे भी करने दीजिए.

आप छात्रों से बातचीत करते हुए लगता है कि आपको भयंकर किस्म के सुनहरे सपने बेचे गए हैं. यही कि आप पत्रकार बनकर दुनिया बदल देंगे और मोटी फीस इसलिए दीजिए कि मोटे वेतन पर खूब नौकरियां छितराई हुई हैं. नौकरियां तो हैं पर खूब नहीं हैं. वेतन भी अच्छे हैं पर कुछ लोगों के अच्छे होते हैं. आप पता करेंगे कि तमाम संस्थानों से निकले छात्रों में से बहुतों को नौकरी नहीं मिलती है. कुछ एक-दो साल मुफ्त में काम करते हैं और कुछ महीने के पांच दस हजार रुपये पर. दो-चार अच्छे अखबार और चैनल अपवाद हैं. जहां अच्छी सैलरी होती हैं लेकिन वहां भी आप औसत देखेंगे तो पंद्रह-बीस साल लगाकर बहुत नहीं मिलता है. ज्यादातर संस्थानों में पत्रकारों की तनख्वाह धीमी गति के समाचार की तरह बढ़ती है. हो सकता है कि उनकी योग्यता या काम का भी योगदान हो लेकिन ये एक सच्चाई तो है ही. अभी देख लीजिए कुछ दिन पहले खबर आई थी कि सहारा में कई पत्रकारों को समय पर वेतन नहीं मिल रहा है. पत्रकारों की नौकरियां चली गईं या जा रही हैं या ऐसी हालत है कि करना मुश्किल है. जो भी परिस्थिति हो लेकिन पत्रकार को कौन पूछ रहा है. उन्हें न तो नई नौकरी मिल रही है न नया रास्ता बन पा रहा है. ठीक है कि ऐसी परिस्थिति किसी भी फील्ड में आती है लेकिन दुखद तो है ही. सहारा छोड़ दीजिए तो आप जिलों में तैनात पत्रकारों की सैलरी का पता कर लीजिए. पता होना चाहिए. एक स्टार एंकर की सच्चाई पत्रकारिता की सच्चाई नहीं हो सकती.

आपने उन सपनों को काफी पैसे देकर और जिंदगी के कीमती साल देकर खरीदे हैं. इन सपनों को बेचने के लिए हम जैसे दो-चार एंकर पेश किए जाते हैं. आपकी बातचीत से यह भी लगता है कि आपको हमारे जैसे दो-चार एंकरों के नाम तो मालूम हैं लेकिन अच्छी किताबों के कम. ये आपकी नहीं, आपके टीचर की गलती है. आपमें से ज्यादातर साधारण या ठीकठाक परिवेश से आए हुए होते हैं इसलिए समझ सकता हूं कि पांच सौ, हजार रुपये की किताब खरीदकर पढ़ना आसान नहीं है. यह भी पता चलता है कि आपके संस्थान की लाइब्रेरी अखबारों-चैनलों में काम कर रहे दो-चार उत्साही लोगों की औसत किताबों से भरी पड़ी है जिनके शीर्षक निहायत ही चिरकुट टाइप के होते हैं. मसलन रिपोर्टिंग कैसे करें, एंकरिंग कैसे करें या राजनीतिक रिपोर्टिंग करते समय क्या-क्या करना, मीडिया और समाज, अपराध रिपोर्टिंग के जोखिम. एक बात का ध्यान रखिएगा कि हमारे नाम का इस्तेमाल कर लिखी गईं किताबों से आपको पेशे के किस्से तो मिल जाएंगे मगर ज्ञान नहीं मिलेगा. प्रैक्टिकल इतना ही महत्वपूर्ण होता तो मेडिकल के छात्रों को पहले ही दिन आॅपरेशन थियेटर में भेज दिया जाता. देख-पूछकर वो भी तीन महीने के बाद आॅपरेशन कर ही लेते.

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पढ़ाई को पढ़ाई की तरह किया जाना चाहिए. हो सकता है कि अब मैं बूढ़ा होने लगा हूं इसलिए ऐसी बातें कर रहा हूं लेकिन मैं भी तो आपके ही दौर में जी रहा हूं. पढ़ाई ठीक नहीं होगी तो चांस है कि आपमें से ज्यादातर लोग अच्छे पत्रकार नहीं बन पाएंगे. हिंदी के कई पत्रकार साहित्य को ही पढ़ाई मान लेते हैं. उन्हें यह समझना चाहिए कि साहित्य की पत्रकारिता हो सकती है मगर साहित्य पत्रकारिता नहीं है. साहित्य एक अलग साधना है. इसमें कोई प्राणायाम नहीं है कि आप इसका पैकेज बनाकर पत्रकारिता में बेचने चले आएंगे. इसलिए आप अलग से किसी एक विषय में दिलचस्पी रखें और उससे जुड़ी किताबें पढ़ें. जैसे मुझे इन दिनों चिकित्सा के क्षेत्र में काफी दिलचस्पी हो रही है. इरादा है कि दो तीन साल बाद इस क्षेत्र में रिपोर्टिंग करूंगा या लिखूंगा या कम से कम देखने-समझने का नजरिया तो बनेगा. इसके लिए मैंने मेडिकल से जुड़ी तीन-चार किताबें खरीदी हैं और एक दो किसी ने भेज दी हैं.

तो मैं कह ये रहा था कि पढ़ना पड़ेगा. आज भी चैनलों में कई लोग जो अपने हिसाब से अच्छा कार्यक्रम बनाते हैं (वैसे होता वो भी औसत और कई बार घटिया ही है) उनमें भी पढ़ने की आदत होती है या ये कला होती है कि कहां से क्या पढ़ लिया जाए कि कुछ बना दिया जाए. मगर ‘कट’ और ‘पेस्ट’ वाली से बात बनती नहीं है. ये आपको बहुत दूर लेकर नहीं जाएगा. मैं यह नहीं कह रहा कि आप पढ़ते नहीं होंगे लेकिन यह जरूर कह सकता हूं कि जो आपको पढ़ाया जा रहा है उसका स्तर बहुत अच्छा नहीं है. आप इसे लेकर बेहद सतर्क रहें. अगर पढ़ाया जाता तो पत्रकारिता संस्थानों से आए छात्रों की बातचीत में किताबों या संचार की दुनिया में आ रहे बदलाव या शोध का जिक्र तो आता ही.

मैंने बिल्कुल भी यह नहीं कहा कि पत्रकारिता की समस्या ये है कि आने वाले छात्रों में जज्बा नहीं है या वे पढ़े-लिखे नहीं हैं. इस तरह के दादा टाइप उपदेश देने की आदत नहीं है. आप लोग हमारे दौर से काफी बेहतर हैं. मैं बता रहा हूं कि सिस्टम आपको खराब कर रहा है. वो आपके जज्बेे का सही इस्तेमाल ही नहीं करना चाहता. किसी को इंतजार नहीं है कि कोई काबिल आ जाए और धमाल कर दे. वैसे इस लाइन में किसी को काबिल बनने में कई साल लग जाते हैं. मेरी राय में लगने भी चाहिए तभी आप इस यात्रा का आनंद लेना सीख सकेंगे. कई जगहों पर जाएंगे, कई बार खराब रिपोर्ट करेंगे, उनकी आलोचनाओं से सीखेंगे. यह सब होगा तभी तो आप पांच खराब रिपोर्ट करेंगे तो पांच अच्छी और बहुत अच्छी रिपोर्ट भी करेंगे.

अब आता हूं आपकी आंखों में जो एंकर होते हैं उन पर. मित्रों आप खुद को धोखा दे रहे हैं. हम जैसे लोग उस मैनिक्विन (पुतला) की तरह है जो दुकान खुलते ही बाहर रख दिए जाते हैं. मैनिक्विन की खूबसूरती पर आप फिदा होते हैं तो ये आपकी गलती है. पत्रकारिता में आप पत्रकार बनने आइए. किसी के जैसा बनने मत आइए. फोटोकाॅपी चलती नहीं है. कुछ समय के बाद घिस जाती है. राहू-केतु के संयोग पर यकीन रखते हैं तो मैं अपनी सारी बातें वापस लेता हूं. इस लाॅजिक से तो आप कुछ कीजिए भी नहीं, एक दिन क्या पता प्रधानमंत्री ही बन जाएं या फिर बीसीसीआई के चेयरमैन या क्या पता आपकी बनाई किसी कंपनी में मैं ही नौकरी के लिए खड़ा हूं. मुझे लगता है कि आप लोग खुद को धोखा दे रहे हैं और आपको धोखा दिया जा रहा है. एक दिन आप रोएंगे. धकिया दिए जाएंगे. इसलिए अपना फैसला कीजिए. आपका दिल टूटेगा तब आपको रवीश कुमार बनने का वो सपना बहुत सताएगा.

मैं क्यों कह रहा हूं कि आपको रवीश कुमार नहीं बनना चाहिए. इसलिए कि आपकी आंखों में खुद को देख मैं डर जाता हूं. मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है जिससे आप प्रभावित हों. आप पत्रकार बनने वाले हैं, कम-से-कम प्रभावित होने की प्रवृत्ति होनी चाहिए. यह भी ठीक नहीं होगा कि देखते ही मुझे गरिया दें लेकिन प्लीज खुदा न कहें और मेरी तुलना किसी फिल्म स्टार से न करें. मैं ऐसा कुछ भी नहीं हूं जो आपको बनना चाहिए. हम न अपने आप में संस्थान हैं न सिस्टम. हम न बागी हैं, न क्रांतिकारी. यही सीखा है कि अपना काम करते चले जाओ. अगर आप ने मुझे मंजिल बना लिया तो निराशा होगी.

मुझे पता है कि आपसे इंटरव्यू में पूछा जाता है कि किसी अच्छे पत्रकार का नाम बताओ या किसके जैसा बनना चाहते हो. इंटरव्यू लेने वाले फिर मुझे बताते हैं कि ज्यादातर छात्र आप ही का नाम लेते हैं. आपको क्या लगता है कि मैं खुश हो जाता हूं. सुन लेता हूं लेकिन मेरा दिल बैठ जाता है. यह सोचकर कि क्या उन्हें पता है कि रवीश कुमार होना कुछ नहीं होना होता है. किसी के जैसा बनने का यह सवाल भी गिनीज बुक के लिए रिकॉर्ड बनाने जैसा वाहियात है कि किसके जैसा बनना है. आपको मैं बता रहा हूं कि मैं कुछ नहीं हूं. मेरे पास न तो कोई जमीन है और न आसमान. आप मुझे देखते हुए किसी शक्ति की कल्पना तो बिल्कुल ही न करें. जरूर हम लोग व्यक्तिगत साहस और ईमानदारी के दम पर सवाल पूछते हैं लेकिन हम किसी सिस्टम या पेशे की सच्चाई नहीं हो सकते. हम अपवाद भी तो हो सकते हैं.

मोटा-मोटी मैं यह कह रहा हूं कि हम लोग सामान्य लोग होते हैं. हमारे जैसे लोग चुटकी में चलता कर दिए जाते हैं और सिस्टम डस्टबिन में फेंक देता है. समाज भूल जाता है. अनेक उदाहरण हैं. कुछ उदाहरण हैं कि समाज बहुत इज्जत भी करता है और याद भी रखता है. प्यार भी करता है. कई लोग लस्सी और दूध लेकर आ जाते हैं. मेरे दर्शकों ने मुझे घी और गुड़ भी दिया है. कैडबरी के चाॅकलेट भी दिए हैं. लेकिन मैं आपके सपनों की सच्चाई नहीं हो सकता. हम सबको पेशे में आने वाले उतार-चढ़ावों से गुजरना पड़ेगा. कुछ गुजरे भी हैं और जो नहीं गुजरे हैं वे दावे से नहीं कह सकते कि उनके साथ ऐसा नहीं होगा. इसलिए अगर आप पत्रकारिता के छात्र हैं जो दो-चार एंकरों का चक्कर छोड़िए. उनके शो देखकर इस भ्रम में मत रहिएगा कि आप पत्रकारिता की पढ़ाई पढ़ रहे हैं. अगर भ्रम में नहीं रहते हैं तो बहुत अच्छी बात है. आप तमाम माध्यमों को देखिए, जहां हिंदी-अंग्रेजी के कई पत्रकार अच्छी और गहरी समझ से रिपोर्ट लिख रहे हैं. उनकी रिपोर्ट का विश्लेषण कीजिए. उनसे बात कीजिए कि खबर तक पहुंचने के क्या कौशल होना चाहिए. आपके टीचर ने गलत बताया है कि टीवी का पत्रकार बनना है तो चैनल देखो या रवीश कुमार को देखो. उनसे कहियेगा कि खुद रवीश कुमार महीने में कुल जमा चार घंटे भी चैनल नहीं देखता है.

आप सबकी मासूमियत और ईमानदारी देखकर जी मचलता है. लगता है कि क्या किया जाए कि आपको खरोंच तक न लगे. जज्बा बचा रहे. पर मैं एक व्यक्ति हूं. मैं सोच सकता हूं, लिख सकता हूं इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकता. सही बात है कि अब कुछ करना भी नहीं चाहता. शायद इसी बेचैनी के कारण यह सब लिखने की मूर्खता कर रहा हूं. आपके रवीश कुमार कुछ नहीं हैं. आप उनकी वक्ती लोकप्रियता पर मोहित मत होइए. हमने जरूर अपने अनुशासन से साख बनाई है और यह जरूरी हिस्सा है लेकिन यह भी समझिए कि मुझे बहुत अच्छे मौके मिले हैं. सबकी कहानी में दुखभरी दास्तान होती हैं. मेरी भी है लेकिन इसके बावजूद मुझे अच्छे मौके मिले हैं. पूरी प्रक्रिया को समझिए और फिर उसमें हम जैसे तथाकथित स्टार एंकरों को रखकर देखिए.

पूरी पत्रकारिता को स्टार एंकर की अवधारणा में नहीं समेटा जा सकता. एंकर हर खबर या हर रिपोर्टर का विकल्प नहीं हो सकता. कम से कम मैं नहीं हो सकता. लेकिन अब का दौर ऐसा ही है. आपके पास टीवी में इसका विकल्प नहीं है. कई जगहों पर प्रयास हो रहा है लेकिन जैसे ही कोई मसला आता है वे मसाला बनाने में लग जाते हैं. दर्शक भी वैसे ही हो गए हैं. किसी रिपोर्टर की स्टोरी को ध्यान से नहीं देखते. यही गिनती करते रहते हैं कि किस एंकर ने कौन सी स्टोरी पर बहस की और किस पर नहीं की ताकि वे खुद को संतुष्ट कर सकें कि ऐसा उसने किसी पार्टी के प्रति पसंद-नापसंद के आधार पर किया होगा.

इसलिए आप इन एंकरों को महाबलि न समझें कि वह देश के तमाम मुद्दों पर इंसाफ कर देगा. हर मुद्दे पर प्रतिबद्धता साबित कर देगा या सही तरीके से कार्यक्रम कर देगा. सबको सबक सीखा देगा. बैकग्राउंड में तूफान फिल्म का गाना बजेगा, आया-आया तूफान… भागा-भागा शैतान… ऐसा होता नहीं है दोस्तों. आप देख ही रहे हैं कि हम एंकरों की तमाम चौकसी के बाद भी जवाब कितने रूटीन हो गए हैं. दरअसल ये जवाब बताते हैं कि तुम सिस्टम का कुछ नहीं बिगाड़ सकते. ज्यादा करोगे तो सोशल मीडिया के जरिए दर्शकों को बता देंगे कि हमारी पार्टी के खिलाफ हो. दर्शक भी जल्दी ही अपनी पार्टी की निष्ठा की नजर से देखने लगेंगे और आपका साथ छोड़ देंगे. मैं रोज इस अकेलेपन को जीता हूं. यह भयावह है. आप व्यापमं करो तो लोग कहते हैं कि यूपी में भी तो व्यापमं है. इन उदाहरणों में फंसाकर आपसे कहा जाता है कि तराजू के पलड़े पर बेंग (मेंढक) तौलकर दिखाओ. एक बेंग इधर रखेंगे तो दूसरा उधर से कूद जाएगा.

इसलिए नौजवान दोस्तों कभी रवीश कुमार मत बनना. अपना रास्ता खुद बनाओ. मुझे जो बनना था कथित रूप से बन चुका हूं. तुम्हें दिनेश बनना होगा, असलम बनना होगा, जाटव बनना होगा, संगीता या सुनीता बनना होगा. ये तभी बनोगे जब तुम्हें कोई मौका देगा. जब तुम उस मौके के लिए अपने आप को तैयार रखोगे और अपने हिसाब से सीमाओं का विस्तार करते चलोगे. हाॅस्टल में बैठ कल मेरा फैन बनकर अपना वक्त मत बर्बाद करना. बहुत ही महत्वपूर्ण दौर है तुम्हारा. इसका सदुपयोग करो. लोकप्रियता किसी काम की नहीं होती है. कोई तुम्हें हम लोगों का नाम लेकर ठग रहा है. बचना इससे. इसके लिए पत्रकार मत बनना. पत्रकार बनना पत्रकारिता के लिए, बशर्ते कोई तुम्हारे इस जज्बेे का इंतजार कर रहा हो. मुझे भी बताना कौन तुम्हारा बेसब्री से इंतजार कर रहा है.

(लेखक एनडीटीवी में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार हैं)

7 COMMENTS

  1. पत्रकारिता पढाई नहीं जा सकती, की जा सकती है। अफसोस आप इस मूल अंतर पर कुछ नहीं लिखते।

  2. पत्रकारिता की पढाई में लगे तमाम विद्यार्थियों के लिए एक अत्यंत जरुरी सन्देश | खुद पत्रकारिता का छात्र होने के नाते इस पोस्ट की महत्ता का अंदाजा लगा सकता हूँ | पत्रकारिता के विषय में दाखिले के बाद एक दिन छात्रो की जिज्ञाषा एवं सपनों पर कुछ चर्चा हो रही थी,बिल्कुल ऐसे ही ख्याल आ रहे थे,क्यूँ नहीं कोई खुद के अस्तित्व पर बात करता ?? एक और दिन जब अपने एक मित्र को मैंने बताया की मैंने पत्रकारिता की पढाई के लिए दाखिला ले लिया है तो उसका जवाब बहुत ही चौकाने वाला था,..”चलो अब कुछ दिन में टी वी पर दिखोगे” ,.. जवाब सुनकर सचमुच बहुत डर गया था,….और आज ये पोस्ट मिला है,सोच रहा हूँ इस पेज का प्रिंट करा के क्लास क लोगों में बाँट दूँ, शायद मेरी तरह सभी को कुछ सीखने को मिल जाये |
    एक अनुभवी पत्रकार की कलम से ऐसी बातें कम ही देखने को मिलती हैं,बहुत आभारी हूँ तहलका एवं रविश जी का जो इस युवा भविष्य के मुद्दे पर भी विचार को जगह दी गयी |
    धन्यवाद्

  3. मै तो सोचता हु काश 2,4 लाख रविश कुमार होते अपने देश में

  4. अजीब दांसता है ये, कंहा शुरू कंहा खत्म.
    ये मंजिले है कोन सी ना तुम समझ सके ना हम…
    रवीश जी, आपने नव पत्रकारों को कनफूसिया दिया है. जरूरत तो बस एक अदद नोकरी की है जो उत्तम वेतन दिलवा सके. अगर वो बजारू पत्रकारिता से मिलता तो वही सही. वेसे भी 24×7 चलते न्यूज चेनलों से इससे ज्यादा की उम्मीद बेमानी है. और अखबार…खुदा खेर करे..आपने देखा नही ये सब खबरों से ज्यादा तो विज्ञापन बेचते है ( ओह सारी दिखाते है).
    अगर आप अदंर से बेशर्म और बेदर्दऔर जुगाडू है और उपर से संवेदन शील होने का नाटक भी कर सकते है तो इन चेनलों के लिये आप सही उम्मीदवार है….अगर आप पढने के मूड मे है तो बंदा और भी बहुत कुछ लिखेगा ..अभी तो फिलहाल…
    कहने को तो और भी बहुत कुछ है पर किससे कहे हम,
    क्यों खामोश रहे और सहे(भूखे ) रहे हम

  5. Raveesh Sir ne achcha likha hai aur wo sirf ye batana chahte hain ki “chakachaundh mein mat khoiye aur zameen pr chaliye”

  6. दिल की बात को दिमाग से लिखा गया है…….परन्तु भावों को वही हृदय की सहजता के साथ प्रस्तुत किया है । बौद्धिकता को हावी नहीं होना दिया…सुंदर ,सारगर्भित एवं कलात्मक लेख जिसमें जीवन की सच्चाई और मर्म दष्टिगोचर होता है……साधुवाद ….—डाॅ. राही , नरवाना

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