गुरबत में गूजर

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सभी तस्वीरें: प्रदीप सती

ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ 1857 में हुए पहले घोषित विद्रोह के तीन दशक से भी पहले वह लगभग 1820 के आसपास का दौर था. सहारनपुर और देहरादून के बीच स्थित घने जंगलों में कलवा नाम का एक खूंखार गूजर रहता था. उसका भय इतना ज्यादा था कि उस पूरे इलाके में तैनात अंग्रेज टुकड़ियां भी उससे बहुत खौफ खाती थीं. अंग्रेजों को अपना पक्का दुश्मन मानने वाला कलवा गूजर उन्हें अपनी जमीन से खदेड़ने का ऐलान भी कर चुका था. अन्य गूजरों को संगठित करके उसने कई बार अंग्रेज सिपाहियों पर धावा भी बोला. लेकिन अंग्रेजों की अपार ताकत अंतत: उस पर भारी पड़ी. अपने लगभग 200 साथियों के साथ वह मारा गया. उसके मारे जाने से अंग्रेज इतने खुश थे कि तब उन्होंने कलवा का सिर काट कर देहरादून की जेल के बाहर टांग दिया था.

लगभग 200 साल पहले का यह घटनाक्रम अंग्रेज लेखक जीआरसी विलियम्स की किताब मेम्वार ऑफ देहरादून में कुछ इसी तरह से दर्ज है. इस किताब के अंश बताते हैं कि अंग्रेजों से अपनी जमीन को बचाने के लिए कलवा और उसके साथियों ने कैसे अपनी जान की बाजी तक लगा दी थी. लेकिन तब शायद ही कलवा या उसके साथियों को इसका भान रहा होगा कि अंग्रेजी राज के खत्म हो जाने के बाद जो नया निजाम आएगा वह भी उनके समुदाय के प्रति उपेक्षा का ही भाव रखेगा. आज भी जंगलों में रह रहे वन गूजरों के साथ भले ही ‘सिर काट कर टांग देने’ जैसा बर्ताव न किया जा रहा हो, लेकिन इतने लंबे कालखंड के बाद भी उनके सिर पर एक अदद छत का मयस्सर न हो पाना उनके लिए किसी त्रासदी से कम नहीं है. उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे राजाजी राष्ट्रीय उद्यान में आने वाले जंगलों में रह रहे ये वन गूजर आज भी उसी आदिम दौर में रहने को अभिशप्त हैं जब इंसान के पास जंगल में रहने के सिवा कोई दूसरा चारा ही नहीं होता था. शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतों से कोसों दूर ये गूजर हर उस सुविधा से वंचित हैं जिसे बेहतर जीवन स्तर की न्यूनतम शर्त कहा जा सकता है. इनकी जीवनचर्या आज भी घास पत्ती लाने और जानवरों को पालने तक ही सिमटी हुई है. घासफूस से बनी झोपड़ियों में रहते हुए इन पर एक तरफ जंगली जानवरों का खतरा हमेशा बना रहता है तो दूसरी तरफ कड़े वन कानूनों के चलते अक्सर वन विभाग का निशाना भी इन्हीं वन गूजरों की तरफ रहता है. दो साल पहले राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के सामने अपना दुखड़ा सुनाते हुए वन गूजरों ने अपनी दारुण दशा का जो वर्णन किया था उसको सुनकर आयोग के अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्लाह की टिप्पणी थी कि, ‘आजादी के इतने सालों बाद भी इतने बड़े समुदाय को समाज की मुख्यधारा से विमुख करने का काम किसी भी सरकार के लिए लानत का विषय है.’

इन गूजरों की मांग है कि सरकार जल्द से जल्द इन्हें भी उसी तरह कहीं स्थायी रूप से बसाए जैसे कि उसने राजाजी उद्यान के अंदर रहने वाले दूसरे गूजर परिवारों को बसाया है. इसके अलावा ये गूजर खुद के लिए अनुसूचित जाति का दर्जा भी चाहते हैं जैसा उनके समुदाय के लोगों को पड़ोसी राज्य हिमाचल और जम्मू-कश्मीर में मिला है. दरअसल इस उद्यान के अंदर रहने वाले 1300 से अधिक परिवारों को सरकार ने 1998 तक पुनर्वासित कर दिया था. लेकिन बाकी रह गए परिवारों के पुनर्वास की योजना को वह ‘कोल्ड स्टोर’ से बाहर ही नहीं निकाल पाई. इस बारे में सरकार का ताजा रवैया इतना गैरजिम्मेदाराना है कि उसे यह तक नहीं मालूम कि फिलवक्त इस पार्क के अंदर रह रहे वन गूजरों के परिवारों की ठीक-ठीक संख्या कितनी है. इस बारे में पूछे जाने पर उत्तराखंड के प्रमुख वन संरक्षक एसएस शर्मा का यही कहना था कि इन गूजरों के पुनर्वास को लेकर नए सिरे से योजना बनाई जा रही है. अलग-अलग अनुमानों के मुताबिक उत्तराखंड के अलग-अलग वनप्रभागों में इस समय 9000 के करीब गूजर रह रहे हैं.

शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतों से कोसों दूर ये गूजर हर उस सुविधा से वंचित हैं जिसे बेहतर जीवन स्तर की न्यूनतम शर्त कहा जा सकता है

इस सबके बीच 1998 तक पुनर्वासित हो चुके वनगूजर जहां धीरे-धीरे ही सही मुख्यधारा की ओर कुछ कदम बढ़ा चुके हैं, वहीं जंगलों में रहने को मजबूर इन गूजरों के हिस्से में अभी भी लंबा इंतजार ही है. वन गूजरों के हितों को लेकर काम करने वाली गैर सरकारी संस्था रूरल लिटिगेशन एंड एनटाइटलमेंट केंद्र (रूलक) के अध्यक्ष अवधेश कौशल कहते हैं, ‘इसे विसंगति ही कहा जाना चाहिए कि समाज की मुख्यधारा से बहुत पहले से ही कटे हुए ये गूजर परिवार अब अपनी ही बिरादरी वाले पुनर्वासित गूजरों से भी कई मायनों में पिछड़ चुके हैं. ऐसे में इनके पुनर्वास को लेकर की जा रही देरी इन्हें और भी पीछे धकेल देगी’ पुनर्वासित गूजरों की बस्तियों और जंगल में रहने वाले गूजरों के डेरों (झोपड़ी) का सूरतेहाल देखने पर साफ पता चलता है कि पुनर्वास हो जाने और पुनर्वास न हो पाने के चलते एक ही समुदाय के इन लोगों के जीवनस्तर के बीच एक ऐसी लकीर खिंच चुकी है जो लगातार लंबी होती जा रही है.

उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से तकरीबन 25 किलोमीटर दूर मोहंड नामक एक जगह है. चारों तरफ से वनों से घिरा यह इलाका जिस राजाजी राष्ट्रीय उद्यान से सटा हुआ है उसी के भीतर वन गूजरों के परिवार कई पीढि़यों से रहते आए हैं. जंगल की तरफ आगे बढ़ने पर उनकी घासफूस की खूबसूरत झोपड़ियां एक-एक करके दिखने लगती हैं. लेकिन इन झोपड़ियों के पास पहुंचने के बाद जो दिखता है उससे इस खूबसूरती का सारा भ्रम एक ही झटके में बिखर जाता है. ऐसी ही एक झोपड़ी में टूटे-फूटे बर्तनों और इधर-उधर बिखरे सामानों के बीच बची-खुची रह गई थोड़ी सी जगह में कई सारे लोगों के रहने का इंतजाम किसी शरणार्थी शिविर सा लगता है. झोपड़ी के पिछली तरफ कुछ बच्चे खेल रहे हैं. तीन से लेकर लगभग 12 साल तक की उम्र वाले इन बच्चों के चेहरों पर पसरी हुई बेफिक्री कहीं से भी यह आभास नहीं करा रही कि अपने भविष्य को लेकर इनके मन में किसी तरह की कोई चिंता होगी.

लेकिन इस चिंता का आभास तब होता है जब 70 साल के अली खान चारपाई से उठ कर हमसे बातचीत करने लगते हैं. इन बच्चों की तरफ इशारा करके वे कहते हैं, ‘अपने बचपन के दिनों में मैं भी इसी तरह बेफिक्री से खेला कूदा करता था. तब मुझे भी नहीं मालूम था कि आने वाला कल कैसा होगा. लेकिन गुमनामी में पूरी जिंदगी जी लेने के बाद आज जब इन बच्चों का भविष्य सोचता हूं तो डर जाता हूं.’ बात आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं, ‘जागरूकता के अभाव मंे हम तो पढ़ाई लिखाई से वंचित रहे ही, और अब हमारी यह नई पीढ़ी भी शिक्षा के हक से पूरी तरह महरूम है. ऐसे में यह सोचकर ही दिमाग सुन्न हो जाता है कि इनका भविष्य क्या होगा.’ इन बच्चों के स्कूल नहीं जाने का कारण पूछे जाने पर उनका जवाब आता है, ‘स्कूल तो तब जाएंगे जब स्कूल नाम की कोई चीज होगी.’

दरअसल राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के अंदर रहने वाले जितने भी गूजर परिवार हैं, उनके बच्चों के लिए एक भी सरकारी स्कूल इस इलाके में नहीं है. हालांकि स्वयंसेवी संस्था रूलक द्वारा मोहंड में जरूर एक जूनियर हाई स्कूल खोला गया है, लेकिन सभी गूजर परिवारों के लिए वहां तक पहुंच पाना संभव नहीं है. यही वजह है कि गूजरों की यह सबसे नई पीढ़ी भी अभी तक अनपढ़ ही है. इस स्कूल के प्रधानाचार्य नौशाद मोहम्मद कहते हैं, ‘वन गूजरों के जो परिवार राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के बहुत अंदर स्थित डेरों में रहते हैं उनके बच्चों का स्कूल में पहुंच पाना तब तक असंभव है जब तक कि इन परिवारों को पार्क से बाहर नहीं बसाया जाता.’ इस इलाके के वन गूजरों के एक नेता इरशान कहते हैं, ‘अगर वक्त पर हमारा भी पुनर्वास कर दिया जाता तो हमारी यह नई पीढ़ी कुछ पढ़ लिख लेती, लेकिन मालिक जाने ऐसा कब हो सकेगा.’

हरिद्वार शहर से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर पथरी नाम की एक जगह है. वन गूजरों के 512 परिवारों को पुनर्वास योजना के तहत यहीं बसाया गया है. इस इलाके में जाते ही वन गूजरों के रहन-सहन की एक दूसरी ही तस्वीर नजर आती है. जंगलों में बने वन गूजरों के घरों के मुकाबले अच्छी तरह व्यवस्थित और ठीक-ठाक सफाई वाले यहां के घरों में अलग-अलग कामकाज में व्यस्त पुरुष और महिलाओं को देख कर ऊर्जा से लबाबल एक हलचल इस पूरी बस्ती में साफ नजर आती है. गूजर बस्ती के शुरू होते ही प्राइमरी स्कूल और जूनियर हाईस्कूल की इमारतें दिखती हैं जिन पर ‘शिक्षार्थ आइए’ और ‘विद्या धनं सर्वधनम् प्रधानम्’ के नारे लिखे हुए हैं. यहां के प्रधान गुलाम मुस्तफा बताते हैं कि उनकी बस्ती के दो बच्चे इन स्कूलों से निकल कर इंजीनियरिंग का कोर्स कर रहे हैं. खुद मुस्तफा की दो बेटियां इन स्कूलों से पढ़ कर इसी बस्ती के स्कूलों में अध्यापक बन चुकी हैं. वे कहते हैं, ‘वन गूजरों को अब समझ में आने लगा है कि बेहतर जीवनस्तर के लिए शिक्षा की अहमियत कितनी है.’ इस बस्ती में वन गूजरों को बसाने के वक्त गूजरों के प्रत्येक परिवार को खेती के लिए अलग से दो-दो हेक्टेयर जमीन भी दी गई थी. इस जमीन में गन्ना और मक्का जैसी नकदी फसलें उगाकर ये गूजर अपनी आमदनी के स्रोतों में भी इजाफा कर चुके हैं. चिलचिलाती धूप के बावजूद अपने खेत में हल चला रहे 55 साल के गूजर इमरान कहते हैं, जंगलों में रहते तो सिर्फ दूध ही बेच रहे होते, लेकिन अब हमारे पास रोजगार के कई और विकल्प भी हैं.

जिनका पुनर्वास हुआ है उनकी जिंदगी थोड़ी बेहतर हुई है. खेती के लिए मिली जमीन और स्कूल जैसी सुविधाओं ने कुछ हद तक उनका जीवन बदला है

हालांकि गूजरों को बसाने का यह काम भी कई अनियमितताओं से भरा रहा है. पथरी में उनके लिए बनाये गए मकानों, शौचालयों और कैटल शैडों के निर्माण तक में भारी गड़बड़ियां उजागर हो चुकी हैं. पथरी में उन्हें बसाये जाने की बाबत गूजरों से किसी भी तरह की सहमति नहीं ली गई थी. इसके अलावा सुरक्षा की दृष्टि से कई बातों को नजरंदाज किए जाने की बातें भी सामने आई थीं. अवधेश कौशल कहते हैं, ‘तब इस जमीन के दलदली होने की बात भी हुई थी, लेकिन सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया.’ इसी जमीन पर 2006 में गूजरों के साथ ही उनके पशुओं के लिए अस्पताल बनाया गया था. बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका यह अस्पताल इस जमीन के दलदली होने की पुष्टि कर चुका है. गुलाम मुस्तफा बताते हैं, ‘इस बिल्डिंग में बैठने के लिए कोई भी डॉक्टर तैयार नहीं हुआ क्योंकि सभी जानते थे कि यह कभी भी धंस सकती है.’ इसके अलावा पुनर्वास योजना के तहत गूजरों के लिए बनाए जाने वाले शौचालयों, तथा कैटल शैडों का भी अभी शत-प्रतिशत आवंटन होना बाकी है. इस सबसे बड़ी बात यह है कि इन गूजरों को पुनर्वासित किए जाने के इतने सालों के बाद भी जमीन पर इन्हें मालिकाना हक अभी तक नहीं दिया गया है. गुलाम मुस्तफा कहते हैं, ‘हमें आवंटित की गई जमीनों के पट्टे जब तक हमारे नाम नहीं किए जाते तब तक हमारे मन में कई तरह की शंकाएं बनी रहेंगी.’

लेकिन राजाजी उद्यान के जंगलों में रहने वाले गूजरों के मुकाबले देखा जाए तो इतनी सारी दिक्कतों के बाद भी यह बस्ती हर नजरिए से उनसे बीस है. इस बात को स्वीकार करते हुए यहां के कई लोग मानते हैं कि जंगल से बाहर आकर यहां बसना उनके जीवन की दशा और दिशा को बदलने वाला कदम रहा है.

गूजरों के जीवन स्तर की इन दो तस्वीरों का सूरतेहाल समझने के बाद इस बात की पड़ताल जरूरी हो जाती है कि आखिर ऐसी कौन-सी वजहें हैं कि पुनर्वास का लाभ सभी गूजरों के हिस्से में नहीं आ पाया. इस सवाल का जवाब समझने के लिए गूजरों के वनों में रहने से लेकर उन्हें वनों से बाहर बसाने तक के घटनाक्रम पर एक सरसरी नजर डालना जरूरी है.

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