मुद्दों की लड़ाई से दूर पत्रकार यूनियन

P&C-11July2पिछले दिनों एक मीडिया समूह ने 50 पत्रकार और गैर-पत्रकार कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया. मीडिया समूहों के लिए यह कोई नई बात नहीं थी. इससे पहले भी अलग-अलग संस्थानों से कभी 150 तो कभी 350 लोगों को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है. वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट के अंतर्गत काम के छह घंटे जैसी बातें मीडिया हाउसेज में भुलाकर आठ घंटे से लेकर असीमित घंटों में तब्दील हो चुकी हैं. ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि पत्रकारों के लिए बनी यूनियनें और प्रेस क्लब पत्रकारों के हित के लिए क्या कर रही हैं? सवाल इसलिए भी खड़े हो रहे हैं क्योंकि पत्रकार यूनियनें अपने वर्ग के हित की लड़ाई छोड़कर बस में किराया नहीं लगे, मकान के लिए प्लॉट आवंटित हों आदि मुद्दों पर जोर देने लगी हैं.

इसके बारे में बृहन मुंबई जर्नलिस्ट यूनियन के महासचिव एमजे पांडेय कहते हैं, ‘दरअसल 1980 के अंतिम वर्षों में नियमित रोजगार की जगह कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम लाया जा रहा था तब टाइम्स समूह के सभी अखबारों के लोगों ने इसका बहुत जोरदार विरोध किया था लेकिन शीर्ष पर बैठे संपादकों और हमारे बीच के कुछ पत्रकारों ने कुछ प्रमोशन और इंक्रीमेंट के लालच में उनका साथ दिया और दिन-रात एक करके अखबार निकाले. मेरी समझ में एक बात आज तक नहीं आई कि टाइम्स ग्रुप ने इस दौरान एक नया अखबार क्यों शुरू किया और फिर साल-डेढ़ साल चलाकर क्यों बंद कर दिया? ‘द इंडीपेंडेंट’ नाम के इस अखबार में सिर्फ और सिर्फ कॉन्ट्रैक्ट पर हस्ताक्षर करने वाले लोगों को रखा गया था. इस अखबार के संपादक विनोद मेहता थे. कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम लागू हो जाने की वजह से यूनियन के हाथ में ज्यादा कुछ नहीं रह गया. एक बात और है कि न्याय व्यवस्था में आप किसी लड़ाई को लेकर जाते हैं तो वहां 20-22 साल फैसले के लिए इंतजार करना पड़ता है.

एक पत्रकार को देश की सबसे बड़ी न्यूज एजेंसी से 1993 में नौकरी से बाहर कर दिया गया था. मामला आजतक अदालत में चल रहा है. यह सच है कि कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम के आने से पत्रकार यूनियनें कमजोर तो हुई हैं लेकिन धीरे-धीरे उसके भीतर भी खामियों का टीला सा खड़ा होता चला गया. इस बारे में दिल्ली जर्नलिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष अनिल पांडेय कहते हैं, ‘पत्रकारों के लिए बनी यूनियनों में ही बहुत भ्रष्टाचार व्याप्त है. उनके पदाधिकारी अपने लिए फेलोशिप जुगाड़ने में या फिर नेताओं से संपर्क साधकर पैसा कमाने में लगे हैं. आखिर क्या वजह है कि यूनियन में एक ही व्यक्ति तीन दशक से अध्यक्ष के पद पर बने हुए हैं?’

गौरतलब है कि के. विक्रम राव पिछले 31 सालों से इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट (आईएफडब्ल्यूजे) के अध्यक्ष हैं  और लगभग एक दशक से  परमानन्द पांडेय इस यूनियन के महासचिव हैं. क्या आपकी यूनियन में प्रतिनिधियों के चयन के लिए कोई चुनाव नहीं होते हैं? इस सवाल के जवाब में  परमानन्द कहते हैं, ‘हमारे यहां ढाई साल में चुनाव होता है. हमारी यूनियन में प्रतिनिधियों के चुनाव के लिए हाल ही में चुनाव हुए हैं. के. विक्रम राव हर बार र्निविरोध चुने जाते हैं. उनके खिलाफ कोई चुनाव में खड़ा ही नहीं होता है.’  हालांकि इस संगठन से अलग हो चुके जयपुर के श्रमजीवी पत्रकार संघ में शीर्ष अधिकारी रह चुके एक वरिष्ठ पत्रकार ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि असल में आइएफडब्ल्यूजे राज्यों की अपनी इकाई को सेमिनार की इजाजत देती है और उसके बदले में पैसे वसूलती है. यही वजह है कि इस संगठन के शीर्ष अधिकारी दूसरों की हाथों में यूनियन की बागडोर नहीं जाने देना चाहते हैं. वे बताते हैं, ‘यूनियन का एक शीर्ष अधिकारी मजीठिया की सिफारिशों को लागू करवाने के लिए मोर्चा ले रहे पत्रकारों की कानूनी लड़ रहे हैं. वे हर पत्रकार से दस-दस हजार रुपये बतौर फीस ले रहे हैं. मुझे यह समझ नहीं आता है कि आप खुद पत्रकार रहे हैं. आप एक पत्रकार यूनियन के शीर्ष अधिकारी हैं फिर आप इतनी फीस कैसे ले सकते हैं?’

हकीकत यह है कि लड़ाई को नेतृत्व देने का खामियाजा उठाना पड़ता है, सो पत्रकार यूनियन से जुड़े लोगों को भी इसका खामियाजा उठाना पड़ा है. इंडियन एक्सप्रेस समूह की यूनियन से जुड़े रहे पत्रकार और गैर-पत्रकार यूनियन के सदस्य रहे वरिष्ठ पत्रकार सत्येंद्र रंजन ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा, ‘बछावत समिति की रिपोर्ट को लागू करने के लिए हम लड़ रहे थे तब उस वक्त जनसत्ता के संपादक हमारी एकता को कमजोर करने के लिए लोगों को प्रमोशन देने से लेकर नौकरी से निकालने तक की धमकी दे रहे थे.’ वहीं दूसरी ओर ब्रह्मानंद पांडेय को ‘जनसत्ता’ से इसलिए निकाला गया था क्योंकि वे बोनस की लड़ाई लड़ रहे थे. बोनस की मांग को लेकर हड़ताल दो महीने खिंच गया था. आईएफडब्ल्यूजे के महासचिव ब्रह्मानंद पांडेय उस मंजर को याद करते हुए बताते हैं, ‘1987 में मैं जनसत्ता में बोनस की लड़ाई का नेतृत्व कर रहा था. जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी और इंडियन एक्सप्रेस के संपादक अरुण शौरी ने लड़ाई को तोड़ने की हरसंभव कोशिश की. हड़ताल तोड़ने के लिए गुंडे तक बुलाए गए थे और मैं नौकरी से निकाल दिया गया.’

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