भारतीय संस्कृति और दर्शन का एक सूत्र-वाक्य है ‘नेति-नेति’, जिसका अर्थ होता है यह भी नहीं वह भी नहीं. अर्थात भारतीय समाज प्रकृति से प्रयोगधर्मी और विमर्शात्मक है. संक्षेप में शास्त्रार्थ हमारी सभ्यताई परंपरा है, इसलिए प्रयोगधर्मिता और विमर्शात्मकता बनी रहनी चाहिए और इस पर चोट करने वाली किसी भी ताकत और विचारधारा को परास्त किया जाना चाहिए. तभी तो नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के संदिग्ध अपराधियों, जिनका संबंध कथित रूप से सनातन संस्था से है, को जब पकड़ा गया तब कोई भी उनके बचाव में सामने नहीं आया. जब उनकी हत्या हुई, तब महाराष्ट्र और केंद्र में कांग्रेस की सरकारें थीं और जब अपराधी पकड़े गए तब भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं. इस देश के लोगों का मानवीय सरोकार कितना मजबूत है इसका प्रमाण इस बात से मिला कि पूरे देश ने एक स्वर में प्रो. कलबुर्गी और दादरी घटना की निंदा की. लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि इन घटनाओं को सिर्फ इन बातों से नजरअंदाज कर दिया जाए. हमारी कोशिश होनी चाहिए कि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो.
लेकिन इन घटनाओं की आड़ में कुछ साहित्यकारों के द्वारा अवार्ड लौटाने की मुहिम कितनी उचित है, यह विचारणीय प्रश्न है. विरोध प्रकट करना और विरोध प्रकट करने की प्रकृति निश्चित रूप से किसी का निजी और मौलिक अधिकार होता है. अतः साहित्यकारों के विरोध प्रकट करने के अधिकार पर सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता. सवाल विरोध प्रकट करने की नीयत का है. कलबुर्गी की हत्या या दादरी की घटना से अगर कुछ साहित्यकार विचलित हुए हैं तो यह अस्वाभाविक नहीं है, लेकिन स्थानीय मुद्दे को राष्ट्रीय मुद्दा बना देना और अपराध को वैचारिक रंग दे देना ऐसे साहित्यकारों की नीयत पर सीधा सवाल खड़ा करता है. क्या अवार्ड लौटाना ही इन घटनाओं से लड़ने का एकमात्र रास्ता है?
सच्चाई यह है कि एक विशिष्ट विचारधारा ने समाजशास्त्र और साहित्य के क्षेत्र में अपना आधिपत्य पिछले साठ सालों से बनाए रखा है और इस आधिपत्य ने विमर्श को सर्वसमावेशी नहीं बनने दिया और संस्थाओं पर अपना एकाधिकार बनाए रखा, जिसके कारण वैकल्पिक विचारधाराएं सिर्फ पीड़ित ही नहीं हुईं बल्कि स्वतंत्र सोच और मेधा के लोग भी या तो उनके दासत्व को स्वीकार करने के लिए बाध्य हुए अथवा हाशिये पर भेज दिए गए. क्या कोई कल्पना कर सकता है कि 70-80 के दशकों में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में संघ की विचारधारा का प्रतिपादन करने वाला व्यक्ति वहां सफल शोधार्थी या शिक्षक हो सकता था? वैसे ही साहित्य के क्षेत्र में ट्रेड यूनियन की राजनीति किसने शुरू की? जिन तीन संगठनों ने अपना इस क्षेत्र में आधिपत्य बनाए रखा वे तीनों भारत की तीन कम्युनिस्ट पार्टियों से जुड़े हुए हैं. ये हैं प्रगतिशील लेखक संघ (जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ा है), जनवादी लेखक संघ (जो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ा है) और जन संस्कृति मंच (जो मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा से संबद्ध है). क्या यह महज संयोग है कि पुरस्कार लौटाने की मुहिम जिस व्यक्ति उदय प्रकाश ने शुरू की, वे 16 वर्षों तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहे हैं और प्रगतिशील लेखक संघ से 22 वर्षों तक जुड़े रहे हैं. उनकी कार्रवाई के बाद बाकी दोनों वामपंथी संगठनों में होड़ मच गई और जन संस्कृति मंच के मंगलेश डबराल और राजेश जोशी मैदान में कूद गए. बड़ी तादाद में जिन साहित्यकारों ने अवार्ड लौटाया है वे सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) से जुड़े हैं. सहमत की वैचारिक पहचान से पूरी दुनिया वाकिफ है. निश्चित तौर पर इस क्रम में कुछ ऐसे साहित्यकार भी सामने आए जिनका इन संगठनों से संबंध नहीं है और वे इन वामपंथियों के द्वारा बनाए गए माहौल के शिकार हो गए.
कलबुर्गी की हत्या पर संवेदना और दर्द पूरे देश को है, लेकिन जो लोग संवेदना और दर्द की बात कर आज मुहिम चला रहे हैं उनको आईने में अपने आप को देखना पड़ेगा. उन्होंने न सिर्फ राष्ट्रवादी साहित्यकारों को हाशिये पर डाला व उनका दमन किया, बल्कि उनका समय-समय पर उपहास किया. इस संदर्भ में दो नाम उल्लेखनीय हैं- नरेंद्र कोहली और कमल किशोर गोयनका. इसकी सूची लंबी है. यही नहीं, उनसे असहमत रहने वाले वामपंथी साहित्यकारों को भी स्टालिनवादी दमन का सामना करना पड़ा. हिंदी साहित्य में त्रिलोचन जी एक बड़ा नाम हैं. उनका घोर अपमान और दमन इस हद तक किया गया कि उन्हें दिल्ली शहर छोड़ना पड़ा. रामविलास शर्मा के साथ क्या व्यवहार किया गया, यह किसी से छिपा नहीं है. संवेदना के प्रति ये कितने जागरुक हैं, इसका उदाहरण अवार्ड लौटाने वाले अशोक वाजपेयी का वह कथन है, जो उन्होंने भोपाल में यूनियन कार्बाइड की गैस त्रासदी के बाद कहा था. तब हजारों लोग मारे गए थे. उस वक्त वाजपेयी अंतर्राष्ट्रीय कविता सम्मेलन करा रहे थे. संवेदनशील लोगों ने उसे स्थगित करने की अपील की तो वाजपेयी ने कहा, ‘मुर्दों के साथ रचनाकार नहीं मरते.’ जिस सफदर हाशमी की हत्या कांग्रेस शासन में खुलेआम हुई वही ‘सहमत’ कांग्रेस सरकार से लाखों का अनुदान लेता रहा.