09 फरवरी 2010, के दिन अलीगढ़ की सुबह हर दिन की तरह सामान्य नहीं थी. ठंड के मौसम में माहौल में अजीब सी कड़वाहट घुली हुई थी. इसकी वजह विभिन्न अखबारों में प्रकाशित एक खबर थी, जो लोगों के बीच चर्चा का विषय बनी हुई थी. ये चर्चा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के एक प्रोफेसर से जुड़ी हुई थी, जिससे जुड़े एक स्टिंग ऑपरेशन की खबर अखबारों में प्रकाशित होने के साथ ही लोकल और राष्ट्रीय चैनलों पर जोर-शोर से चलाई जा रही थी. स्टिंग ऑपरेशन में उस प्रोफेसर द्वारा एक रिक्शा चालक से समलैंगिक संबंध बनाने का दावा किया गया था. इस ऑपरेशन को एक दिन पहले ही स्थानीय टीवी चैनल के दो पत्रकारों ने देर रात जबरदस्ती उनके किराये के घर में घुसकर अंजाम दिया था.
ये कहानी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रो. श्रीनिवास रामचंद्र सिरास की है, जिन्होंने अपने नागपुर स्थित घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर अलीगढ़ शहर को आजीविका के लिए अपना बनाया था. हालांकि इस शहर में दो दशक गुजार देने के बाद साल 2010 के फरवरी माह के बाद से अचानक ये शहर उनके लिए अजनबी हो जाता है. एक रिक्शा चालक से समलैंगिक संबंध होने की खबर फैलते ही विश्वविद्यालय प्रबंधन ने अपनी छवि खराब होने का हवाला देते हुए उन्हें निलंबित कर दिया. उस समय विश्वविद्यालय परिसर के साथ ही शहर के लोगों में सामाजिक ताने-बाने को नुकसान के साथ संस्कृति को ठेस पहुंचाने के लिए प्रो. सिरास को जिम्मेदार ठहराने की बहस छिड़ गई और यह बात कहीं पीछे छूट गई कि उस स्टिंग ऑपरेशन की वजह से किसी की निजता के अधिकार को बेरहमी से कुचल दिया गया था.
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धारा 377 बनाम समलैंगिकता
इसी महीने की दो तारीख को सुप्रीम कोर्ट समलैंगिक रिश्तों को अपराध बताने वाली आईपीसी की धारा 377 के खिलाफ दायर सभी आठ सुधारात्मक याचिकाओं पर सुनवाई करने को राजी हो गया है. कोर्ट ने इस मामले को पांच सदस्यीय संविधान पीठ को सौंप दिया है. शीर्ष अदालत के 11 दिसंबर, 2013 के फैसले और पुनर्विचार याचिका पर फिर से गौर करने के लिए ये याचिकाएं दायर की गई हैं. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड सहिता की धारा 377 के तहत समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने संबंधी दिल्ली हाईकोर्ट का निर्णय निरस्त कर दिया था. 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने आईपीसी की धारा 377 के तहत समलैंगिकता को अपराधमुक्त कर दिया था, लेकिन शीर्ष अदालत ने फैसला पलटते हुए धारा 377 बरकरार रखा था. आईपीसी की धारा 377 के अनुसार अगर कोई व्यस्क स्वेच्छा से किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित करता है तो वह आजीवन कारावास या 10 वर्ष और जुर्माने से भी दंडित हो सकता है. औपनिवेशिक काल के दौरान 1860 में इस धारा को अंग्रेजों द्वारा भारतीय दंड संहिता में शामिल किया गया था. उस वक्त इसे ईसाई धर्म में भी अनैतिक माना जाता था. 1967 में ब्रिटेन ने भी समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता दे दी है और भारत में अब भी ये कानून बरकरार है.
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प्रो. सिरास की कहानी का अंत उनकी मौत से होता है, जिस पर आज भी रहस्य का पर्दा पड़ा हुआ. संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी लाश उनके किराये के कमरे में मिलती है. उनकी मौत किन वजहों से हुई ये सवाल आज भी उसी तरह बरकरार है. उस वक्त वह 64 साल के थे और अगले छह महीनों में रिटायर होने वाले थे. तमाम लोग जहां इसे आत्महत्या मानते हैं वहीं दबी जुबान कुछ लोग इसे हत्या भी मानते हैं. अब इस घटना के छह साल बाद एक फिल्म रिलीज को तैयार है, जिसे बॉलीवुड को ‘शाहिद’ और ‘सिटीलाइट्स’ जैसी फिल्म देने वाले हंसल मेहता ने बनाई है. ‘अलीगढ़’ नाम की इस फिल्म ने प्रो. सिरास को एक बार फिर से जीवंत कर दिया है. फिल्म ने एक बार फिर समलैंगिक संबंधों और एलजीबीटी समुदाय के अधिकारों पर देश में बहस छेड़ दी. ये उस शख्स की कहानी है जो अलीगढ़ शहर की लाखों की भीड़ में तन्हा था. एकाकीपन जिनका स्वभाव था और यौन इच्छा ऐसी थी जो आज भी भारतीय समाज में सामान्य नहीं मानी जाती है.
[ilink url=”http://tehelkahindi.com/i-never-met-prof-siras-but-the-way-manoj-bajpai-acted-i-think-siras-was-like-that-says-deepu-whose-role-is-playing-by-actor-rajkumar-rao-in-aligarh-movie/” style=”tick”]वह पत्रकार, जिनकी भूमिका फिल्म अलीगढ़ में राजकुमार राव निभा रहे हैं[/ilink]
प्रो. सिरास एक भाषाविद और कवि थे जो नागपुर के एक संपन्न परिवार से ताल्लुक रखते थे. नागपुर विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान और भाषाशास्त्र की पढ़ाई की थी. उन्होंने मनोविज्ञान विषय से परास्नातक किया और मराठी भाषा में डॉक्टरेट की उपाधि ली. 1998 में वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में भाषाशास्त्र के प्रोफेसर चुन लिए गए. ज्यादातर उर्दू लहजे में बात करने वाले इस शहर में वह मराठी पढ़ाते थे. उन्हें अलीगढ़ से लगाव भी था. अपने साथ हुई घटना के बाद एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘मैं बहुत सौभाग्यशाली हूं कि मैं अलीगढ़ आया. यहां मुझे आदर और सम्मान मिला. अगर मैं महाराष्ट्र में होता तो मैं मराठी का एक साधारण शिक्षक होता, जबकि विश्वविद्यालय में
मैं मराठी का एकमात्र शिक्षक हूं.’ विश्वविद्यालय में वह डिपार्टमेंट ऑफ मॉडर्न इंडियन लैंग्वेजेज के अध्यक्ष थे. इसके अलावा वह मराठी भाषा के एक ख्यात साहित्यकार भी थे. साल 2002 में अपने काव्य संग्रह ‘पाया खालची हिरावल’ (मेरे पैरों तले की घास) के लिए उन्हें महाराष्ट्र साहित्य परिषद सम्मान दिया गया था. प्रो. सिरास समलैंगिक थे, लेकिन इसे किसी पर जाहिर नहीं होने देते थे. हालांकि उनके साथ जो कुछ भी हुआ उससे इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया सकता है कि जिस बात को वे जाहिर नहीं करना चाहते थे उसके बारे में कुछ लोगों को भनक लग चुकी थी.
नागपुर में ही उनकी शादी तलाक पर आकर खत्म हो गई थी. उन्हें जानने वाले बताते हैं कि वह नितांत निजी व्यक्ति थे. ज्यादातर अकेले नजर आते थे. उनका कोई दोस्त भी नहीं था. एनडीटीवी को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘मैं इस शहर में अकेला रहता हूं, जो कुछ भी हुआ उसके बाद से मैं बहुत ही शर्मिंदा महसूस कर रहा हूं, क्योंकि इससे पहले तक कोई भी मुझे नहीं जानता था. ये मेरा निजी जीवन था, जिसे उन लोगों ने सार्वजनिक कर दिया. मेरी निजता में अतिक्रमण किया गया है और मेरे मानवाधिकार का उल्लंघन किया गया है. इस घटना से मैं नाराज नहीं हुआ. इसे मैंने इस तरह से देखा कि किसी ने मेरे खिलाफ साजिश की है और यह राजनीति से प्रेरित है.’ स्टिंग ऑपरेशन के बाद उन्हें विश्वविद्यालय के अंदर मिला फ्लैट छोड़ना पड़ा था. दूसरे फ्लैट के लिए उन्हें दर दर भटकना पड़ा. उस वक्त बहुत कम लोग थे जो उनके साथ खड़े हुए थे. इन्हीं लोगों के सहारे उन्होंने विश्वविद्यालय प्रबंधन के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था.
‘मैंने फैसला कर लिया है, मैं समलैंगिक समुदाय के लिए काम करना चाहता हूं. मैं अमेरिका जाना चाहता हूं. सिर्फ अमेरिका ही ऐसी जगह है, जहां मैं समलैंगिक होने के लिए पूरी तरह से आजाद होऊंगा.’ ये बात प्रो. सिरास ने एक पत्रकार दीपू सेबेस्टियन एडमंड से कही थी, जो उस वक्त ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ अखबार में काम करते थे. एक अप्रैल 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एएमयू से उनके निलंबन को रद्द कर उनकी बहाली का आदेश दिया था, जिसके बाद पांच अप्रैल को दीपू ने उनका टेलीफोनिक इंटरव्यू किया था. फिल्म ‘अलीगढ़’ में एडमंड का किरदार राजकुमार राव निभा रहे हैं.
एक अप्रैल 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद विश्वविद्यालय में वापस बहाल होने पर वह काफी खुश भी थे, लेकिन लोगों के व्यवहार से वह परेशान भी नजर आ रहे थे. मीडिया से बातचीत में उन्होंने कहा था, ‘मैंने यहां दो दशक गुजार दिए. मैं अपने विश्वविद्यालय से प्यार करता हूं. मैंने हमेशा इससे प्यार किया है और आगे भी ऐसा ही करूंगा, लेकिन मैं हैरान हूं कि लोग
मुझसे नफरत करने लगे हैं, क्योंकि मैं समलैंगिक हूं.’ एक न्यूज चैनल से बातचीत में उन्होंने कहा था, ‘उस घटना के बाद लोग मुझे अजीब तरह से देखते हैं. मेरे पड़ोस मे रहने वाली एक डॉक्टर बीमार होने पर मुझे अक्सर दवाइयां आदि दिया करती थीं, लेकिन घटना के बाद से जब मैं अपना बीपी चेक कराने के लिए उनके पास गया तो उन्होंने बताया कि बीपी चेक करने वाली मशीन टूट गई है.’
कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, पक्ष में फैसला आने के बाद वह पांच अप्रैल 2010 को कैंपस गए भी थे, लेकिन उनकी बहाली के लिए जारी हुआ आधिकारिक पत्र उन्हें नहीं मिला था. इसके बाद सात अप्रैल को उनका शव उनके किराये के कमरे में पाया जाता है. यह पत्र उनके दफ्तर में उनकी मौत के बाद पहुंचता है. पुलिस ने पहले इसे आत्महत्या का केस माना था. पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में उनके शरीर में जहर के अंश मिले थे. मामले में केस दर्ज करने के बाद पुलिस ने छह से सात संदिग्धों को गिरफ्तार किया था. 19 अप्रैल को तत्कालीन एसपी ने बताया था कि मामले में तीन पत्रकारों और एएमयू के चार आधिकारियों के नाम आए हैं. बाद में इस मामले को बंद करना पड़ा, क्योंकि पुलिस के हाथ पर्याप्त सबूत नहीं लग सके.
कुछ मीडिया रिपोर्ट्स कहती हैं कि उनकी मौत पर रहस्य अब भी बरकरार है. रहस्य इस बात का कि उनका मोबाइल कमरे से गायब था. मौत से समय के असपास ही किसी ने उनके एटीएम कार्ड का इस्तेमाल किया था. मोबाइल कौन ले गया? एटीएम कार्ड का इस्तेमाल किसने किया? ऐसे तमाम सवालों के जवाब अब तक नहीं मिल सके हैं. इतना ही नहीं जिस कमरे में उनकी लाश मिली उसमें दरवाजा अंदर से बंद था. वहीं मुख्य दरवाजा बाहर से बंद था. उन्हें विश्वविद्यालय में बहाल कर दिया गया था और समलैंगिक लोगों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले संगठनों का उन्हें साथ भी मिल रहा था, ऐसे में खुद को खत्म करने जैसा कदम उठाना संहेद पैदा करता है. क्या उनके खिलाफ ये स्टिंग आॅपरेशन किसी साजिश के तहत किया गया था? 14 अप्रैल 2010 को यूट्यूब पर हेडलाइंस टुडे (इंडिया टुडे टीवी चैनल) की ओर से अपलोड एक रिपोर्ट में एमएमयू के एक्जिक्यूटिव कमेटी के पूर्व सदस्य आरोप लगाते हैं कि प्रो. सिरास के खिलाफ किए गए स्टिंग ऑपरेशन में तत्कालीन कुलपति का हाथ था. हालांकि इसी रिपोर्ट में कुलपति इस बात का खंडन करते हैं. बहरहाल फिल्म ‘अलीगढ़’ ने प्रो. सिरास और समलैंगिक व्यक्तियों के अधिकारों की बहस को वापस चर्चा में ला दिया है. उधर, सुप्रीम कोर्ट समलैंगिक रिश्तों को अपराध बताने वाली आईपीसी की धारा 377 के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई करने को राजी हो गया है. इससे एलजीबीटी समुदाय काफी आशांवित नजर आ रहा है और इस बात की उम्मीद बढ़ी है कि इस समुदाय से जुड़े किसी भी व्यक्ति को डॉ. सिरास द्वारा झेली गई प्रताड़ना का सामना नहीं करना पड़ेगा.
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मेरी समझ में नहीं आता कि सिरास खुदकुशी क्यों करेंगे: प्रो. तारिक इस्लाम
सिरास मेरे दोस्त नहीं थे. मैं उन्हें एक परिचित कहूंगा. जितना मैं उन्हें जानता हूं, उनका कोई दोस्त नहीं था. वे तन्हा रहने वाले इंसान थे. बहुत ज्यादा घुलते-मिलते भी नहीं थे, इसका ये मतलब नहीं कि मिलनसार नहीं थे. उनकी जिंदगी बेहद निजी थी.
वे मराठी के प्रोफेसर थे, मराठी भाषा के मशहूर और मराठी साहित्य के अच्छे जानकार. ज्यादातर समय पढ़ने-लिखने में गुजरते थे. मध्य नागपुर में उनके पुरखों का बड़ा घर है हालांकि अब वहां शॉपिंग मॉल बन गए हैं. उनके तीन भाई हैं. मैं उन्हें उनके डिपार्टमेंट में मलयालम भाषा के एक प्रोफेसर प्रो. सतीशन की वजह से जानता हूं. 1998 में संपत्ति को लेकर उनका एक भाई से विवाद हो गया था. उनके भाई ने अपनी पहुंच का इस्तेमाल कर यहां वाइस चांसलर से इन्हें निलंबित करा दिया था. इसके बाद सतीशन उन्हें मेरे पास लेकर आए थे. तब मैं सिरास का डिफेंस असिस्टेंट बना था. इसके बाद कभी मुलाकात होती तो हमारे बीच बातचीत हो जाया करती थी.
जिस दिन दो रिपोर्टर उनके घर में घुस गए थे उस रात सतीशन ने ही मुझे फोन कर घटना की जानकारी दी थी. मैंने फिर सिरास को फोन कर कहा था कि हम सब आपके साथ हैं और परेशान होने की जरूरत नहीं. उस घटना के बाद मुझसे जो कुछ भी हो सकता था, मैंने किया. जैसे- एलजीबीटी संगठनों से संपर्क करना, अखबारों के लिए रिपोर्ट तैयार करवाना, सिरास को इस बात के लिए सिरास को तैयार करना कि वे अपने अधिकारों के लिए हाईकोर्ट में अपील करें. इससे पहले मुझे तो ये भी नहीं पता था कि वे समलैंगिक हैं, हालांकि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता. मेरे ख्याल से एएमयू में इस बात का अंदाजा किसी को नहीं था.
बहरहाल उस घटना के अगले दिन मैंने लोगों से मालूमात की थी. पता चला कि कुछ दिनों से इनके खिलाफ शिकायतें मिल रही थीं. एएमयू प्रबंधन का कहना था कि विश्वविद्यालय की मेडिकल कॉलोनी में, जहां सिरास रहते थे वहां के लोगों ने शिकायत की थी कि एक रिक्शेवाला काफी देेर तक उनके यहां रुका रहता था. 1981 में एएमयू ने अपनी एलआईयू (लोकल इंटेलीजेंस यूनिट) बनाई थी. मुझे नहीं मालूम कि ऐसी कोई व्यवस्था देश के दूसरे विश्वविद्यालयों में है. मैं एक आरटीआई एक्टिविस्ट भी हूं तो एक जमाने में मैंने इसका काफी विरोध भी किया था. किसी भी कैंपस के लिए यह ठीक नहीं है.
बहरहाल, मुझे जो जानकारी मिली वो ये थी कि जब सिरास के बारे में शिकायत मिली तो उन पर नजर रखने के लिए एलआईयू के लोग उनके घर के पास तैनात किए गए थे. मुझ पर भी एलआईयू की नजर थी. सिरास को लेकर मेरे घर में दो बार मीटिंग हुई तो इस बात की रिपोर्ट एएमयू प्रबंधन तक पहुंच गई थी. अब सवाल ये है कि जब दो रिपोर्टर सिरास के घर में घुसकर जबरदस्ती ‘शूट’ करने लगे तो एलआईयू ने उन्हें रोका क्यों नहीं? घटना के बाद एलआईयू ने तुरंत प्रॉक्टर को फोन किया और संयोग से प्रॉक्टर और पीआर ऑफिसर सिरास के घर के पास ही एक गेस्ट हाउस में खाना खा रहे थे. ये भी असामान्य बात है, क्योंकि दोनों के घर नजदीक थे तो वे गेस्ट हाउस में खाना क्यों खा रहे थे. तब दोनों ने बताया था कि उनका कोई मेहमान आया था कि इसलिए वहां पर थे. लेकिन जहां तक मुझे मालूम है प्राॅक्टर और पीआर ऑफिसर के काम अलग-अलग होते हैं. उनका एक साथ होना, थोड़ा अजीब लगता है. खैर, इन दोनों के सिरास के घर पहुंचने के बाद दो या तीन फैकल्टी मेंबर और पहुंच गए. जिसमें से एक का घर दूर था और दूसरे का कैंपस में ही था. उनका भी तुरंत पहुंचना अजीब था. अगर एलआईयू को सिरास के इस गतिविधि की जानकारी थी तो उसने प्रबंधन को क्यों नहीं बताया? दोनों रिपोर्टर को ये जानकारी कहां से मिली?
सिरास ने मुझको एक बात बताई थी कि शुरू में जब वे उस घर आए थे तो उनका दरवाजा अक्सर खुला रहता था. क्योंकि उनका परिवार नहीं था और घर में किताबों के अलावा कुछ नहीं था. मैंने उन्हें सलाह दी थी कि आप बंद रखा कीजिए उसके बाद से वो अपना घर बंद ही रखते थे. फिर उस रोज दरवाजा कैसे खुला रह गया? इसके अलावा दरवाजे का ‘फिश आई लेंस’ आसानी से निकला जा सकता था. वहां से सीधा उनका बरामदा दिखता था. बेडरूम में सीधा नहीं देखा जा सकता था. एक बात और सिरास और रिक्शेवाले ने मुझे बताया था कि कोई सेक्सुअल एक्टिविटी नहीं हो रही थी. सिरास ने बताया था कि रिपोर्टर ने पैसे भी मांगे थे, यानी ब्लैकमेल करने की कोशिश की गई थी तो सिरास ने पैसे देने से मना कर दिया था. उन दोनों में से एक एएमयू में ही पढ़ा था.
जितना मैं उन्हें जानता हूं सिरास बहुत ही अच्छे इंसान थे. वो अपनी जिंदगी से खुश थे. जिस दिन उनके पक्ष में फैसला आया वह नागपुर में थे. अगले दिन वह अलीगढ़ पहुंचे. मुझसे मिले और कहा था कि वो बहुत ही खुश हैं. उस दिन वो तकरीबन आधे घंटे तक मेरे साथ थे. फिर उनसे शाम को घर पर मिलने की बात हुई थी. शाम को वे घर भी आए थे और उसी रोज रात के 10 बजे के करीब उनकी मौत की घटना हो जाती है. मेरी ताे आज भी समझ में नहीं आता कि वह खुदकुशी क्यों करेंगे. हालांकि ये व्यक्तित्व का भी मामला है. कोई भी ये सोच सकता है कि अब उसने सब कुछ पा लिया, वह खुश है अब जिंदगी पूरी हुई. ऐसी कई घटनाएं भी हुई हैं इसलिए खुदकुशी की संभावना को मैं दरकिनार नहीं कर सकता.
हालांकि विसरा रिपोर्ट में जहर की पुष्टि हाेती है. जहर या तो खुद खाया जाता है या कोई खिला देता है. नागपुर से जिस दिन वे लौटे थे उसी रात को दीपू से उनकी बात हो रही थी, उस वक्त वह टीवी देख रहे थे. सिरास ने तकरीबन दस मिनट दीपू से बात की होगी और फिर कहा था कि कल बात करूंगा, मुझे नींद आ रही है. मेरे ख्याल से जहर खाना बहुत ही दर्दनाक होता है. कोई जानकार इसको और बेहतर तरीके से बता पाएगा. लेकिन नींद आने का मतलब ये होता है कि जहर काफी सोफिस्टिकेटेड (परिष्कृत) था. सिरास एक दिन पहले ही नागपुर से चले और अगले दिन अलीगढ़ पहुंचे. इस बीच ऐसा जहर मिलना, थोड़ा सा अजीब लगता है. उनकी नागपुर की जो प्रॉपर्टी थी वह बहुत ही प्राइम लोकेशन पर थी. उनके एक भाई ने अपनी संपत्ति बेच दी थी और वहां शॉपिंग कॉम्प्लेक्स बनाना चाहते थे. उसमें सिरास रुकावट बन रहे थे. तो एक एंगल नागपुर का भी है. अब हत्या हुई थी या उन्होंने आत्महत्या की थी, ये बताना मुश्किल है. मेरे ख्याल से इसकी न्यायिक जांच होनी चाहिए. सिरास के साथ जो कुछ भी हुआ हो, लेकिन ये बात है कि हमारे समाज में जो पूर्वाग्रह हैं उनकी वजह से उनकी जान चली गई.
(लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में फिलॉसफी के प्रोफेसर हैं. लेख प्रशांत वर्मा से बातचीत पर आधारित है)
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