फुटबॉल विश्वकप 2014: खिताब का हिसाब

sopan_joshiकोई मुझसे पूछे तो मैं फाइनल में वही दो टीमें देखना चाहूंगा जो 1990 के विश्व कप फाइनल में भिड़ी थीं–जर्मनी और अर्जेंटीना. क्यों? क्योंकि कि वे दुनिया की सबसे अच्छी चार टीमों में से हैं. बाकी दो हैं स्पेन और ब्राजील. जर्मनी और अर्जेंटीना को फाइनल में देखने की मेरी इस इच्छा की एक और वजह भी है. फुटबाल को उसके कर्ता-धर्ता किस तरह चलाते हैं, इस मामले में ये दोनोें देश दुनिया का सबसे बड़ा विरोधाभास हैं. वे इस खेल की दुनिया के दो ध्रुव हैं.

लगभग डेढ़ दशक पहले गर्त में जा चुके जर्मन फुटबाल ने अपनी लय किस तरह वापस पाई यह अब एक मशहूर उदाहरण है. 2000 में यूरोपियन चैंपियनशिप के पहले ही दौर में बाहर होकर जर्मनी फुटबाल में अपने पतन के पाताल में पहुंच गया था. उस पूरे टूर्नामेंट में टीम बस एक ही गोल कर सकी. इसके बाद जर्मन फुटबाल जगत में काफी उथल-पुथल हुई. जर्मनी की फुटबाल एसोसिएशन डायचर फुसबाल बुंड (डीएफबी) में आमूलचूल बदलाव लाए गए. यह इसलिए भी बहुत जरूरी हो गया था कि 2006 का विश्व कप जर्मनी में ही होना था.

तो जर्मनी ने फुटबाल में खुद को संवारने के लिए सरकारी खजाने का मुंह खोल दिया. छोटी-छोटी जगहों पर खेलने के लिए मैदान और दूसरी सुविधाओं की व्यवस्था हुई. युवा प्रशिक्षक तैयार किए गए जिन्होंने युवा प्रतिभाओं को खोजना और तराशना शुरू कर दिया. इसका नतीजा 2010 में दक्षिण अफ्रीका में हुए विश्व कप में दिखा जहां 23 साल के औसत के साथ जर्मनी सबसे नौजवान और आकर्षक टीम थी. इंग्लैंड को 4-1 और अर्जेंटीना को 4-0 के प्रभाशाली अंतर से हराते हुए जर्मनी सेमीफाइनल में पहुंचा जहां उसे भावी चैंपियन स्पेन ने एक रोमांचक मैच में 1-0 से हराया.

फोटो: एएफपी
फोटो: एएफपी

जर्मनी में फुटबाल का ढांचा बाकी जगहों से अलहदा है. इंग्लैंड में होने वाली प्रीमियर लीग नामक लोकप्रिय क्लब फुटबाल सीरीज में आपको अमेरिका, रूस और खाड़ी देशों के मालिक और सैकड़ों करोड़ की बोली लगाकर खरीदे गए विदेशी खिलाड़ी मिलेंगे. लेकिन डीएफबी कॉरपोरेट कंपनियों और विदेशी निवेशकों को फुटबाल क्लब खरीदने की इजाजत नहीं देता. इसलिए वहां के फुटबाल क्लबों पर किसी रोमान अब्राहमोविच या विजय माल्या का नियंत्रण नहीं है. सिर्फ वोल्फबुर्ग और बायर लीफेकुसन जैसे क्लब इसके अपवाद हैं जिन्हें ऑटोमोबाइल कंपनी फोक्सवॉगन और रसायन बाजार के दिग्गज बायर ने बनाया था. हालांकि इन दोनों कंपनियों की भूमिका भी इन क्लबों में एक ट्रस्टी की है. बुंदेसलीगा (जर्मनी में होने वाली फुटबाल लीग) के बाकी दूसरे क्लबों के मालिक स्थानीय सदस्य और समर्थक हैं.

तो कुल मिलाकर जर्मनी ने अपनी फुटबाल में स्थानीय गुणवत्ता और चमक रखी है इसलिए उसकी टीम में भी वहां के समाज जैसी विविधता दिखती है. भले ही विस्फोटक मार्को रोल्स रॉयस घायल हों और विश्व कप में न खेल सकें, लेकिन मारियो गोत्जे, थॉमस म्युलर, मेसुट ओजील और टोनी क्रूस जैसे स्टार और प्रतिभावान खिलाड़ियों से मिलकर बनी मजबूत फौज भला किस दूसरे देश के पास है?

इस सवाल के जवाब में बहुत से लोग अर्जेंटीना का नाम ले सकते हैं. लियोनेल मेसी, सर्जियो एक्वेरो, गोन्जालो हिक्वेन और एंजेल डीमैरिया जैसी प्रतिभाओं के साथ अर्जेंटीना की टीम किसी भी सुरक्षा पंक्ति को भेद सकती है. लेकिन जब बात उसकी अपनी सुरक्षा पंक्ति पर आती है तो यहां वह कमजोर पड़ जाती है. दक्षिण अफ्रीका में हुए पिछले विश्व कप में यह साफ दिखा था. पिछली बार अर्जेंटीना टीम के मैनेजर और दिग्गज डिएगो मैरेडोना ने अपने सबसे अनुभवी और असरदार डिफेंसिव मिडफील्डरों जेवियर जैनेटी और ईस्टबान कैंबियासो को टीम में नहीं लिया था. काफी लोगों ने इस पर हैरानी जताई थी. दरअसल मैरेडोना को लग रहा था कि उनके जादुई स्ट्राइकर ही काफी होंगे. ऐसा नहीं हुआ. शायद ही किसी को ध्यान हो कि 1978 और 86 में अर्जेंटीना के विश्व कप जीतने में डिफेंसिव मिडफील्डर डैनियर पासारेला का भी बहुत अहम योगदान था. ज्यादातर लोग इन विश्व कप विजयों में अर्जेंटीना के शानदार प्रदर्शन के लिए मारियो केंप्स और मैरेडोना को याद करते हैं जिनके गोल अब किंवदंतियों का हिस्सा हैं. लेकिन यह भी सच है कि सुरक्षापंक्ति में अगर पासारेला नहीं होते तो अर्जेंटीना ये दो विश्वकप नहीं जीत सकता था. इस बार अर्जेंटीना की टीम में उन जैसा कोई नहीं है. जैनेटी और कैंबियासो बीती मई में ही रिटायर हो चुके हैं.

देखा जाए तो अर्जेंटीना को फुटबाल का पाकिस्तान कहा जा सकता है. यहां फुटबाल का खेल जिस तरह से चल रहा है उसे देखकर यह सीखा जा सकता है कि किसी लोकप्रिय खेल का प्रशासन किस तरह से नहीं चलाया जाना चाहिए. अर्जेंटीना के फुटबाल प्रशासक जिस तरह काम करते हैं उसे देखकर कोई यह कहेगा कि भारत में बीसीसीआई और पाकिस्तान में पीसीबी तो बहुत अच्छी तरह से चल रहे हैं. बीते एक दशक में अर्जेंटीना में फुटबाल का नियंत्रण अपराधी गैंगों के हाथ में जा चुका है. किसी क्लब ने कोई बड़ा खिलाड़ी खरीदा हो तो कमीशन के रूप में एक रकम उन्हें भी जाती है. स्टेडियम में कितनी सीटें किसको मिलेंगी, यह वे तय करते हैं. कुल मिलाकर माफिया अर्जेंटीना में फुटबाल के माईबाप हैं. जो भी इस स्थिति का विरोध करता है उसे हिंसा झेलनी पड़ती है. उसका खून तक हो जाता है. क्लब समर्थकों के संघ इन अपराधी सिंडीकेटों के बाहुबलियों द्वारा चलाए जाते हैं.

ब्राजील के कई खिलाड़ी घरेलू लीग में भी खेलते हैं. लेकिन अर्जेंटीना में जरा भी प्रतिभा रखने वाले किसी खिलाड़ी के पास देश छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. जब यूरोप के अलग-अलग क्लबों में खेलने वाले अर्जेंटीना के खिलाड़ी राष्ट्रीय टीम के लिए इकट्ठा होते हैं तो उनमें वह सहज लय और ठोस तालमेल नहीं दिखता जो ब्राजील, स्पेन या जर्मनी के खिलाड़ियों में दिखता है. पासारेला और जैनेटी जैसे सक्षम मुखियाओं की गैरमौजूदगी में अर्जेंटीना की टीम के बड़े अवसर पर बिखरने की आशंका रहती है.

फिर भी अर्जेंटीना के पास शानदार खिलाड़ी तो हैं ही. सबसे बढ़कर तो उसके पास मैसी हैं. किसी टीम में अगर दुनिया का सबसे अच्छा खिलाड़ी खेल रहा हो तो टीम का उत्साह अपने आप ही बढ़ जाता है. बाकी इस बात पर निर्भर करता है कि सुरक्षा पंक्ति की कमजोरी से पार पाने के लिए टीम कोई रणनीति ढूंढ पाती है या नहीं.

उधर, ब्राजील को इस मोर्चे पर चिंतित होने की जरूरत नहीं है. कप्तान थिएगो सिल्वा के रूप में उसके पास अंतर्राष्ट्रीय फुटबाल का शायद सबसे बढ़िया सेंटर बैक है. दुनिया का ध्यान भले ही नेमार-ऑस्कर-फ्रेड-हल्क के आक्रमण से सजी उसकी फॉरवर्ड लाइन पर हो, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि ब्राजील के पास पाउलिनो, लुई गुस्ताव और रैमायर्स के रूप में सेंट्रल मिडफील्डरों की एक शानदार फौज है. ये ऐसे खिलाड़ी हैं जो जरूरत के हिसाब से सुरक्षा और आक्रमण, दोनों में ताकत जोड़ सकते हैं. इसके अलावा ब्राजील के पास डैनी एल्विस और मार्सेलो भी हैं जो शायद दुनिया के सर्वश्रेष्ठ आक्रामक फुल बैक हैं. इस तरह देखें तो आक्रमण के लिहाज से ब्राजील की टीम दूसरी टीमों से ज्यादा ताकतवर है.

इसके उलट स्पेन के पास सबसे बढ़िया संतुलन है. कंट्रोल, क्रिएशन, पजेशन और टैंकलिंग, हर लिहाज से स्पेनिश टीम मजबूत है. कंट्रोल के मोर्चे पर उनके पास जैवी मार्टिनेज, सर्गियो बस्क्वेट्स और जाबी अलोंसो हैं. क्रिएटिविटी के लिहाज से एंड्रेस इनिएस्टा, जुआन माटा, डेविड सिल्वा और कोक का कोई सानी नहीं. शावी हैर्नांडिस के रूप में उनके पास दुनिया का सबसे प्रभावशाली मिडफील्डर है. शावी की क्षमताओं का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि स्पेन के पास ऊंचे दर्जे वाले मिडफील्डरों का भंडार है, लेकिन विश्व कप के लिए चुना गया 34 साल के शावी को. उनकी टक्कर के सिर्फ इटली के आंद्रिया पिर्लो हैं जो 2006 के विश्व कप फाइनल में मैन ऑफ द मैच थे. वही मैच जिसमें फ्रांस के स्टार खिलाड़ी जिनेदिन जिडान को उनके कुख्यात हेड बट के कारण रेड कार्ड दिखाकर मैच से बाहर कर दिया गया था. अगर शावी ने 2010 में स्पेन को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी तो पिर्लो 2006 में इटली की विश्वकप जीत के सूत्रधार थे. पिर्लो भी अब 34 के हो चुके हैं और यह उनके अनुभव और क्षमता का ही कमाल है कि उन्हें कहीं ज्यादा युवा और चुस्त खिलाड़ियों पर वरीयता मिली है.

इससे एक अहम संकेत मिलता है. विश्व कप का खिताब अपनी झोली में डालने के लिए किसी भी टीम को प्रभावी मिडफील्डरों की भी जरूरत होगी, न कि सिर्फ सुर्खियों में छाए रहने वाले फॉरवर्डों की. बल्कि स्पेन और जर्मनी तो शायद ही पारंपरिक फॉरवर्ड का इस्तेमाल करें. सी फाब्रेगास और गोत्जे जैसे खिलाड़ी शायद इस बार फॉल्स नाइन वाली भूमिका में होंगे. पिछले कुछ सालों के दौरान चलन में आई इस भूमिका के तहत खिलाड़ी की पोजीशन तो फॉरवर्ड या स्ट्राइकर की होती है, लेकिन उसका खेल एक हमलावर मिडफील्डर जैसा होता है. लियोनेल मेसी सबसे मशहूर फॉल्स नाइन हैं.

चार शीर्ष टीमों के अलावा इस बार नीदरलैंडस से भी काफी उम्मीदें लगाई जा रही हैं. पहले ही मैच में विश्व चैंपियन स्पेन को 5-1 से रौंदकर उसने आगाज भी उम्मीदों के हिसाब से ही किया है. बेल्जियम के बारे में भी कहा जा रहा है कि उसकी अब तक की सर्वश्रेष्ठ टीम मैदान में है. वैसे भी इस दौर को बेल्जियन फुटबाल का स्वर्णिम दौर कहा जा रहा है. कोएशिया भी कोई चमत्कार कर सकती है जिसके पास लूका मोड्रिक के रूप में शावी या पिर्लो का सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी है. इसके अलावा इटली, फ्रांस और जापान पर भी सबकी नजर रहेगी. विश्व कप में हर बार किसी अफ्रीकी टीम का कमाल भी दिखता है. यह बात अलग है कि दूसरे दौर में उसकी वह लय बरकरार नहीं रह पाती. दरअसल अभी तक सिर्फ आठ टीमें ही विश्व कप जीत सकी हैं तो उसका एक कारण है और वह यह है कि खिताब जीतने के लिए खेल के एक स्तर तक पहुंचना होता है. ब्राजील अगर पांच बार विश्व कप जीता है तो इसकी वजह उसकी पूर्व प्रतिष्ठा नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ उसके खेल का निरंतर श्रेष्ठ स्तर है.

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