कोई मुझसे पूछे तो मैं फाइनल में वही दो टीमें देखना चाहूंगा जो 1990 के विश्व कप फाइनल में भिड़ी थीं–जर्मनी और अर्जेंटीना. क्यों? क्योंकि कि वे दुनिया की सबसे अच्छी चार टीमों में से हैं. बाकी दो हैं स्पेन और ब्राजील. जर्मनी और अर्जेंटीना को फाइनल में देखने की मेरी इस इच्छा की एक और वजह भी है. फुटबाल को उसके कर्ता-धर्ता किस तरह चलाते हैं, इस मामले में ये दोनोें देश दुनिया का सबसे बड़ा विरोधाभास हैं. वे इस खेल की दुनिया के दो ध्रुव हैं.
लगभग डेढ़ दशक पहले गर्त में जा चुके जर्मन फुटबाल ने अपनी लय किस तरह वापस पाई यह अब एक मशहूर उदाहरण है. 2000 में यूरोपियन चैंपियनशिप के पहले ही दौर में बाहर होकर जर्मनी फुटबाल में अपने पतन के पाताल में पहुंच गया था. उस पूरे टूर्नामेंट में टीम बस एक ही गोल कर सकी. इसके बाद जर्मन फुटबाल जगत में काफी उथल-पुथल हुई. जर्मनी की फुटबाल एसोसिएशन डायचर फुसबाल बुंड (डीएफबी) में आमूलचूल बदलाव लाए गए. यह इसलिए भी बहुत जरूरी हो गया था कि 2006 का विश्व कप जर्मनी में ही होना था.
तो जर्मनी ने फुटबाल में खुद को संवारने के लिए सरकारी खजाने का मुंह खोल दिया. छोटी-छोटी जगहों पर खेलने के लिए मैदान और दूसरी सुविधाओं की व्यवस्था हुई. युवा प्रशिक्षक तैयार किए गए जिन्होंने युवा प्रतिभाओं को खोजना और तराशना शुरू कर दिया. इसका नतीजा 2010 में दक्षिण अफ्रीका में हुए विश्व कप में दिखा जहां 23 साल के औसत के साथ जर्मनी सबसे नौजवान और आकर्षक टीम थी. इंग्लैंड को 4-1 और अर्जेंटीना को 4-0 के प्रभाशाली अंतर से हराते हुए जर्मनी सेमीफाइनल में पहुंचा जहां उसे भावी चैंपियन स्पेन ने एक रोमांचक मैच में 1-0 से हराया.